संसद में शोर-शराबा

डॉ. वेदप्रताप वैदिक
संसद का आखिरी सत्र है और इसकी हालत क्या है ? पूरा एक सप्ताह गुजर गया और वह शोर-शराबे की भेंट चढ़ गया। इस सत्र में लगभग पचास विधेयक पास होने हैं, उन पर बहस होनी है और जरुरी हो तो उनमें संशोधन भी होने हैं। इन सब कामों के लिए विवेक और धैर्य दोनों की जरुरत है लेकिन हमारे सांसद क्या कर रहे हैं ? यदि विपक्ष के सांसद किसी मुद्दे पर शोर मचाते हैं तो पक्ष के सांसद उनसे भी ज्यादा हंगामा खड़ा कर देते हैं। वे संसद में पोस्टर तक लहराते हैं ताकि टीवी चैनलों पर उनके चेहरे चमकते रहें। प्रचार की इस लालसा ने हमारी संसद की छवि को विकृत कर दिया है। इसी से दुखी होकर सुमित्रा महाजन जैसी गरिमा की मूर्ति को लोकसभा अध्यक्षा के नाते कहना पड़ा कि हमारे सांसद स्कूली बच्चों से भी ज्यादा गया-बीता बर्ताव करते हैं। इसमें शक नहीं है कि तीनों हिंदी प्रांतों में भाजपा की हार से विपक्ष में अपूर्व उत्साह का संचार हुआ है लेकिन यदि वह यह मानता है कि छह माह बाद उसे सत्तारुढ़ होना है तो क्या उसे जिम्मेदारी की मिसाल पेश नहीं करनी चाहिए ? क्या उसे सरकार की गलतियों को प्रभावशाली तर्को के साथ देश के सामने पेश नहीं करना चाहिए और उसे क्या यह नहीं बताना चाहिए कि यदि वह सत्ता में आया तो वह क्या-क्या करेगा ? यदि राष्ट्र-निर्माण के मुद्दों पर सार्थक और गंभीर बहस हो तो विपक्ष की उत्तम छवि तो बनेगी ही, देश का भी लाभ होगा। संसद में फिजूल शोर-शराबे का एक दुष्परिणाम यह भी होगा कि जनता का ध्यान तीनों नए कांग्रेसी मुख्यमंत्रियों की किसान हितकारी घोषणाओं पर उतना नहीं जाएगा, जितना इस शोर-शराबे पर जाएगा। यदि विपक्ष अपना रवैया नहीं बदलेगा तो जनता यही समझेगी कि जैसा मोदी है, वैसा ही विपक्ष होगा। यदि विपक्ष सत्तारुढ़ हुआ तो वह भी गप्पबाजी और नौटंकियों में पांच साल बिता देगा।

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