डा वीरेन्द्र भाटी मंगल
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की वर्ष 1925 से 2025 तक की यह सौ वर्ष की यात्रा भारत के राष्ट्र जीवन का अद्भुत अध्याय है। यह यात्रा केवल किसी संगठन की नहीं, बल्कि पूरे समाज की जागरूकता, राष्ट्रीयता, सेवा और संगठन-शक्ति के पुनर्जागरण की कथा है। राष्ट्र साधना यह शब्द स्वयं में त्याग, समर्पण, संगठन और संस्कृति का सार समेटे हुए है। बीते 100 वर्षों में भारत ने जिस प्रकार अपनी अस्मिता को पुनः जागृत किया है, वह इसी साधना का प्रत्यक्ष परिणाम है।
इन सौ वर्षों की साधना का प्रारम्भ डॉ. केशवराव बलिराम हेडगेवार जैसे राष्ट्रनिष्ठ महापुरुष से हुआ, जिन्होंने 1925 में एक ऐसे राष्ट्रजीवन की नींव रखी जिसका केंद्र केवल भारत माता थी। उनके मन में यह दृढ़ विश्वास था कि राष्ट्र का उत्थान संगठन, संस्कार और समरस समाज से ही संभव है। बाद में प. पू. श्री गुरुजी (एम. एस. गोलवलकर) ने इस साधना को और विस्तार दिया। दोनों महान आत्माओं की संयोजित दृष्टि ने एक ऐसे राष्ट्रभाव को जन्म दिया, जिसने समाज के प्रत्येक वर्ग को एक सूत्र में पिरोने का प्रयास किया।

राष्ट्र जागरण की मूल प्रेरणा
100 वर्ष पूर्व भारत परतंत्रता, आपसी भेदभाव, अस्पृश्यता, सामाजिक वैमनस्य और सांस्कृतिक भ्रम से जूझ रहा था। पश्चिमी सोच हमारे संस्कारों पर चोट कर रही थी। ऐसे समय में राष्ट्र साधना का उद्देश्य केवल स्वतंत्रता नहीं था, बल्कि स्वाभिमानी, संगठित, संस्कारित और समरस भारत का निर्माण था। डॉ. हेडगेवार ने राष्ट्र की कमजोरी का मूल कारण असंगठन बताया और इसके समाधान के रूप में समाज को संगठित करने की दीर्घ दृष्टि दी। यह संगठन किसी विरोध या संघर्ष पर आधारित नहीं, बल्कि चरित्र निर्माण, अनुशासन और राष्ट्रभाव के विकास पर आधारित था। राष्ट्र साधना के प्रमुख आयाम-वनवासी कल्याण, ग्राम विकास, गो-सेवा और गौ-संवर्धन, शिक्षा एवं संस्कार, सामाजिक समरसता,राष्ट्रीय चेतना, सेवा-कार्यों का विस्तार, ये सभी राष्ट्र साधना के मूल स्तंभ हैं। इन सबका उद्देश्य है समाज के अंतिम व्यक्ति तक राष्ट्रभाव, आत्मनिर्भरता और संस्कृति का प्रकाश पहुंचे।
(क) वनवासी कल्याण-वनवासी समाज भारतीय संस्कृति का जीवंत रूप है। परंतु दुर्भाग्य से आधुनिक समय में वे उपेक्षित रहे। राष्ट्र साधना के इन 100 वर्षों ने वनवासी बंधुओं को शिक्षा, स्वास्थ्य, संस्कार और आत्मगौरव से जोड़ने का विशाल कार्य किया। हजारों विद्यालय, छात्रावास, सेवा केंद्र और संस्कार केंद्र इसी दिशा के प्रतीक हैं।
(ख) ग्राम विकास-भारत की आत्मा गांवों में बसती है। ग्रामीणों में स्वावलंबन, जैविक खेती, कौशल विकास, स्वच्छता, जल-संरक्षण और ग्रामीण अर्थव्यवस्था को सशक्त करने हेतु अनेक कार्यक्रम चलाए गए। समग्र ग्राम विकास का विचार राष्ट्र साधना का महत्वपूर्ण अंग बना।
(ग) गो-संवर्धन और गो-सेवा-गाय भारतीय जीवन का धार्मिक, आर्थिक और सांस्कृतिक आधार है। देशभर में गोशालाओं, गो-पोषण, गो-आधारित उत्पादों को प्रोत्साहन तथा गोवंश संरक्षण के अनेक प्रयास बीते सौ वर्षों का अहम पहलू हैं।
(घ) शिक्षा और संस्कार-भारतीय शिक्षा पद्धति का उद्देश्य केवल ज्ञान अर्जन नहीं, बल्कि चरित्र निर्माण है। इसी सोच को आगे बढ़ाते हुए संस्कार केंद्र, एकल विद्यालय, सरस्वती शिशु मंदिर, गुरुकुल परंपरा को प्रोत्साहन, युवाओं में राष्ट्रभक्ति व अनुशासन जैसे अनेक उपक्रम विकसित हुए। शिक्षा को राष्ट्रीय चरित्र से जोड़ने का यह प्रयास राष्ट्र साधना का हृदय है।
(ङ) समाज-समरसता-समाज जाति, भाषा या वर्ग में बंटा तो राष्ट्र कमजोर होता है। पिछले 100 वर्षों में “हम सब एक हैं” की भावना को व्यवहार में उतारने के लिए निरंतर प्रयास हुए मिलन, संवाद, सेवा, साथ भोजन, सह-जीवन जैसी कई पहलें की गईं। यह राष्ट्र साधना का सबसे शक्तिशाली मूल्य है।
सेवा: राष्ट्र साधना की धड़कन
कभी भूकंप, कभी बाढ़, कभी महामारी हर विपत्ति में स्वयंसेवकों ने आगे बढ़कर सेवा का आदर्श प्रस्तुत किया। सेवा केवल सहायता नहीं, बल्कि समाज के प्रति प्रेम है। आज देशभर में स्वास्थ्य शिविर, रक्तदान, वृद्धजन सहायता, बाल-शिक्षा, आपदा प्रबंधन, नशामुक्ति अभियान, जैसी हजारों सेवाएं इस 100 वर्ष की यात्रा का अमूल्य योगदान हैं।
संस्कृति का संरक्षण और राष्ट्रीय अस्मिता का उत्थान
भारत केवल भूमि नहीं, बल्कि एक जीवंत संस्कृति है। योग, आयुर्वेद, वेद, उपनिषद, संस्कृत भाषा, पर्व-त्योहार, नदियाँ, वन, गौवंश-ये सभी राष्ट्र की आत्मा हैं। राष्ट्र साधना की यह यात्रा संस्कृति को आधुनिक जीवन से जोड़ने का अद्भुत प्रयास है। आज विश्व में बढ़ती भारतीय संस्कृति की प्रतिष्ठा इस तपस्या का प्रत्यक्ष फल है।
आज का भारत: 100 वर्षों की साधना का परिणाम
आज भारत विश्व में सम्मानित, शक्तिशाली और नेतृत्वकारी भूमिका में है। आत्मनिर्भर भारत, डिजिटल भारत, सुरक्षा और रक्षा शक्ति, तीव्र आर्थिक विकास, वैश्विक मंचों पर बढ़ती भूमिका, संस्कृति का विश्वव्यापी प्रभाव यह सब उसी राष्ट्र साधना का परिणाम है, जिसकी शुरुआत 1925 में हुई थी और जिसका विस्तार आज करोड़ों लोगों तक पहुँच चुका है।
अगले 100 वर्षों का संकल्प
राष्ट्र साधना की यह शताब्दी केवल उपलब्धि नहीं, बल्कि आने वाले भारत का मार्गदर्शक है। हमें अब संकल्प लेना है समाज में समरसता बढ़ाएंगे, सेवा भावना को जीवन का आधार बनाएंगे, संस्कृति और राष्ट्रभाव को आगे बढ़ाएंगे, ग्राम व वनवासी जीवन को सशक्त करेंगे, गो-संवर्धन, शिक्षा, संस्कार और संगठन को और मजबूत करेंगे। भारत माता की सेवा ही हमारा धर्म, कर्म और साधना है। इसी भावना के साथ यह 100 वर्ष की यात्रा आने वाले युगों के लिए प्रेरणा बनकर अमर रहेगी।
डा वीरेन्द्र भाटी मंगल