हिन्दुत्ववाद की राजनीति में भाजपा से प्रतिस्पर्धा आसान नहीं

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                                                                            तनवीर जाफ़री

             जिस दौर में भारतीय जनता पार्टी ने कांग्रेस को मुसलमानों का तुष्टीकरण करने वाली पार्टी के रूप में प्रचारित कर हिन्दुत्ववाद की अपनी राजनीति का और अधिक विस्तार किया था उस समय शायद राहुल गाँधी के सलाहकारों ने उन्हें भी सलाह दे डाली थी कि वे भी स्वयं को हिन्दू हितैषी यहां तक की ‘जनेऊधारी हिन्दू’ प्रचारित करें। तभी राहुल गांधी ने 2017 के गुजरात विधानसभा चुनाव प्रचार के दौरान राज्य के 20 से अधिक मंदिरों का दौरा भी किया था। 2017 में छिड़ी सॉफ़्ट बनाम हार्ड लाइन हिंदुत्व की बहस के बीच तत्कालीन केंद्रीय मंत्री स्वo अरुण जेटली ने राहुल गांधी के मंदिर-मंदिर जाने के इन प्रयासों पर तंज़ कसते हुये कहा था कि- ‘बीजेपी को हमेशा से हिंदुत्व की समर्थक पार्टी के तौर पर देखा जाता रहा है। यदि कोई हमारी नक़ल करना चाहता है तो हमें कोई शिकायत नहीं है। लेकिन राजनीति का एक बेसिक सिद्धांत रहा है, यदि असली उपलब्ध है तो कोई क्लोन पर भरोसा क्यों करेगा। उनकी पार्टी की जड़ें ‘हिंदुत्व’ में रही हैं, लेकिन हिंदू धर्म में हाल में आस्था में रखने वाले लोग एक ‘क्लोन’ की तरह हैं।’ उसी दौरान जब राहुल गांधी सोमनाथ मंदिर गए तो मंदिर प्रबंधकों द्वारा उनका नाम ग़ैर-हिंदुओं के नाम वाले रजिस्टर में दर्ज  किया गया था। इसके बाद उपजे विवाद पर भाजपा ने राहुल गांधी पर हमला बोला था और उनसे अपने धर्म को लेकर स्थिति स्पष्ट करने को कहा था। तभी कांग्रेस को यहां तक सफ़ाई देनी पड़ी थी कि  राहुल गांधी ‘जनेऊ धारी हिंदू’ हैं। स्वयं राहुल गांधी को यह भी बताना व जताना पड़ा कि ‘वे शिव भक्त परिवार से आते हैं।’ परन्तु स्वयं को’हिन्दू’ जताने के राहुल के प्रयासों का कोई भी फ़र्क़ कांग्रेस या राहुल गांधी की राजनीति पर पड़ता नज़र नहीं आया और आख़िरकार उन्हें कांग्रेस की मूल गांधीवादी विचारधारा पर ही क़ायम रहते हुये ‘भारत जोड़ो ‘ यात्रा जैसी कठिन परन्तु कारगर राह अख़्तियार करनी पड़ी।

                                    इसी बात को इन उदाहरणों के माध्यम से भी समझा जा सकता है कि जब असम के वर्तमान मुख्यमंत्री हिमंता बिस्वा सरमा कांग्रेस छोड़कर भाजपा में गये तो वहां जाने के बाद उन्होंने कांग्रेस की गांधीवादी विचारधारा को तिलांजलि दे दी और स्वयं को खांटी व उग्र हिंदुत्ववादी नेता के रूप में ढाल लिया। इसका मक़सद केवल यही है कि उनकी मुख्यमंत्री की कुर्सी सलामत रहे और उनपर भाजपा ही नहीं बल्कि आर एस एस की भी नज़्र-ए-इनायत बनी रहे। अब भी वे समय समय पर कांग्रेस व नेहरू गांधी परिवार पर हमलावर होकर भाजपा के प्रति अपनी वफ़ादारी का सुबूत देने के लिये मजबूर रहते हैं। यही स्थिति आम आदमी पार्टी से भाजपा में शामिल हुये दिल्ली के नेता कपिल मिश्रा की भी है। आप पार्टी में रहते हुये भाजपा व प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर सख़्त शब्दों में हमलावर होने के उनके कई वीडिओ अभी भी सोशल मीडिया पर उपलब्ध हैं। परन्तु भाजपा में शामिल होते ही उन्होंने न केवल हिंदुत्ववादी बल्कि फ़ायर ब्रांड हिंदुत्ववादी नेता के रूप में स्वयं को स्थापित कर लिया है। आज देश में कहीं भी साम्प्रदायिकता की चिंगारी धधकती है उस समय कपिल मिश्रा वहां चिंगारी को हवा देने पहुँच जाते हैं। ऐसे और भी अनेक उदाहरण हैं जिनसे यह साबित होता है कि इस समय भारतीय जनता पार्टी देश में हिन्दुत्ववाद की राजनीति करने का एकमात्र प्लेटफ़ॉर्म बन चुकी है।

                                   क्या ऐसे में आम आदमी पार्टी के नेता अरविन्द केजरीवाल का हिन्दुत्ववाद की राजनीति का सहारा लेने की कोशिश करना उन्हें भाजपा के मुक़ाबले में खड़ा कर पायेगी? आख़िर आई आई टी से शिक्षित होने के बावजूद उन्हें बाक़ायदा प्रेस कॉन्फ़्रेंस कर यह कहने की ज़रुरत क्यों महसूस हुई कि “ हमारे देश की अर्थव्यवस्था की स्थिति बहुत अच्छी नहीं है. डॉलर के मुक़ाबले रुपया रोज़  कमज़ोर होता जा रहा है। अतःयदि  देवी-देवताओं का आशीर्वाद हो तो प्रयासों का फल मिलने लगता है। ” साथ ही उन्होंने कहा कि हर महीने छपने वाले नए नोटों में महात्मा गांधी के साथ गणेश और लक्ष्मी की तस्वीरें छापने की व्यवस्था कर दी जाए। अपनी इस मांग के समर्थन में उन्होंने इंडोनेशिया का हवाला देते हुये यह भी कहा कि इंडोनेशिया एक मुस्लिम देश होने तथा वहां हिंदुओं की आबादी दो प्रतिशत होने के बावजूद वहां की करेंसी में गणेश की तस्वीर है। हालांकि उनका इंडोनेशिया का उदाहरण ग़लत साबित हुआ।

                                   केजरीवाल ने भारतीय करेंसी पर महात्मा गांधी के साथ गणेश और लक्ष्मी की तस्वीरें छापने की मांग सम्बन्धी पत्र भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को लिख डाला। परन्तु लगता है कि केजरीवाल की यह मांग शायद उन्हें ‘हिंदुत्ववादी चोला ‘ तो नहीं पहना सकी हाँ ‘बैक फ़ायर’ ज़रूर कर गयी। क्योंकि देश के अनेक साधू संतों,अखाड़ों व अनेक हिन्दू धार्मिक संगठनों ने केजरीवाल की इस मांग पर यह कहते हुये आपत्ति जताई कि जिस करेंसी का मांस-मदिरा और अनेक अनैतिक कार्यों में आवागमन होता रहता हो उस पर गणेश-लक्ष्मी क्या किसी भी देवी देवता के चित्र नहीं छापे जा सकते। स्वयं को हिंदुत्ववादी जताने की प्रतिस्पर्धा में ही गुजरात चुनाव प्रचार के दौरान केजरीवाल ने यह भी कहा है कि “हम सब लोग गाय को अपनी माता मानते हैं, अगर गुजरात में आम आदमी पार्टी की सरकार बनी तो हर गाय की अच्छी तरह से देखभाल करेंगे और हर गाय के रख रखाव के लिए 40 रुपये प्रति गाय प्रति दिन के हिसाब से देंगे।” इसी तरह 2021 के दिल्ली विधान सभा के बज़ट सेशन के दौरान अरविंद केजरीवाल ने अपने भाषण में कहा था कि वह दिल्ली में ‘राम राज्य’ लाने के लिए काम कर रहे हैं। उसी समय उन्होंने दिल्ली के एक मंदिर में भगवान राम की 30 फ़ुट ऊंची मूर्ति बनाये जाने को अपनी सरकार की  एक उलपब्धि के तौर पर गिनाया था। अब वे कभी कभी नरेंद्र मोदी की ही तरह तिलक-कंठी-माला धारण किये हुए भी नज़र आ जाते हैं।

                                 इसके अलावा भी केजरीवाल अब अपनी सत्ता विस्तार के प्रयासों में काफ़ी भ्रमित दिखाई देने लगे हैं। क्योंकि उन्होंने अपनी पार्टी के व अपने दिल्ली व पंजाब के मुख्यमंत्री कार्यालय में शहीद भगत सिंह व बाबा साहब अंबेडकर के चित्र लगा रखे हैं वैचारिक रूप से भगत सिंह व बाबा साहब अंबेडकर के सिद्धांत भी केजरीवाल के करंसी पर देवी देवता के चित्र छापने के विचारों से क़तई मेल नहीं खाते। अंबेडकर ने तो बौद्ध धर्म स्वीकार करते समय अपनी 22 प्रतिज्ञाओं में पहली ही चार प्रतिज्ञाओं में साफ़ लिखा है कि मैं ब्रह्मा, विष्णु और महेश में कोई विश्वास नहीं करूँगा और न ही मैं उनकी पूजा करूँगा। मैं राम और कृष्ण, जो भगवान के अवतार माने जाते हैं, में कोई आस्था नहीं रखूँगा और न ही मैं उनकी पूजा करूँगा। मैं गौरी, गणपति और हिन्दुओं के अन्य देवी-देवताओं में आस्था नहीं रखूँगा और न ही मैं उनकी पूजा करूँगा। और यह भी कि मैं भगवान के अवतार में विश्वास नहीं करता हूँ। ऐसे में केजरीवाल हिंदुत्ववादी का चोला ओढ़कर कुछ अधिक हासिल कर सकेंगे ऐसा तो क़तई प्रतीत नहीं होता। हक़ीक़त तो यही है कि हिन्दुत्ववाद की राजनीति में भाजपा से प्रतिस्पर्धा आसान नहीं है।

                                                                              तनवीर जाफ़री 

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