२-जी स्‍पेक्‍ट्रम घोटाला और भारत संचार निगम लिमिटेड की फ़ज़ीहत

श्रीराम तिवारी

संसद के शीत कालीन सत्र (२०१०) का सुचारू रूप से या कामकाजी दृष्टि से नहीं चल पाना तो निस्संदेह देश के लिए अशुभ है ही; किन्तु जिन मुद्दों पर ये सब राजनीति की जा रही है, वे यक्ष प्रश्न मुंह बाए अभी भी यथावत खड़े हैं. उस तरफ जनता का ध्यानाकर्षण होना चाहिए.

१-केन्द्रीय सार्वजनिक उपक्रमों के प्रति सरकार की उपेक्षा और उन पर एम् एन सी की गिद्ध दृष्टि.

२-सार्वजानिक उपक्रमों से देश की आवाम की जरूरतें पूरी करने के बजाय निजी क्षेत्र पर निर्भरता.

3.-वायदा बाजार और सट्टे बाजारी के आगे सरकार का आत्म समर्पण.

४- जिंसों के उत्पादन या आयात-निर्यात का मांग और आपूर्ति में तादात्म्यता का अभाव.

५-जन कल्याणकारी राज्य की जगह मुनाफेबाजी की पतनशील-भ्रष्ट व्यवस्था की ओर प्रस्थान.

इस दौर की एल पी जी नीति के दुष्परिणाम स्वरूप केन्द्रीय सार्वजनिक उपक्रमों की बर्बादी का एक जीवंत उदाहरण है- भारत का दूर संचार विभाग. आजादी के पूर्व से ही पोस्ट एंड टेलेग्राफ नाम से मशहूर सेवा क्षेत्र का बेहतरीन सरकारी विभाग इतिहास में दिल्ली की तरह तीन बार लूटा -पीटा गया. दिल्ली के लुटने-पिटने से बाकी देश को भले ही कोई फर्क नहीं पड़ा हो ,या बाद में असर हुआ हो किन्तु पी एंड टी के विखंडन से जो कुछ हुआ उसका सीधा सम्बन्ध तेलगी कांड और २-जी स्पेक्ट्रम काण्ड से तो है ही इसके अलावा देश की सुरक्षा को भी आघात पहुंचा है.

पोस्ट एंड टेलीग्राफ को क्रमशः पोस्टल और टेलिकॉम सर्विस में हुए पहले विभाजन {१९८४}उपरांत दोनों ही नव पृथक विभागों के सामने अंतर-राष्ट्रीय मानक सेवाओं के लक्ष्य रख दिए गए

एशियाड-१९८३, नई दिल्ली में जब सम्पन्न हुए तो दुनिया भर से भारत आये तत्कालीन मीडिया -प्रतिनिधियों ने समवेत स्वर में भारत की तत्कालीन टेलिकॉम सर्विसेस की मुक्त कंठ से सराहना की थी. उस समय के अन्य सरकारी विभागों में आयकर विभाग और टेलिकॉम विभाग ही ऐसे थे जो लाभ में थे. बाकी सभी बेहद दबाव में घाटे की ओर फिसल रहे थे; तभी सोवियत संघ का पराभव और अमेरिका नीत एक ध्रुवीय वैश्विक अर्थव्यवस्था के दबाव में भारत को अपने राजकोषीय घाटे की रोक थाम के लिए जनकल्याण-कारी गतिविधियों पर अंकुश लगाने, धर्मादा बंद करने, सरकारी क्षेत्र के घाटे वाले विभागों को निजी क्षेत्र में देने की नीति आनन्-फानन में बनाई गई.

६०-७० के दशकों में ,नेहरु -इंदिरा युग में जो राष्ट्रीयकरण और जन-कल्याण के लिए सरकार पर जनता का संगठित दबाव था; वहीं ८०-९० के दशकों में देश की जनता को मंडल -कमंडल में बाँट देने से जन-आन्दोलन जात और धरम में बँट गया, विनाशकारी नीतियों से लोहा लेने के लिए सिर्फ मुठ्ठी भर लाल झंडे वाले ही थे. मार्गरेट थेचर , रोनाल्ड रीगन, गोर्बाचेव और येल्तसिन द्वारा परिभाषित नई आर्थिक उदारीकरण की नीति को भारत में लागू करने की जिम्मेदारी को तब के वित्तमंत्री और अब के {वर्तमान } प्रधान मंत्री ने बखूबी निभाया. इन्होंने धुरपत में शानदार लाभप्रद दूर संचार विभाग को विभाग ही नहीं रहने दिया बल्कि निगमीकरण प्रस्तावित कर १९९२ में सत्ता से बाहर हो गए. बाद के वर्षों में जब एन डी ए को देश को लूटने का मौका मिला तो प्रमोद महाजन, पासवान, शौरी ने इसके तीन टुकड़े कर डाले. एक टाटा को बीच दिया वि देश संचार निगम लगभग फ्री में और एक को महानगर टेलीफोन निगम को विनिवेश की राह बेमौत मरने और भारत संचार निगम लिमिटेड को राजा -राडिया समेत देश और दुनिया के घाघ लुटेरों से लुटने -पिटने को छोड़ दिया.

अटलजी के नेत्रत्व में एन डी ए सरकार ने सिर्फ बेईमान पूंजीपतियों को ही सेलफोन और जी एस एम् के क्षेत्र में पहले तो सस्ते लाइसेंस जारी किये और बाद में लोकल लूप के मामले में रिलाइंस की चोरी पकड़ी जाने पर उसे पुरस्कृत करते हुए रेवेन्यु शेयर का षड्यंत्रपूर्ण फार्मूला इजाद किया, सरकारी क्षेत्र के विशालतम उपक्रम- भारत संचार निगम को जी एस एम् में तब लाइसेंस मिला जब यु पी ए प्रथम की सत्ता आई वरना भाजपा वालों ने तो इस सरकारी उपक्रम का तिया-पांचा ही कर दिया था ,नीरा रादिया ने भारती, रिलाइंस और टाटा जैसे कार्पोरेट जगत की लाबिंग तो २००२ में ही प्रारंभ कर दी थी थी; ये टेप-वैप यु पी ए-२ के जमाने के हैं जो करूणानिधि की तीन बीबियों से उत्पन्न ओलादों के कुकरहाव का परिणाम है.

कनिमोझी, ए राजा और इनके संबंधों से आहत दयानिधि, अझागिरी सबके सब इसकी जानकारी प्रकारांतर से प्रधान मंत्री श्री मनमोहन सिंह जी को पहले ही दे चुके थे. गठबंधन धर्मं निभाने के चक्कर में वे चुप रहे और २-जी, ३-जी पर भारत संचार निगम लिमिटेड (पूर्ववर्ती दूर संचार विभाग) क्षत विक्षत होता रहा.उलटे इस दुधारू निगम को विस्तार और मेंटेनेंस के संसाधनों से महरूम कर गौ ह्त्या जैसा महापाप इन पूर्ववर्ती सभी संचार मंत्रियों ,डाट सचिवों और टेलिकॉम रेगुलाट्री अथौर्टी ऑफ़ इंडिया लिमिटेड के महाभ्रष्ट अध्यक्षों ने किया है.सरकारी क्षेत्र याने देश की जनता के उपक्रमों की कीमत पर अम्बानी, भारती, बिरला, टाटा और राजा राडियाजैसे भ्रष्टों को तो उपकृत किया ही साथ ही; देश की जनता को सस्ती सेवाएँ दिलाने के लिए मशहूर केन्द्रीय सार्वजनिक उपक्रमों की सम्पदा देशी-विदेशी पूंजीपतियों के हाथ ओने-पाने दाम बेचने की कोशिश करने में असफल रहे इस सिस्टम की प्रत्येक हरकत से प्रधान मंत्री जी या तो वाकिफ थे या वे जानबूझकर झूंठ बोल रहे हैं कि उन्हें इस सब की जान कारी ही नहीं थी, यदि उन्हें जानकारी नहीं थी कि भारत संचार निगम का मेघा टेंडर २००९ क्यों रद्द हुआ, यदि उन्हें जानकारी नहीं थी कि ग्रामीण क्षेत्रों में लैंड लाइन नहीं होने के बावजूद यु एस ओ फंड से इन सभी बाजार के खुर्राट खिलाड़ियों को फंडिंग कि गई या कि उन्हें मालूम ही नहीं था कि केन्द्रीय सार्वजनिक उपक्रमों के क्रांतिकारी श्रम संगठनों ने वे तमाम खुलासे जो आज संसद नहीं चल पाने के लिए कारण बन चुके हैं वे २००८ में ही पोस्कार्ड केम्पेन के मार्फ़त माननीय प्रधानमंत्री जी के समक्ष प्रस्तुत कर दिए थे.अब पी ए सी हो या जे पी सी कोई मतलब नहीं रह जाता यदि केन्द्रीय सार्वजनिक उपक्रमों को पूर्वत रादियाओं या पूंजीपतियों के भरोसे छोड़ा जाता है.

कारवाँ गुजर गया, गुबार देखते रहे …

मर गया मरीज, हम बुखार देखते रहे …

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