राम मंदिर पर सेक्युलर बनती भाजपा

भारतीय जनता पार्टी पर चढ़ती सेकुलरिज्म का बुखार सबका लिए हैरानी भरा है। वो भारतीय जनता पार्टी जिसे 1998 तक हिन्दू-राष्ट्रवादी पार्टी कहा जाता था, वो पार्टी जिसे 2 सीटों से 272 सीटों पहुँचाने में उसके हिन्दुत्वादी चेहरे का बड़ा योगदान रहा है। अगर वैसी पार्टी अपनी विचारधारा ही बदलने की कोशिश करे तो हैरानी होना स्वाभाविक है। भाजपा के युगपुरुष अटलबिहारी बाजपेयी तथा अब हाशिये पर डाल दिए गए ‘लाल कृष्ण आडवाणी’ का भी एक समय था, जो कभी खुद को रामभक्त बताकर किसी भी कीमत पर राम मंदिर बनवाने की बात करते थे, उनकी ही पार्टी की सरकार के मंत्री राजनाथ सिंह इसे अदालती मामला बताते फिर रहे हैं। ये सच है की 1992 में आडवाणी की सोमनाथ से अयोध्या तक की रथ यात्रा ने रामभक्तों के बीच अपनी अच्छी पैठ बना ली थी, जिसका फायदा उन्हें चुनावों में भी मिला। वर्ष 1998 में बनी वाजपेयी सरकार अपनी हिंदुत्ववादी छवि होने के बावजूद भी उन्होंने विकास के एजेंडे पर काम किया, लेकिन राम-मंदिर मुद्दे का परित्याग नहीं किया था। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, जिन्हे 2002 गुजरात दंगे का मास्टरमाइंड बताया गया, एक हद से ज्यादा उन्हें कट्टर हिंदूवादी चेहरे के रूप में देश के सामने लाया गया, जिसके परिणामस्वरूप 16वीं लोकसभा के चुनावों में वोटों का ध्रुवीकरण उनकी छवि के आधार पर हुआ। नतीज़न, पार्टी पूर्ण बहुमत से सत्ता पर काबिज हो गयी व अपने कट्टरवादी चेहरे को प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बिठा दिया।

संघ के विभिन्न हिंदूवादी संगठनों में प्रमुख रूप से विश्व हिन्दू परिषद राम-मंदिर पर मोदी से आशान्वित थी। लेकिन सरकार का हिन्दूवादी एजेंडे से डरकर भागना कायर सिद्ध नहीं करता? जिस पार्टी का जन्म से लेकर अबतक का इतिहास राम-जन्म भूमि के इर्द-गिर्द घूमता है वो पार्टी अब सत्ता में होने के बावजूद भी सदन में चर्चा कराने से भी घबरा रहा है। यूनिफार्म सिविल कोड, गौ हत्या या राम-जन्म भूमि जैसे मसलों में अगर सबकुछ अदालतों पर ही छोड़ दिया जाना था तो बाबरी विध्वंश की क्या जरूरत थी? रथ-यात्रा करने व उसके कारण जेल जाने की नौटंकी क्या किसी स्वार्थ की ओर इशारा नहीं करती?

सब जानते हैं की भारतीय अदालतों की गति का दुनिया में कोई जोड़ नहीं, अदालत भी जानती हैं की रामलला, राम-जन्म भूमि है। और कितने प्रमाण चाहिए इन दिखावटी मौलाना सेक्युलरिस्ट नेताओं को। खुदाई में मिली ‘ॐ नमः शिवाय’ लिखी ईंटें तब की है जब शायद बाबर की औलादों के परदादाओं के भी परदादा का जन्म नहीं हुआ होगा। लेकिन कोर्ट को इनसे कोई सरोकार नहीं, क्योकि कानून तो अँधा है। पर इनकी आँखें तब होती है जब बात सेकुलरिज्म से सम्बंधित हो। दूसरी तरफ BJP की नज़र अगले साल होने वाले U.P. चुनावों पर है, जहाँ संभव है की एक बार फिर राम नाम का शगूफा छोड़ा जा सकता है। लेकिन अब इतना आसान भी नहीं, राम नाम का राजनीतिक फायदे के लिए इस्तेमाल करने वालों के लिए कोई गुंजाइश नहीं बची है, जरूरत है सच्चाई का साथ देने की, सच पर सदन में बहस कराने की।

बड़ा दुःख होता है की हम हिन्दू अपने भगवान के प्रत्यक्ष जन्म-स्थल के लिए संघर्ष कर रहें है, लेकिन जेरुसलम में ऐसा क्यों नहीं होता? वेटिकन में ऐसा क्यों नहीं होता? काबा में ऐसा क्यों नहीं होता? अक्सर हम हिन्दू ही क्यों दबे-कुचले जाते हैं? सोचियेगा……

2 COMMENTS

  1. एक अन्य बात भी.आपने काबा जेरूजेलम और वैटिकन की भी अच्छी कही.वहां तो एक एक हैं यहाँ भी वाराणसी को वैटिकन की तरह क्यों नहीं विकसित किया जाता? आज राम जन्म भूमि है,कल कृष्ण जन्मभूमि का विवाद खड़ा हो जायेगा,परसों कोई और,तो हम दूसरों से अपनी .तुलना क्यों करते हैं?

  2. अश्विनी कुमार जी,मैंने तो सुना था कि नरेंद्र मोदी अपने विकास पुरुष की छवि के कारण २०१४ का चुनाव जीते है.अब आपसे यह नई बात सुन रहा हूँ.किसे सत्य समझा जाए?

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