संगीत की सार्थकता से दुनियां को रू ब रू कराया नौशाद ने

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अनिल अनूप
नौशाद अली भारतीय फिल्म जगत के जाने-माने संगीतकार और संगीत निर्देशक थे. नौशाद को विशेष रूप से पारम्परिक गानों के लिये जाना जाता है.
नौशाद का जन्म 26 दिसंबर 1919 को लखनऊ के एक मुस्लिम परिवार में हुआ था. नौशाद के पिता का नाम वाहिद अली था और वह क्लर्क थे. नौशाद ने संगीत की शिक्षा उस्ताद गुरबत अली, उस्ताद यूसूफ अली और उस्ताद बब्बन साहेब से ली.
नौशाद हिंदी सिनेमा के फैन तब से थे जब मूक फिल्में बना करती थीं. 1931 में भारतीय सिनेमा में जब आवाज आई ,उस समय नौशाद 13 साल के थे. नौशाद मुस्लिम परिवार से थे इसलिए उनके संगीत सीखने पर पाबंदी थी. नौशाद के पिता ने उन्हें सख्त हिदायत दी कि अगर घर रहना है तो तुम्हें संगीत छोड़ना पड़ेगा. लेकिन नौशाद नहीं माने और 1937 में वह घर से भागकर मुंबई आ गए. कुछ दिन तक नौशाद लखनऊ के एक परिचित के साथ रहते थे और कुछ दिन बाद वह दादर शिफ्ट हो गए. वह अपने संघर्ष के दिनों में फुटपाथ पर भी सोया करते थे.
नौशाद ने अपने शुरुआती दिनों में एक पियानो वादक के रूप में भी काम किया. नौशाद संगीतकार उस्ताद झंडे खान के साथ 40 रुपये महीने की पगार पर काम किया करते थे. इसके बाद कंपोजर खेमचंद प्रकाश ने उन्हें फिल्म कंचन में असिस्टेंट के रूप में रख लिया. तब नौशाद को महीने के 60 रुपये मिलते थे. नौशाद खेमचंद को अपना गुरु मानते थे. उन्हें पहली बार 1940 में एक संगीतकार के रूप में काम करने का मौका फिल्म ‘प्रेम नगर’ में मिला लेकिन यह फिल्म रिलीज नहीं हुई. उनकी पहचान 1944 में आई फिल्म ‘रतन’ से बनी. नौशाद को 1954 में फिल्म बैजू बावरा के लिए बेस्ट म्यूजिक डायरेक्टर का फिल्मफेयर अवॉर्ड दिया गया. उन्हें 1981 में दादा साहेब फाल्के और 1992 में भारत सरकार की तरफ से पद्म भूषण से सम्मानित किया गया.
नौशाद की मृत्यु 5 मई 2006 को मुंबई में हुई थी. नौशाद ने ‘प्रेम नगर’, ‘नई दुनिया’, ‘कानून’, ‘जीत’, ‘संजोग’, ‘पहले आप’, ‘अनमोल घड़ी’, ‘तेरी पायल मेरे गीत’ जैसी फिल्मों में संगीत दिया.
मैट्रिक पास करने के बाद वे लखनऊ के विंडसर एंटरटेनर म्यूजिकल ग्रुप के साथ
दिल्ली , मुरादाबाद , जयपुर, जोधपुर और सिरोही की यात्रा पर निकले। जब कुछ समय बाद वह म्यूजिकल ग्रुप बिखर गया तो नौशाद ने लखनऊ लौटने के बजाए
मुंबई का रुख़ किया और 16 वर्ष की किशोर उम्र में यानी 1935 में वे मुंबई आ गए। नौशाद के लिए मुंबई उम्मीदों का शहर था। यहां उन्हें पहला ठिकाना के रूप में दादर के ब्रॉडवे सिनेमाघर के सामने का फुटपाथ मिला। तब नौशाद ने सपना देखा था कि कभी इस सिनेमाघर में उनकी कोई फ़िल्म लगेगी। उस किशोर कल्पना को साकार होने में काफ़ी वक्त लगा। ‘ बैजू बावरा ‘ जब उसी हॉल में रिलीज हुई, तो वहां रिलीज के समय नौशाद ने कहा, इस सड़क को पार करने में मुझे सत्रह साल लग गए..। शुरू में नौशाद ने एन. ए. दास यानी नौशाद अली दास के नाम से कुछ संगीतकारों के साथ काम किया। उन्हें काम मिलने लगा था, लेकिन बहुत नहीं।
हम जिन्हें संगीतकार नौशाद के नाम जानते हैं, उनका सही नाम था नौशाद अली। उन्हें संगीत से लगाव बचपन में ही हो गया था। चौथे दशक में वे फ़िल्मों से जुडे़, लेकिन इससे पहले उन्हें बहुत मेहनत करनी पड़ी थी।
सिनेमा संगीत को हिंदुस्तानियत का जामा पहनाने वाले नौशाद का जन्म तहजीब और नजाकत के लिए मशहूर नवाबों के शहर लखनऊ में हुआ था। घर वालों का मुख्य काम था मुंशीगीरी, लेकिन बालक नौशाद का मन तो पूरी तरह संगीत में बसता था। जब वे नौ साल के थे, तब लखनऊ के अमीनाबाद के मुख्य बाज़ार की एक दुकान, जहाँ वाद्ययंत्र बिकते थे, के क़रीब वे रोज जाने लगे। जब कई दिनों तक ऐसा हुआ, तो मालिक ने एक दिन पूछ ही लिया। बातचीत के बाद नौशाद ने वहाँ काम करना स्वीकार लिया। उनका काम हुआ दुकान खुलने के समय से लेकर अन्य स्टाफ के आने से पहले की साफ-सफाई। नौशाद को तो जैसे मुंहमांगी मुराद मिल गई थी। वे रोज समय से आते और दुकान खुलवाकर सभी वाद्ययंत्रों की अच्छी तरह सफाई करते और उन्हें जी भर कर छूते। कुछ वक्त तो ऐसे ही बीत गया। एक दिन दुकान खोलने वाले स्टाफ ने नौशाद से कहा, भइया.., तुम जब तक साफ़ सफाई करो, मैं तब तक
चाय पीकर आता हूं। नौशाद ने कहा, जी ठीक है। वे उधर गए, नौशाद ने मौका देखकर वाद्ययंत्रों पर हाथ आजमाना शुरू कर दिया। एक दिन उस साज पर तो दूसरे दिन दूसरे और फिर तीसरे दिन तीसरे साज पर..। इसी तरह हर रोज स्टाफ चाय पीने जाता और नौशाद रियाज में लग जाते। यह रोज का काम हो गया। यह सब महीनों तक चला। एक दिन वह भी आया, जब मालिक समय से पहले आ धमका और नौशाद हारमोनियम बजाते पकड़े गए। नौशाद डरे हुए थे, उनकी हालत खराब थी। ठंड के समय में पसीना आ निकला था, लेकिन मालिक ऊपर से गुस्सैल बना रहा, वह अंदर से खुश था। पूछताछ के बाद अंत में मालिक ने वह पेटी यानी हारमोनियम नौशाद को दे दी और कहा, अच्छा बजाते हो, खूब रियाज करना..।
नौशाद का घर लखनऊ के अकबरी गेट के कांधारी बाज़ार, झंवाई टोला में था। वे लाटूस रोड पर अपने उस्ताद उमर अंसारी से संगीत सीखने लगे, इस बात से उनके वालिद नाराज रहते थे। अंत में बात यहां तक हो गई कि वालिद ने कह दिया कि अगर संगीत को अपनाओगे तो घर छोड़ दो। नौशाद ने मन में यह बात ठान ली कि घर छोड़ना सही होगा, लेकिन संगीत नहीं..। वे संगीत को अपनाए रहे। उनका अब मूल काम गाना-बाजाना हो गया। हालांकि उन पर कुछ कुछ समय बाद कई बार पाबंदियां लगीं, घर के दरवाज़े बंद किए गए, लेकिन नौशाद ने दादी का सहारा लिया और संगीत का शौक़ जारी रखा। उनके पांव और ख्वाब उनके
पिता कभी नहीं रोक सके। इसी बीच उन्होंने मैट्रिक पास किया।
1940 में बनी ‘प्रेम नगर’ में नौशाद को पहली बार स्वतंत्र रूप से संगीत निर्देशन का मौका मिला। इसके बाद एक और फ़िल्म ‘स्टेशन मास्टर’ भी सफल रही। उसके बाद तो जैसे नौशाद संगीत के मोतियों की माला-सी बुनते चले गए। नौशाद को पहली बार ‘सुनहरी मकड़ी’ फ़िल्म में हारमोनियम बजाने का अवसर मिला। यह फ़िल्म पूरी नहीं हो सकी लेकिन शायद यहीं से नौशाद का सुनहरा सफर शुरू हुआ। इसी बीच गीतकार दीनानाथ मधोक (डीएन) से उनकी मुलाकात हुई तो उन्होंने उनका परिचय फ़िल्म इंडस्ट्री के अन्य लोगों से करवाया जिससे नौशाद को छोटा-मोटा काम मिलना प्रारंभ हुआ।
यह नौशाद के संगीत का ही जादू था कि ‘ मुग़ल-ए-आजम ‘, ‘ बैजू बावरा ‘, ‘अनमोल घड़ी’, ‘शारदा’, ‘आन’, ‘संजोग’ आदि कई फ़िल्मों को न केवल हिट बनाया बल्कि कालजयी भी बना दिया। ‘दीदार’ के गीत- ‘बचपन के दिन भुला न देना’, ‘हुए हम जिनके लिए बरबाद’, ‘ले जा मेरी दुआएँ ले जा परदेश जाने वाले’ आदि की बदौलत इस फ़िल्म ने लंबे समय तक चलने का रिकॉर्ड क़ायम किया। इसके बाद तो नौशाद की लोकप्रियता में ख़ासा इजाफा हुआ। ‘बैजू बावरा’ की सफलता से नौशाद को सर्वश्रेष्ठ संगीतकार का पहला फ़िल्मफेयर अवॉर्ड भी मिला। संगीत में उनके उल्लेखनीय योगदान के लिए 1982 में फालके अवॉर्ड , 1984 में लता अलंकरण तथा 1992 में पद्म भूषण से उन्हें नवाजा गया।
नौशाद को सुरैया , अमीरबाई कर्नाटकी, निर्मलादेवी, उमा देवी आदि को प्रोत्साहित कर आगे लाने का श्रेय जाता है। सुरैया को पहली बार उन्होंने ‘नई दुनिया’ में गाने का मौका दिया। इसके बाद ‘शारदा’ व ‘संजोग’ में भी गाने गवाए। सुरैया के अलावा निर्मलादेवी से सबसे पहले ‘शारदा’ में तथा उमा देवी यानी टुनटुन की आवाज का इस्तेमाल ‘दर्द’ में ‘अफ़साना लिख रही हूँ’ के लिए नौशाद ने किया। नौशाद ने ही मुकेश की दर्दभरी आवाज का इस्तेमाल ‘अनोखी अदा’ और ‘अंदाज’ में किया। ‘अंदाज’ में नौशाद ने दिलीप कुमार के लिए मुकेश और राज कपूर के लिए मो. रफी की आवाज का उपयोग किया। 1944 में युवा प्रेम पर आधारित ‘रतन’ के गाने उस समय के दौर में सुपरहिट हुए थे।
सन 1954 में ‘बैजू बावरा ‘ फ़िल्म के लिए सर्वश्रेष्ठ संगीतकार का पहला फ़िल्मफेयर पुरस्कार
संगीत में उनके उल्लेखनीय योगदान के लिए 1982 में फालके अवॉर्ड
1984 में लता मंगेशकर सम्मान
1984 में अमीर खुसरो पुरस्कार
1992 में पद्म भूषण
1992 में संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार
महाराष्ट्र गौरव पुरस्कार
सन 1940 से 2006 तक उन्होंने अपना संगीत का सफर जारी रखा। उन्होंने अंतिम बार 2006 में बनी ‘ताजमहल’ के लिए संगीत दिया। अपने अंतिम दिनों तक वे कहते थे, ‘मुझे आज भी ऐसा लगता है कि अभी तक न मेरी संगीत की तालीम पूरी हुई है और न ही मैं अच्छा संगीत दे सका।’ और इसी मलाल के साथ वे 5 मई,2006 को इस दुनिया से रुखसत हो गए।

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