सवाल सिर्फ़ हिंदी का नहीं

उमेश उपाध्याय

imagesबहस हिंदी और अंग्रेज़ी की कतई नहीं है सवाल सारी गैर अंग्रेज़ी भाषाओँ का हैं. अंग्रेजी अब एक खास तरीके से समाज में असमानता को और ज्यादा गहराने वाली भाषा बन गई है. ज्यों ज्यों इन्टरनेट का फैलाव हो रहा है कार्य व्यापार से भारतीय भाषाएँ सिमटती जा रहीं हैं.आज से पचास साल बाद क्या होगा अत्यंत समृद्ध और संपन्न भारतीय भाषाओँ का? क्या वे पुस्तकालयों तक सीमित नहीं रह जायेंगी?

सीमा फोन पर जोर जोर से रो रही थी. मैं तुरंत हॉस्टल पहुंचा. उसे चुप कराया. खाना खिलाया. वार्डन से बात करके मैं वापस आकर सोचने लगा कि थोड़े दिन पहले ही तो उसने इंजीनियरिंग में दाखिला लिया था. कितने उत्साह से अपने माँ बाप के साथ वो मेरे दफ्तर आई थी. छत्तीसगढ़ के सुदूर आदिवासी इलाके से आई सीमा ने बारहवीं कक्षा में 65 प्रतिशत अंक हासिल किये थे. फीस के पैसे के लिए परिवार ने पुश्तेनी ज़मीन का एक टुकड़ा बेचा था. पर इसका उन्हें कोई मलाल नहीं था वे तो बस बेटी का इंजीनियर बनने का सपना पूरा करने के लिए सबसे अच्छे कॉलेज मे एडमिशन चाहते थे. फीस का सारा पैसा नगद लाये थे. गांव के कोई दस बारह लोग उसे दाखिले के बाद रायपुर छोड़ने आये थे. चटक ज़रीदार गुलाबी कुर्ते और हरी पजामी में सीमा बहुत खुश लग रही थी. एक अजीब से स्नेह का नाता बन गया था उसका और मेरा.

मगर धीरे धीरे वह उदास रहने लगी. कक्षाओं से जी चुराने लगी. कभी बीमारी का बहाना तो कभी मन खराब रहने का. एक दिन फुर्सत में उसके साथ बैठा. पता पडा कि उसे क्लास में कुछ समझ नहीं आता. सहपाठियों के सामने उसकी हेठी होती है. उसकी दिक्कत थी कि वो स्कूल में हिंदी मीडियम से पढ़ी थी और इन्जीनियरिंग की पढाई अंग्रेज़ी में होती है. साल पूरा होते होते सीमा पीछे होती गई और फिर उसने कॉलेज छोड़ दिया ….

 

सीमा अकेली नहीं हैं जो सिर्फ़ भाषाज्ञान के कारण आगे की पढाई छोड़ने पर मजबूर हुई. जांच करने पर मालूम हुआ कि इन्जीनियरिंग जैसे प्रोफेसनल कोर्स बीच में छोड़ने और उनमें पिछड़ने वाले बच्चे विषयज्ञान से ज्यादा अंग्रेजी से घबराते हैं. अंग्रेजी की मार वो झेल नहीं पाते. स्कूली पढाई बीच में छोड़ने के कारण कई हैं पर कॉलेज छोड़ने के पीछे सबसे बड़े कारणों में भाषा की दिक्कत है. जहाँ विद्यालयों में पढाई मातृभाषा में वहीं उच्च शिक्षा ज़्यादातर अंग्रेजी मैं हैं.

देशभर के आंकडे देखे जाएँ तो स्कूलों में दाखिला लेने वाले कोई एक करोड ७० लाख बच्चे पढाई बीच में छोड़ देते हैं. कॉलेज पढाई बीच में छोड़ने वालों की संख्या भी लाखों में है. इसमें भी समाज के वंचित तबकों जैसे पिछड़ी जाति, अनुसूचित जाति अनुसूचित जनजातियों के विद्यार्थियों की संख्या सबसे ज्यादा है. अंग्रेजी अब एक खास तरीके से समाज में असमानता को और ज्यादा गहराने वाली भाषा बन गई है.

ये बहस हिंदी और अंग्रेज़ी की कतई नहीं है सवाल सारी गैर अंग्रेज़ी भाषाओँ का हैं. भूमंडलीकरण की आंधी में देश में ही नहीं पूरे विश्व में अंग्रेज़ी का वर्चस्व और फैलाव बढ़ता जा रहा है क्योंकि कम्प्युटर की कोडिंग इसी भाषा में हो रही है. अंग्रेजी का वर्चस्व भयावह है. ज्यों ज्यों इन्टरनेट का फैलाव हो रहा है कार्य व्यापार से भारतीय भाषाएँ सिमटती जा रहीं हैं. ई मेल और एस एम एस पर जैसे जैसे लोग निर्भर होते जा रहे हैं अंग्रेजी सीखना ज़रूरी होता जा रहा है. आज मजबूरी है कि हिंदी टाइप करने के लिए भी रोमन स्क्रिप्ट की ज़रूरत पड़ रही है. ये बाज़ार की भाषा है और बाजार और रोज़गार इसी पर केंद्रित हो गया है. पर क्या आदमी की ज़िंदगी सिर्फ़ पेट भरने तक ही सीमित है? हर भाषा से जुडी होती है संस्कृति, सभ्यता, साहित्य, संस्कार और जीवन की एक शैली. आज अंग्रेजी का समर्थन करने वालों से पूछना चाहिए कि सब कुछ इस भाषा में होने के उपरांत हमारी इस समृद्ध धरोहर का क्या होगा ?

कल्पना कीजिये आज से पचास साल बाद की. क्या होगा अत्यंत समृद्ध और संपन्न भारतीय भाषाओँ का? जब सारा कार्य व्यापार और शिक्षा अंग्रेज़ी में होगी तो हमारी अपनी भाषाएँ – हिंदी, तमिल, बंगला, गुजराती, असमिया, मराठी, तेलुगु, कन्नड़ आदि का क्या होगा? क्या वे पुस्तकालयों तक सीमित नहीं रह जायेंगी.

हिंदी पर चल रही आज की बहस को इसलिए इसे सिर्फ़ आउटसोर्सिंग और कालसेंटर से होने वाली आय से ही जोड़कर मत देखिये. इसे इस व्यापक सन्दर्भ में देखना ज़रूरी है अन्यथा ये मुद्दा भी रोज की चकल्लस वाली राजनीति में फंस कर रह जाएगा. इसीलिये इस बहस से राजनेताओं को बहुत दूर रखने की ज़रूरत है. क्योंकि पहले भी नेताओं ने वोट की राजनीति से जोड़कर हिंदी का बड़ा नुक्सान किया है. उनका ध्यान सदा से वोटों पर रहा है लोंगों पर नहीं. और भाषा का सवाल जुड़ा है लोंगों के वजूद से, उनकी भावनाओं से और उनकी अस्मिता से.

(फेसबुक वाल से साभार)

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