सीबीआई की वैधता का सवाल कायम

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प्रमोद भार्गव

downloadकेंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो को असंवैधानिक करार दिए जाने वाला गुवाहाटी उच्च न्यायालय के फैसले को सर्वोच्च न्यायालय ने स्थगन आदेश जरुर दे दिया है लेकिन उसकी वैधता का सवाल अपनी जगह कायम है। सीबीआई को अवैध ठहराने का फैसला हैरत में डालने वाला जरूर लगता है,लेकिन इस बड़े सवाल को एकाएक नजरअंदाज किया जाना उचित नहीं होगा ? यह कोई ऐसा अकेला कानून नहीं है, जिसके अस्तित्व की वैधता पर सवाल उठाया गया है। इसी साल अक्टूबर में सर्वोच्च न्यायलय ने आधार कार्ड की वैधानिकता को कठघरे में लाते हुए उसकी अनिवार्याता पर रोक लगाई थी। हमारे यहां गैरजरूरी और विंसगतियों से परिपूर्ण ऐसे कई कानून हैं, जिनकी या तो जरूरत नहीं रह गई है अथवा उन्हें विधायिका और कार्यपालिका अपने निजी हितों के लिए वजूद में बनाए रखे हुए है। ऐसे कानूनों को वजूद में बनाए रखने से केवल दो लक्ष्य साधे जा रहे हैं,एक तो विरोधियों को बेवजह परेशान किया जाना और दूसरे नौकरशाही के लिए बतौर सुरक्षा कवच काम आना।

सीबीई के कानूनी संस्थागत ढ़ांचे को गैरकानूनी ठहराना, उनके लिए आईना है,जो संसद कि गरिमा एंव सर्वोच्चता का बखान करते नहीं उधते ? क्योंकि सीबीआई की मौजूदा स्थापना का कानूनी वजूद, संसद के पटल से गुजारा ही नहीं गया । इसलिए गुवाहाटी उच्च न्यायालय के न्यायाधीश इकबाल अहमद अंसारी और इंदिरा शाह की युगल खंडपीठ ने बीएसएनएल के अधिकारी नवेंद्र कुमार की याचिका पर सुनवाई के बाद यह फैसला दिया। दरअसल सीबीआई ने नवेंद्र के खिलाफ भ्रष्‍टाचार का एक मामला 2001 में धारा 120 बी और आईपीसी की धारा 420 के तहत दर्ज किया था। इस बाबत नवेंद्र्र कुमार ने सीबीआई के गठन को ही चुनौती जनहित याचिका के जरिए दे दी। हालांकि इस याचिका को एकल खंडपीठ ने खारिज कर दिया था, किंतु युगल पीठ ने सीबीआई के वजूद को ताजा फैसले में नकार दिया।

अदालत ने कहा कि संसद में कानून बनाए बिना, महज एक सचिव द्वारा तैयार किए प्रारूप व प्रस्ताव के मार्फत 1 अप्रैल 1963 को सीबीआई का गठन हो गया। इस पर तत्कालीन सचिव वी विश्‍वनाथन ने दस्तखत किए थे। महज एक पृष्‍ठीय प्रस्ताव से प्रक्रिया पूरी कर ली गई थी। अदालत के समक्ष जब यह तथ्य आया तो वह चैकन्नी हुई और उसके जहन में सवाल कौंधा कि क्या वाकई कोई एकमात्र सचिव सीबीआई जैसी देशव्यापी एजेंसी खड़ी कर सकता है ? और यदि कर सकता है तो कैबिनेट, संसद और विधानसभाओं की जरूरत ही क्या रह जाती है ? इस लिहाज से अदालत ने सीबीआई के तत्कालीक गठन को मौजूदा अनिवार्यताओं को पूरा करने के लिए एक अस्थायी उपाय माना। क्योंकि इस प्रस्ताव को वैधानिक स्वरूप देने के क्रम में न तो कोई अध्यादेश जारी हुआ था और न ही कानून में कोई संशोधन हुआ। यह केंद्र्रीय कैबिनेट का फैसला भी नहीं था। कार्यकारी आदेश पर राष्‍ट्रपति के हस्ताक्षर भी नहीं हैं। इसलिए इसे विभागीय आदेश तो माना जा सकता है, किंतु भारत सरकार का कानूनी आदेश नहीं माना जा सकता। इस फैसले के बाद सीबीआई के कानूनी स्वरूप की समीक्षा और इसे कानूनी वजूद दिए जाने का अवसर आ गया है।

इस फैसले को केवल यह कहकर नहीं टाला जा सकता है कि सीबीआई बीते 50 साल से वजूद में है, इसलिए इसके मौजूदा स्वरूप को ही बने रहना चाहिए। हालांकि गुवाहाटी हाई कोर्ट द्वारा इस फैसले में सर्वोच्च न्यायालय के नजरिये को नजरअंदाज किया गया। सुप्रीम कोर्ट 1990 में दिए एक फैसले में डीएसपीई अधिनियम की वैधानिकता को स्वीकार किया था। इसी अदालत की तीन न्यायमूर्तियों की पीठ ने 2007 में और संविधान पीठ ने 2010 में सीबीआई के गठन को संवैधानिक ठहराया हुआ था। इसके अलावा बहुचर्चित विनीत नारायण मामले में भी सुप्रीम कोर्ट सीबीआई के मौजूदा स्वरुप के पक्ष में रही। इस परिप्रेक्ष्य में यह बात आष्चर्यजनक लगती है कि सीबीआई को अनेक आपराधिक मामलों की जांच के निर्देष देश की उच्च और सर्वोच्च न्यायालयों ने दिए है, फिर एकाएक गुवाहाटी उच्च न्यायालय में इसकी वैधता पर प्रष्न चिन्ह क्यों खड़ा कर दिया। इस लिहाज से यह फैसला सर्वोच्च न्यायालय की अवहेलना के दायरे में भी आता है।

सीबीआई के वर्चस्व को खंगालें तो पता चलता है कि फिरंगी हुकूमत के दौरान 1946 में दिल्ली विषेश पुलिस स्थापना अधिनियम बनाया गया था। इसका कार्यक्षेत्र केवल केंद्र्र षासित प्रदेषों तक सीमित रखते हुए और इसे इंटेलिजेंस ब्यूरो के तहत रखा गया। तब इसका मुख्य उद्देश्‍य क्रांतिकारी आंदोलनों और उनके आय के स्रोतों का पता लगाना था। 1948 में एक पुलिस महानिरीक्षक की तैनती कर इस संस्था को उसके मातहत कर दिया गया। आजादी के बाद इसके कार्यक्षेत्र में विस्तार करने के साथ 1963 में इसके दायरे में भारतीय दंड विधान की अपराध को संज्ञान में लाने वाली 91 धाराएं जोड़ दी गईं। साथ ही 16 अन्य केंद्रीय अधिनियम और भ्रष्‍टाचार निरोधक कानून भी इसके दायरे में ला दिए गए। बाद में 1 अप्रेल 1963 को गृह मंत्रालय के सचिव वी विष्वनाथन ने एक प्रस्ताव बनाया और इसे कार्मिक मंत्रालय के अधीन कर दिया।

हालांकि वर्तमान में सीबीआई एक ऐसा ढांचा हैं, जिसे एक साथ तीन गृह, कानून और कार्मिक मंत्रालय नियंत्रित करते हैं। इसलिए सर्वोच्च न्यायालय ने सीबीआई को पिंजरे के तोते की संज्ञा देते हुए स्वतंत्र एवं स्वायात्त संस्था बनाने का निर्देष केंद्र्र सरकार को दिया था। जिससे यह महत्वपूर्ण संस्था एक तो राजनीतिज्ञों के हाथ का खिलौना न बनी रहे और दूसरे, इसकी भूमिका न्यायपालिका, निर्वाचन आयोग और नियंत्रक एवं लेखा महानिरीक्षक जैसी बन जाए। लेकिन सरकार ने इस दिषा में कोई पहल नहीं की।

सीबीआई देश की एकमात्र ऐसी संस्था हैं,जिस पर पुलिस से भारोसा उठने के बाद आम आदमी सीबीआई से मामल की जांच कराने की मांग करता है। हालांकि बावजूद इसकी विश्‍वसनीयता और केंद्र सरकार द्वारा दुरूपयोग किए जाने के सवाल विपक्ष पुरजोरी से उठाता रहता है। भाजपा द्वारा प्रधानमंत्री पद के दावेदार नरेंद्र मोदी सार्वजानिक सभाओं में कह भी रहे हैं कि केंद्र ने मेरे पीछे सीबीआई लगा दी है। मुलायम और मायावती को भी आय से अधिक संपत्ति के मामले मामले में सीबीआई फटकारती रही है। मुलायम का मामला हाल ही में खत्म कर दिया और मायावती का मामला खत्म करने की तैयारी है। ऐसा नहीं है कि सीबीआई का इस्तेमाल केवल कंग्रेस करती रही हो, भाजपा नेतृत्व वाली आटलबिहारी बाजपेयी सरकार भी कांगे्रस की ही संस्कृति को आगे बढा़ती रही है। कुछ समय पहले सीबीआई के पूर्व निदेशक उमाशंकर मिश्रा ने खुला बयान दिया था कि जब वे 2003 से 2005 के बीच इस पद पर थे, तब मायावती से जुड़ी आय से अधिक संपत्ति के मामले में केंद्र के अंड़गे के चलते निश्पक्ष जांच नहीं हो पाई थी। जाहिर है, मार्च 1998 से 2004 तक वाजपेयी प्रधानमंत्री थे।

सीबीआई का वर्तमान ढांचा तीन शाखाओं के अंतर्गत काम करता है। पहली, भ्रश्ट्राचार निरोधक शाखा, दूसरी, आर्थिक अपराध शाखा और तीसरी, विशेष अपराध शाखा। इसका कार्यक्षेत्र अब देशव्यापी है। यह सर्वोच्च व उच्च न्यायालयों तथा केंद्र व राज्य सरकारों के निर्देश पर मामलों की जांच करती है। राजनीतिक और नौकरशाहों के भ्रष्‍टाचार संबंधी अपराधों की जांच सीबीआई से ही संभव हो पाती है। सलाखों के पीछे पहुंचें, लालू प्रसाद यादव और कांग्रेस नेता रसीद मसूद सीबीआई जांच का ही परिणाम हैं। सर्वोच्च अदालत की निगरानी में ही 2जी स्पेक्टम और कोयला घोटाला आगे बढ़ रहा हैं।

संसद की सर्वोच्च गरिमा को ठेंगा दिखाना नौकरशाही के लिए कोई मुश्किल बात नहीं है। जिस सीबीआई का एक सचिव के महज एक पृष्‍ठीय प्रस्ताव से वजूद बना चला आ रहा है, ऐसे ही एक कैबिनैट सचिव केएम चंद्रशेखर ने सीबीआई को सूचना के अधिकार दायरे से बाहर करवा दिया। जबकि यह बदलाव यदि जरूरी भी था, तो इसे संसद के पटल पर रखकर किया जाना जाहिए था। गोपनीयता कानून के तहत यह कार्यवाही की गई। इस हालात ने तय किया कि लोकतंत्र के शीर्षस्थ सदन राज्यसभा और लोकसभा से कहीं ज्यादा हैसियत देश के एक नौकरशाह के पास सुरक्षित है। बहरहाल अब उन निर्वाचित प्रतिनिधियों को सोचने की जरूरत है कि वे आखिर संसद में किन कानूनी भूमिकाओं के निर्वहन में लगे है ? शीर्ष न्यायलय ने फिलहाल स्थगन देकर सीबीआई की लाज बचा ली है। स्थगन मिलने से उन राजनैतिक अपराधियों की मंशाओं पर परनी फिर गया जो सीबीआई जांच के घेरे में थे। अलबत्ता सीबीआई की कानूनी संरचना से पर्दा उठा है,तो देश के सांसदों का दायित्व बनता है कि वे इस महत्पूर्ण संस्था को कानूनी स्वरूप में ढालने का काम करें ? जिससे भविष्‍य में इसके अस्तित्व को लेकर कोई सवाल न खड़े कर पाए ?

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