व्हिस्की पीने के लिए और पानी लडने के लिए

हेमेन्द्र क्शीरसागर
व्हिस्की पीने के लिए और पानी लडने के लिए अमेरिकी लेखक मार्क ट्वेन की यह मशहूर कहावत चरितार्थ हो चुकी है। जगह-जगह लोग पानी-पानी के लिए त्राहिमाम-त्राहिमाम हो रहे है। जीने के लिए एक बूंद पानी बमुश्किल से मुनासिब हैं। वहीं व्हिस्की का जगह-जगह पाबंदी के बावजूद मिलना आम बात हो गई है। दूसरी ओर पानी के लिए लडना और व्हिस्की के लिए धन बहाना पड रहा है। आज के हालात में व्हिस्की घट-घट में हैं और पानी पनघट में भी नहीं हैं। आखिर! ऐसा क्यों? क्यां हम पानी के बारे में सब कुछ जानते हैं या जानकर भी अनजान बन रहे हैं। चाहे जो भी इस नुरा-कुश्ति में हमें यह नहीं भुलना चाहिए कि, जल हमें प्रकृति से विरासत में मिला एक अमूल्य संसाधन हैं। यह पृथ्वी पर पाए जाने वाले समस्त प्राणियों तथा पादपों के जीवन का मुख्य आधार हैं, इसीलिए जल को जीवन कहा गया हैं। जहाॅं जीवन है वहाॅं जल तथा वायु की आवश्यकता को कदापि नकारा नहीं जा सकता है। मानव की दिनचर्या जल पर ही निर्भर है। अलबत्ता, जीवन जीने के ढंग में जैसे-जैसे परिवर्तन आ रहा है वैसे-वैसे पानी की खपत बढती जा रही है। यदि इसके अपवव्यय को नहीं रोका गया तो आगामी कुछ ही वर्षों  में भयानक जल संकट से गुजरना पडेगा। अतः बचत के समस्त उपाय किये जाने चाहिये।
बहरहाल, हमारी जीवनदायिनी नदियां खुद अपने अस्तित्व के लिए जूझ रहीं हैं, तमाम शोधों-अध्ययनों के खुलासे के बाद भी हम उन्हें बचाने के लिए कुछ नहीं कर रहे, उल्टे उन्हें और गंदा करते चले जा रहे हैं। नतीजन आज नदियों का जल आचमन लायक तक नहीं हैं, कमोबेश नदियों के अस्तित्व के साथ उनके उद्वग्म से ही खिलवाड हो रहा है। केंद्रीय प्रदुषण नियंत्रण बोर्ड का कहना है कि, देश के 900 से अधिक शहरों और कस्बों का 70 फीसद गंदा पानी पेयजल की प्रमुख स्त्रोत नदियों में बिना शोधन के छोड दिया जाता है, नदियों को प्रदूषित करने में दिनों दिन बढते उद्योग प्रमुख भूमिका निभा रहे हैं। प्रदुषण की मार झेलती देश की 70 फीसद नदियां मरने के कगार पर हैं। कहीं ये गर्मी का मौसम आते-आते दम तोड देती हैं, तो कहीं नाले का रूप धारण कर लेती हैं। शहरों में तो गंदी नाली व कचरे की मार से लथपथ होकर अपने अस्त्तिव से विलुप्त हो रही हैं।
अलबत्ता, पृथ्वी के लगभग 70 प्रतिशत भाग में जल हैं। इस जल का लगभग 97 प्रतिशत भाग सागरों एंव महासागरों में स्थित है, जो खारा है अर्थात पीने योग्य नहीं हैं। पीने योग्य जल केवल 3 प्रतिशत ही है, इसमें से 2 प्रतिशत जल पृथ्वी पर बर्फ मे रूप में जमा हैं। शेष फीसदी जल का 1/3 भाग भूतल पर नदी, तालाब तथा 2/3 भाग भूमिगत जल कुूंए, हैंडपंप, नलकूप आदि में हैं। सिंचाई के लिए पर्याप्त मात्रा में भूमिगत जल होना चाहिये और भूमिगत जल होने के लिये आवश्यक है अच्छी वर्षा तथा वर्षा के जल का संगंहीकरण। वर्षा के जल के सही संग्रहण से जल स्तर में वृद्धि होगी। गोवा इस बात पर ध्यान नहीं दिया गया तो भूमिगत जल का स्तर गिरता ही जायेंगा।
स्तुत्य, देश का कृषि प्रधान जिला बालाघाट जल संचय और वर्षा की बाहुल्यता का सबसे अच्छा उदाहरण है। प्रथम यहाॅं कि कृषि भूमि प्रमुखतः मेढ धारित हैं जहाॅं फसल की पैदावार में उपयोगी जल दीर्घ अवधि तक जमीन में संचित रहने से जल भूतल में संग्रहित होते रहता हैं, यह जल स्तर वृद्धि की सर्वोचित विधी हैं। वहीं दूसरे स्थानों में इस स्वरूप की मेढ युक्त भूमि प्रायः उपलब्ध नहीं होती, जो जल असंचय का माध्यम हैं। द्वितीय यहाॅं वृक्शों के प्रति महत्व, आस्था प्रबल हैं क्यांेकि वनोपज जीवकोपार्जन का एक साधन भी हैं। सबसे विशेश परम्परा अंतिम संस्कार क्रिया लकडी को जलाकर नहीं अपितु गोबर के कंडे (उबले) को जलाकर सम्पन्न होती है, साथ ही भोजन बनाने में इनका उपयोग जंगल की रोकथाम स्वरूप वनाॅंच्छिदता बनी हुई हैं। यही वन प्रधानता औसतन अधिक वर्षा का स्त्रोत अनुकरणीय हैं……….!
अंततः आज नदी, कुआॅं, जलाशय, नल हैं पर जल नहीं ऐसा क्यों? इसके कार्य, कारण हम ही हैं। अब जल रूपी जीवन को बचाने का एकमेव विकल्प हैं, अधिकाधिक लघु बाॅंध, तालाब, चैक डेम, रेन/रूफ वाटर हारवेस्टिंग सिस्टम का निर्माण व उपयोग और प्रदूषित जल के शोधन के उपायों को अपनाना। आगे बढकर वन का समुचित संरक्शण व संवर्धन और जल का संचय करे। अभिभूत, हम सभी आज संकल्प ले की पानी का दुरूपयोग ना करते हुए, गांव का पानी गांव में, खेत का पानी खेत में रखेंगे। यथार्थ इंसान पानी बना तो नहीं सकता पर बचाकर जरूर नीर को क्शीर रख सकता हैं। आखिरकर! आज हम जल बचाएंगे, तो कल जल हमें बचाएंगा….. वरना एक दिन पानी के लिए रंण में दो-दो हाथ करना ही पडेगा।

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