डा. विनोद बब्बर
26 जनवरी गणतंत्र की एक और वर्षगांठ। एक बार फिर विवेचना। ‘गण’ और ‘तंत्र’ के सबंधों की पड़ताल करने का अवसर। इस बात पर गर्व करने का अवसर भी विश्व को गणतंत्र का पाठ हमने ही पढ़ाया गया था। हजारों वर्ष पहले भी भारतवर्ष में अनेक गणराज्य थे, जहाँ शासन व्यवस्था अत्यंत सुदृढ़ थी और जनता सुखी थी। गण शब्द का अर्थ संख्या या समूह से है। गणराज्य या गणतंत्र का शाब्दिक अर्थ संख्या अर्थात बहुसंख्यक का शासन है। इस शब्द का प्रयोग ऋग्वेद में चालीस बार, अथर्व वेद में नौ बार और ब्राह्मण ग्रंथों में अनेक बार किया गया है। वहाँ यह प्रयोग जनतंत्र तथा गणराज्य के आधुनिक अर्थों में ही किया गया है।
वैदिक साहित्य में, विभिन्न स्थानों पर किए गए उल्लेखों से यह जानकारी मिलती है कि उस काल में अधिकांश स्थानों पर हमारे यहाँ गणतंत्रीय व्यवस्था ही थी। कालांतर में, उनमें कुछ दोष उत्पन्न हुए और राजनीतिक व्यवस्था का झुकाव राजतंत्र की तरफ होने लगा। ऋग्वेद के एक सूक्त में प्रार्थना की गई है कि समिति की मंत्रणा एकमुख हो, सदस्यों के मत परंपरानुकूल हों और निर्णय भी सर्वसम्मत हों। कुछ स्थानों पर मूलतः राजतंत्र था, जो बाद में गणतंत्र में परिवर्तित हुआ।
महाभारत के सभा पर्व में अर्जुन द्वारा अनेक गणराज्यों को जीतकर उन्हें कर देने वाले राज्य बनाने की बात आई है। महाभारत में गणराज्यों की व्यवस्था की भी विशद विवेचना है। कौटिल्य के अर्थशास्त्र में भी लिच्छवी, बृजक, मल्लक, मदक और कम्बोज आदि जैसे गणराज्यों का उल्लेख मिलता है। उनसे भी पहले पाणिनी ने कुछ गणराज्यों का वर्णन अपने व्याकरण में किया है। आगे चलकर यूनानी राजदूत मेगास्थनीज ने भी क्षुदक, मालव और शिवि आदि गणराज्यों का वर्णन किया।
सैंकड़ो वर्षों की गुलामी और आजादी के नाम थोपे गए विभाजन, विश्व के सबसे बड़े रक्तपात की पीड़ा और उत्पाती पड़ोसी के बाद 26 जनवरी 1950 को पुनः गणतंत्र बने भारत ने 75 वर्षों में अनेक आँधी-तूफानों को झेला है। उत्तर तथा पश्चिम से हमले झेले तो अनाज की भयंकर कमी का दौर भी देखा। आयातित घटिया लाल गेहूं के दिनों को पीछे छोड़ते हुए हमने न केवल आत्मनिर्भरता हासिल की बल्कि निर्यात भी किया और खुले में पड़ी अनाज की हजारों बोरियों को बर्बाद होते भी चुपचाप देखा। आज स्थिति यह है कि हमारी सरकारों के पास अनाज रखने की पर्याप्त जगह नहीं है। जगह है तो तकनीक नहीं, स्टाफ नहीं। सबकुछ है तो संकल्प नहीं है। हमारे वैज्ञानिकों ने चांद पर अपने कदमों के निशान सहित
अनेक चमत्कार कर दिखाये तो आज हमारी सूचना प्रौद्योगिकी का लोहा सारी दुनिया मानती है। अमेरिका जैसा विश्व दादा भी बार-बार अपनी जनता को भारत की प्रतिभा का डर दिखाकर मेहनती बनाना चाहता है तो यह केवल और केवल इस देश के ‘गण’ की शक्ति प्रतिभा और समर्पण का अभिनंदन है। जय जवान, जय किसाान से जय विज्ञान इस देश के तंत्र की नहीं बल्कि ‘गण’ की शोभायात्रा है, जिसे सम्पर्ण विश्व दृग-नेत्रों से देख रहा है। अभिनन्दन है माँ भारती के उन सुयोग्य पुत्रों की जिन्होंने अपनी जननी और जन्मभूमि की शान बढ़ाई। … लेकिन देश पर बोझ दूषित राजनीति के कारण तंत्र की विश्वसनीयता तो घटी है क्योंकि कानून के शासन और कर्तव्य परायणता पर भाई-भतीजावाद, अकर्मण्यता, भ्रष्टाचार हावी है। यह भी सत्य है कि देश में कानूनों की कमी नहीं हैं, नित नये भी बनते रहते हैं परन्तु ईमानदारी से क्रियान्वयन का अध्याय नदारद है। देश का धन विदेशों में जा रहा है। शरारती पड़ोसी नकली नोट भेज रहा हैं, अवैध हथियारों संग आतंकवादी, नक्सलवादी. और न जाने कौन-कौन देश के हर कोने तक अपनी पैंठ बनाये हुए हैं तो केवल इसीलिए कि ‘तंत्र’ की आँखें पूरी तरह से खुली हुई नहीं है। यह पूछना बेकार है कि आँखें जानबूझकर नहीं खोली जा रही है या स्वार्थ की पट्टी ने उन्हें ढंक लिया है।
हाँ, ‘तंत्र’ एक कार्य पूरी निष्ठा से कर रहा है, वह कार्य है इस देश को ‘भारत’ और ‘इण्डिया’ में विभाजित करना। देश में दोहरी शिक्षा प्रणाली है तो दोहरी स्वास्थ्य व्यवस्था भी। सुरक्षा के अलग-अलग मापदंड हैं तो बिजली, पानी, सड़क जैसी आवश्यक सुविधाओं की उपलब्धता भी एक जैसी नहीं है। पिछडे क्षेत्रों का अंधेरा और अमीरों की बस्ती की जगमगाहट कहीं भी देखी जा सकती है। दुर्भाग्य से ये दोहरे मापदंड किसी एक दल के शासन तक सीमित नहीं रहे। सांपनाथ, नागनाथ, से भुजंगनाथ तक ‘तंत्र’ ने ‘गण’ का शोषण ही किया है अर्थात् राजनैतिक शुचिता की बातें करने वाले अंधेरगर्दी की कालिख से स्वयं का दामन बचा नहीं सके हैं।
कहने को जनता-जनार्दन है लेकिन राजा कौन है, सभी जानते हैं। ‘राजा’ से अभिप्राय प्रशासन की मृट्ठी में करने वाले, खास परिवार में जन्म लेकर सिंहासन पर अपना अधिकार संमझने वाले युवराज ही नहीं, माफिया और अफससरशाहों की फौज से भी है जो यत्र-तत्र- सर्वत्र छाए हुए हैं। जनता ‘जनार्दन’ नहीं, ‘बेचारी’ दिन-काट रही है क्योंकि उसके लिए बने अस्पतालों में इलाज के नाम पर लम्बी लाइनें तो हैं लेकिन गंभीर रोगी के लिए बिस्तर, बैड भी नहीं है। रेल के सामान्य डिब्बे में पैर रखने की जगह नहीं, पर महंगी गाड़ियां खूब उपलब्ध है। देश के दूर दराज क्षेत्रों की बात छोड़िएस्वयं राजधानी दिल्ली भी लगातार घटती बसों के मामले में बेबस है।
स्कूलों की दशा देश के पिछड़े और दूर-दराज के क्षेत्रों में कैसी होगी, इसका अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि राजधानी के सरकारी स्कूलों की अधिकांश कक्षाओं में भी औसत से दुगने, तिगुने छात्र देखे जा सकते हैं। स्कूलों में कमरे हैं, बेंच है, ‘मिड डे मील’ हैं लेकिन पढ़ाई की स्थिति कैसी है, यह मत पूछो। तंत्र नकल करवा नकली परिणाम दिखाकर स्वयं अपनी पीठ ठोंक सकता है लेकिन सच्चाई पर पर्दा नहीं डाल सकता क्योंकि सरकारी स्कूलों के दस पास अधिकांश छात्र अंग्रेजी तो दूर की बात है ठीक से हिंदी भी पढ़ और लिख नहीं सकते। स्कूलों की सफाई पुताई और कट्टर ईमानदार नेता के चित्र वाले बड़े-बड़े होर्डिंग लगाना शिक्षा का स्तर नहीं सुधर सकता । सरकारी स्कूलों के बारे में बड़े-बड़े दावों से अलग दूसरी ओर प्राइवेट शिक्षा की दुकानें हैं जो नेताओं और अधिकारियों को जेब में रखने का दावा करती हैं। फीस, दाखिले और अनाप-शनाप शुल्क वसूलने की मनमानी के बाद भी उनका बाल बांका न होना यानि सैंकड़ों शिकायतों के बाद भी तंत्र हाथ पर हाथ रखे बैठा रहे, तो यह प्रश्न उत्पन्न होन ही चाहिए कि मिली भगत के बिना यह सब कैसे संभव है?
भ्रष्टाचार और कालेधन पर खूब बढ़-चढ़कर बातें करने वाले क्या इतना भी नहीं जानते कि यह ‘तंत्र’ की निष्क्रियता अथवा मिली भगत के बिना संभव नहीं है। आज प्रश्न यह नहीं कि काले धन का क्या किया जाए बल्कि यह होना चाहिए कि धन काला हुआ ही क्यों? यह तंत्र और नियमों की असफलता नहीं तो और क्या है?
विश्व के सबसे बड़ा लोकतंत्र में ‘गण’ ‘तंत्र’ से आँखे मिलाते हुए डरता है । बेचारा गण तो बिना अपराध किये भी अपराधबोध से ग्रस्त है। लेकिन अपने आप को इस देश का स्वाभाविक शासक मानने वाला अपने राजनीतिक विरोधियों से जीत नहीं पाता तो वह संविधान की प्रति हाथ में लिए घूमता है परंतु अपनी लड़ाई को इंडियन स्टेट अर्थात भारत राष्ट्र के विरुद्ध घोषित करता है। आश्चर्य है कि न्यायपालिका से व्यवस्थापिका तक का तंत्र इन पर कानून का चाबुक फटकारने से बचता है जबकि साधारण जन पर ‘गणतंत्र’ सख्त नियम कानूनों की गन हर समय ताने रहता है। जिस गणतंत्र दिवस अर्थात अपने संविधान लागू होने को हम मानते है , उसकी लाज नेताओं ने कितनी रखी है इसका मूल्यांकन अवश्य होना चाहिए । संविधान में राष्ट्र भाषा घोषित हिन्दी की दशा पर आँसू बहाने वाले कम हो रहे है परंतु संविधान के नीति निर्देशक सिद्धांतों में शामिल समान नागरिक संहिता पर ही शोर मचाने वाले बढ़ रहे हैं। बहुसंख्यकों और उनकी परंपराओं को कोसना धर्मनिरपेक्षता का पर्याय बन चुका है तो दूसरी ओर वोट बैंक की राजनीति के लिए तुष्टीकरण खूब फल फूल रहा है।
यह समझना मुश्किल नहीं कि राजनीति का आकर्षण दिनों- दिन क्यों बढ़ता जा रहा है। नेताओं का साम्राज्य दिन दुगनी-रात चौगुनी तरक्की कर रहा है। जनता को तरह-तरह के अनैतिक प्रलोभन देकर सत्ता हथियाना की होड़ तथा कर्मकांड बनते महंगे चुनाव अभियान के साथ स्वघोषित कट्टर ईमानदारों की संख्या लगातार बढ़ रही है।
सच तो यह है कि देश की सभी समस्याओं, सभी चुनौतियों की चिंता जनता को ही करनी है। गण को ही तंत्र की लगाम कसनी होगी। दागी उम्मीदवार किसी भी पार्टी का हो, उसे सबक सिखाये बिना सच्चे गणतंत्र की कल्पना नहीं की जा सकती। सामान्यजन छोटे से अपराध के लिए वर्षों जेल में सडता रहे तो बड़े से बड़े अपराध करने पर भ्रष्ट और निरंकुश नेताओं को शीघ्र जमानत क्यों? यह कैसा गणतंत्र है जो राजनैतिक अपराधियों के प्रति उदार रहता है । क्या रहबर और राहजन भाई-भाई हैं। यदि गणतंत्र का यह उपहास मन मस्तिष्क को पीड़ा देता है तो हमें सोशल मीडिया सहित हर स्तर पर अपनी आवाज उठानी चाहिए तो दूसरी ओर चुनाव के दिन घर बैठे रहने की अपनी अपराधिक भूल सुधारनी होगी। बटन दबाकर या मोहर लगाकर गण और तंत्र के बीच दीवार बने विषधरों का सफाया करना होगा, तभी कह सकेंगे हम हैं सबसे बड़ा गणतंत्र! सच्चा गणतंत्र !!
यहाँ इस बात का उल्लेख करना आवश्यक है कि राजा का शाब्दिक अर्थ जनता का रंजन करने वाला या सुख पहुँचाने वाला है। हमारे यहाँ जनमत की अवहेलना एक गंभीर अपराध था, जिसके दंड से स्वयं राजपरिवार भी नहीं बच सकते थे राजा सागर को अपने अत्याचारी पुत्र को निष्कासित करना पड़ा था। कुरू वंश के महाराज भारत ने अपने पुत्र को नहीं, राज्य के योग्य पुत्र को अपना उत्तराधिकारी बनाया। पर हम गणतंत्र की जय जयकार करते हुए भी अपने ‘अयोग्य’ पुत्र को तंत्र पर थोपने के लिए प्राण-प्रण से जुटे हैं। तो कोई ‘सुपात्रों’ को ‘साइड’ लगा लोकतंत्र ऋण चुका रहा है। जब गणतंत्र के मंदिर संसद में संवाद नहीं, शोर हो रहा हो तो बौद्ध साहित्य की चर्चा सामयिक होगी। महात्मा बुद्ध से पूछा गया कि गणराज्य की सफलता के क्या करणीय हैं? इस पर बुद्ध ने सात कर्तव्य बतलाए थे-
1. जल्दी-जल्दी सभाएं करना और उनमें अधिक से अधिक सदस्यों का भाग लेना।
2. राज्य के कामों को मिलजुल कर पूरा करना।
3. कानूनों का पालन करना तथा समाज विरोधी कानूनों का निर्माण न करना।
4. वृद्ध व्यक्तियों के विचारों का सम्मान करना।
5. महिलाओं के साथ दुर्व्यवहार न करना।
6 स्वधर्म में दृढ़ विश्वास रखना।
7. अपने कर्तव्य का पालन करना। हमारे आज के गणतंत्र की भी सफलता-असफलता इन बातों को नहीं मानने या मानने में है।