दिल्ली में विधानसभा होने के बावजूद आज भी यदि दिल्ली को केन्द्रशासित प्रदेश कहा जाए तो कोई गलत नहीं होगा. दिल्ली की भूमि और दिल्ली की पुलिस आज भी केंद्र सरकार के अधीन हैं. देश की राजधानी होने के कारण बहुत से विषयों में यह आवश्यक भी है. दिल्ली के भूतपूर्व मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल की सरकार ने वास्तविक वस्तुस्थिति को भलीभांति समझते हुए की केंद्रीय लोकपाल अधिनियम २०१३ के लागू हो जाने बाद जिसमें राज्यों के लिए लोकायुक्त का प्रावधान किया गया है, अब राज्य सरकारें अपने राज्य के लिए इसमें केवल संशोधन ही कर सकती हैं.
दिल्ली जैसा राज्य जो बिना केन्द्रीय आर्थिक सहायता के एक दिन भी चल नहीं सकती, के अधिकतर प्रस्ताव केंद्र सरकार की अनुमति से ही पारित किये जाते हैं क्योंकि यदि इनमें किसी प्रकार के अतिरिक्त वित्त की आवश्यकता हो तो केंद्र सरकार ऐसे होनेवाले अतिरिक्त धन की व्यवस्था कर सके. दूसरी बड़ी बात यह की राज्यों को यह भी सुनिश्चित करना होता है संसद द्वारा पहले से पारित किये गए अधिनियमों का राज्य सरकारों प्रस्तुत किये जाने वाले प्रस्तावों से किसी प्रकार का टकराव या उल्लंघना न हो.
ऐसे में एक मुख्यमंत्री पद पर रहे केजरीवाल से इन प्रश्नों के उत्तर अपेक्षित हैं :
केजरीवाल लोकायुक्त में संशोधन की बात न कह कर निरंतर जनलोकपाल बिल को पारित करने की बात कहकर जनता को क्यूं भरमा रहे थे ?
१. यह जानते हुए कि अतिरिक्त वित्त की आवश्यकता वाले किसी भी प्रस्ताव को विधानसभा में प्रस्तुत करने से पूर्व उपराज्यपाल के माध्यम से केंद्र सरकार को भेजना आवश्यक है, फिर भी तथाकथित लोकपाल बिल को सीधे ही विधानसभा के पटल पर रखने की जिद क्या दर्शाता है ?
२. दिल्ली सरकार के पास जबकि उनका अपना कानून मंत्रालय है…ऐसे में बाहर के कुछ प्रसिद्द वकीलों से तथाकथित लोकपाल बिल पर राय-मशवरा लेना और फिर उसे मीडिया के द्वारा प्रचारित करवाना क्या दर्शाता है ? सरकारी काम-काज में एडवोकेट जनरल या एटोर्नी जनरल की भी राय ली जाती है…क्या केजरीवाल ने ऐसा किया ? हालांकि बाद में वह भी झूठी बात ही साबित हुई क्योंकि उन्होंने इस विषय किसी भी प्रकार की राय देने की बात से ही इनकार कर दिया था.
३. जब भाजपा और कांग्रेस उस तथाकथित लोकपाल बिल को तकनीकी गलियारों के माध्यम से पेश करने पर पारित करने की बार-बार सहमती जता रहे थे तो केजरीवाल अपनी असंवैधानिक जिद पर क्यों अड़े थे…..?
४. दिल्ली विधानसभा में अन्य दलों की सहमती व मिल कर दिल्ली की आम जनता के सरोकारों के लिए कार्य करने की अपेक्षा सभी से लगातार टकराव की स्थिति क्यों पैदा की… ? क्या दिल्ली और देश की जनता ऐसे ही शासक और शासन की अभिलाषा करती है ?
५. हर बात पर झूठ बोलना और फिर उससे भी बार-बार पलटी मारने की आदत के साथ-साथ संवैधानिक संस्थाओं और मर्यादाओं की लगातार अनदेखी के चलते जनसरोकारों और जनांदोलनों के माध्यम से राजनीति में प्रवेश करनेवालों की विश्वसनीयता पर एक बहुत बड़ा प्रश्न चिन्ह लगा दिया है.
६. कल जिस प्रकार का आचरण आम आदमी पार्टी के स्पीकर सहित विधायकों ने दिल्ली विधानसभा में प्रदर्शन किया था, उससे लोकतान्त्रिक मर्यादाओं और मूल्यों को मानने वाले इस देश के हर नागरिक का सर शर्म से झुकना स्वाभाविक ही है.
यह मेरे व्यक्तिगत उदगार और प्रश्न हैं
आप मित्रों के भी विचार जानने को इच्छुक हूं!
१.केजरीवाल ने त्याग पत्र क्यों दिया? २.तत्कालीन गृहमंत्री श्री लाल कृष्ण अडवाणी ने २००२ में दिल्ली सरकार के लिए यह प्रावधान क्यों किया कि वह बिना केंद्र यानि केंद्रीय गृह मत्रालय की अनुमति के कोई भी बिल विधान सभा में नहीं रख सकता? ३.जहां तक मुझे याद है ,जब १९९३ में दिल्ली को राज्य का दर्जा मिला था,तब केंद्र में कांग्रेस का शासन था और दिल्ली में भाजपा ने कार्य सम्भाला था,पर याद रहे कांग्रेस ने इसका संज्ञान लेकर इस तरह का कोई कार्य नहीं किया,जो दिल्ली राज्य के विरुद्ध जाता,वहीँ जब दिल्ली में कांग्रेस की सरकार आयी और केंद्र में भाजपा की ,तब दिल्ली प्रशासन के पर कुतरने की व्यवस्था क्यों की गयी?४जहां तक रेकार्ड का प्रश्न है शीला दीक्षित ने अपने शासन काल में १३ ऐसे बिल पारित किये जिसपर उन्होंने केंद्र की अनुमति नहीं ली,पर उनपर प्रश्न नहीं उठाये गए,ऐसा क्यों हुआ?५..आम आदमी पार्टी बनने या बनाने का मुख्य लक्ष्य क्या है?६..केजरीवाल ने संविधान की शपथ खाई थी या गृह मंत्रालय की?७.ये भारतीय जनता पार्टी वाले बार बार कांग्रेस मुक्त भारत की बात क्यों करते हैं ,भ्रष्टाचार मुक्त भारत की क्यों नहीं?जनता पार्टी ने भी इंदिरा हटाने की बात की थी,पर उस समय ऐसा कहना कुछ हद तक ठीक था,फिर भी नतीजा क्या हुआ?इंदिरा हट तो गयी ,पर भ्रष्टाचार बढ़ता गया. आज तो हालात यह है कि भ्रष्टाचार के मामले में भाजपा और कांग्रेस एक ही पंक्ति में खड़े हैं.फिर कांग्रेस मुक्त भारत हो भी जाए,पर भ्रष्टाचार मुक्त होगा क्या?८.साठ और सत्तर के दशक में भी हर बात में अमेरिका को बीच में लाया जाता था.अब फिर वही नारा क्यों शुरू किया जा रहा है?९.तस्करों और हवाला के पैसे पर पलने वाली पार्टियाँ(कांग्रेस के ८३% और भाजपा के ७४% चंदे की रकम बेनामी हैं)आम आदमी पार्टी के बजाप्ता रसीद द्वारा उगाहे गए ५ करोड़ के विदेशी चंदों पर बार बार प्रश्न क्यों उठाती है?
ये सब प्रश्न और अगणित अन्य प्रश्न उत्तर उत्तर ढूंढ रहे हैं. इनमे से कुछ प्रश्न बार बार उठाये गए हैं,पर अभी तक उत्तर की तलाश है.
मैंने अपने लेख में जिन प्रश्नों को आम आदमी पार्टी की दिल्ली में कांग्रेस के समर्थन से चलाई गई ४९ दिनों की सरकार के भूतपूर्व मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल के सामने रखे थे…..गोपाल कृष्ण जी आपने उनमें से किसी एक का भी सीधे से उत्तर देने के बजाए….चर्चा की दिशा को ही मोड़ने का प्रयास किया है। आम आदमी पार्टी के अधिकतर नेता या समर्थक कुछ ऐसा ही आचरण करने में माहिर हैं।
कृपया उपरोक्त प्रश्नों को एक बार पुनः शान्ति से पढने की चेष्ठा करें और यदि जवाब हो तो देवे। कुछ इसी प्रकार का प्रयत्न कल दास कृष्ण जी ने फेसबुक पर अपनी वाल पर भी किया था। जिसके फलस्वरूप ही मैंने आपकी वाल पर लिखना बंद किया था.
मेरा ऐसा मानना है की आम आदमी पार्टी के समर्थक बहुत ही दिग्भ्रमित हैं। देश में शासन कर रही पार्टियों द्वारा जनापेक्षाओं और समस्यों की समयबद्ध योजना की निरंतर अनदेखी के फलस्वरूप जो जनआक्रोश देश में पैदा हुआ है उसका लाभ उठाते हुए चंद लोग आमजनता को दिग्भ्रमित करने का काम कर रहे हैं। इनका लक्ष्य समस्याओं को हल करना न होकर देश को एक ऐसे स्थिति में लाकर खड़ा करना है जहाँ सब कुछ अव्यवस्थित हो जाएगा। कुछ कर दिखाने या समस्याओं को हल करने का एक उदाहरण प्रस्तुत करने के लिए उनके पास दिल्ली जैसा महानगर था। परन्तु अपनी नाकामयाबी को छुपाने के लिए जिस प्रकार का आचरण उन्होंने सरकार में रह कर किया, उसका अंत समर्थन वापसी या त्यागपत्र के साथ ही होना निश्चित था।
दलों के समर्थकों की मनस्थिति किस प्रकार की होती है उसका वर्णन तो मैं अपने अनेक आलेखों में करता ही रहता हूँ।मैं तो इन्हें राजनीतिक दलों के खूंटे से बंधे लोगों की उपमा ही दिया करता हूँ।
इसी विषय पर अभी हाल ही में मैंने कहीं एक कहानी पढी थी जिसे आप मित्रों से साँझा कर रहा हूँ :
एक बार की बात है। एक चरवाहा अपने १०० ऊँटों के साथ रेगिस्तान से गुजर रहा था। अंधेरा होता देख मालिक ने एक सराय में रुकने का आदेश दे दिया।
निन्यानवे ऊंटों को जमीन में खूंटियां गाड़कर उन्हें रस्सियों से बांध दिया मगर एक ऊंट के लिए खूंटी और रस्सी कम पड़ गई। सराय में खोजबीन की, पर व्यवस्था हो नहीं पाई। तब सराय के मालिक ने सलाह दी कि तुम खूंटी गाड़ने जैसी चोट करो और ऊंट को रस्सी से बांधने का अहसास करवाओ।
यह बात सुनकर मालिक हैरानी में पड़ गया, पर दूसरा कोई रास्ता नहीं था, इसलिए उसने वैसा ही किया। झूठी खूंटी गाड़ी गई, चोटें की गईं। ऊंट ने चोटें सुनीं और समझ लिया कि बंध चुका है। वह बैठा और सो गया। सुबह निन्यानबे ऊंटों की खूटियां उखाड़ीं और रस्सियां खोलीं, सभी ऊंट उठकर चल पड़े, पर एक ऊंट बैठा रहा।
मालिक को आश्चर्य हुआ…- अरे , यह तो बंधा भी नहीं है , फिर भी उठ नहीं रहा है।
सराय के मालिक ने समझाया – तुम्हारे लिए वहां खूंटी का बंधन नहीं है मगर ऊंट के लिए है। जैसे रात में व्यवस्था की , वैसे ही अभी खूंटी उखाड़ने और बंधी रस्सी खोलने का अहसास करवाओ। मालिक ने खूंटी उखाड़ दी जो थी ही नहीं, अभिनय किया और रस्सी खोल दी जिसका कोई अस्तित्व नहीं था। इसके बाद ऊंट उठकर चल पड़ा।
न केवल ऊंट बल्कि मनुष्य भी ऐसी ही खूंटियों से और रस्सियों से बंधे होते हैं जिनका कोई अस्तित्व नहीं होता। मनुष्य बंधता है अपने ही गलत दृष्टिकोण से, मिथ्या सोच से, विपरीत मान्यताओं की पकड़ से। ऐसा व्यक्ति सच को झूठ और झूठ को सच मानता है। वह दुहरा जीवन जीता है। उसके आदर्श और आचरण में लंबी दूरी होती है। कुछ ऐसा ही आचरण अराजकता के पक्षधरों का भी है। व्यवस्था की खामियों को दूर करने की अपेक्षा वह व्यवस्था में ही आमूलचूल परिवर्तन की वकालत करने लगे हैं। अराजकता को स्वराज से जोड़ने की धींगा-मुश्ती करने में पिले पड़े हैं। जनआक्रोश के कारणों को समझ उनकी समस्याओं को दूर करने के उपाय तलाशने व व्यवस्था की खामियों को दूर करने की अपेक्षा जनआक्रोश को भुनाकर देश और समाज में जंगलराज फैलाना चाहते हैं। साथ ही वाम विचारधारा के अनुरूप वर्गसंघर्ष की स्थिति भी पैदा करने का प्रयास किया जा रहा है।
जहाँ तक अराजकता शब्द का प्रश्न है…..तो अराजकता शब्द को अंगरेजी भाषा में anarchy, outlawry या lawlessness बताया गया है। जिसका हिंदी भाषा में अर्थ होता है :
Anarchy :
anarchy-संज्ञा
अराजकता chaos, anarchy, lawlessness
अव्यवस्था clutter, chaos, disorder, breakup, disarray, anarchy
anarchy
कुप्रबंध anarchy, misgovernment, Inorganization
शासनहीनता anarchy
गड़बड़ी anarchy, confusion
Outlawry :
outlawry
अवैधीकरण outlawry, illegitimation
विधिबाह्यता outlawry
कानून भंग outlawry
डकैती outlawry, ravin, Dacoity
विधि-विद्रोह outlawry
outlawry-संज्ञा
ग़ैरक़ानूनी बनाना outlawry
नाजायज बनाना outlawry
समाज से बाहर जाना outlawry
नियम-विस्र्द्ध बनाना
Lawlessness :
lawlessness-संज्ञा
अराजकता chaos, anarchy, lawlessness
अवैधता illegality, illegitimacy, lawlessness, anomaly
न्यायविस्र्द्धी illegality, lawlessness
नियम-विस्र्द्धी lawlessness
lawlessness
अव्यवस्था Dislocation, maladjustment, disturbance, lawlessness, topsyturvy, shapelessness
अव्यवस्था अंधेर lawlessness
मुझे तो यह समझ में ही नहीं आता की उपरोक्त तमाम शब्दों और परिस्थियों का स्वराज्य से क्या लेना देना है ? स्वतंत्रता संग्राम के दौरान विदेशी शासकों से देश को आजाद करवाने और अपना यानि भारतीयों का शासन हो…इसी मंशा के साथ स्वराज्य की मांग की गई थी. स्वराज्य मेरा जन्म सिद्ध अधिकार है……इन मांग को सबसे पहले उठाने वाले लोकमान्य तिलक ने अराजकता की परिकल्पना के साथ यह मांग नहीं उठाई थी….
चूँकि मैंने जो प्रश्न उठाये हैं….चर्चा को केवल उन्हीँ तक सीमित रख उनका ही उत्तर चाहता हूँ। भारतीय लोकतान्त्रिक गणराज्य, भारतीय संस्कृति के परिवेश में रमे देश वासियों की विचारधारा में विदेशी सिद्धांतों का कोई स्थान नहीं है. वाम विचारधारा का हश्र देश और दुनिया देख ही चुकी है।
भारतीय जनमानस मंदिर या मस्जिद की व्यवस्था को सुधारने के लिए पुजारी या प्रबंध कमेटी को तो बदल सकता है….न कि मंदिर या उसमें स्थापित मूर्ती को। सत्ता प्राप्ति के लिए पनपने वाले नित नए दलों और उसके कार्यकर्ताओं को यह समझना होगा। अराजकता की अवधारणा के पक्षधरों को यह भी समझना होगा की उनकी आम आदमी पार्टी भी संगठन व नियम बना कर ही सत्ता प्राप्ति के लिए चुनावी मैदान में उतरे हैं। जबकि वह दूसरी और राज्य,संगठन और नियम विहीन समाज की परिकल्पना देश को समझाकर दिग्भ्रमित करने में लगे हुए हैं। भटकाव के स्थिति में अधिक समय तक रहना संभव नहीं है। मेरी तो यही मान्यता है की मनुष्य का मन जब भी जागे, लक्ष्य का निर्धारण सबसे पहले करे। उद्देश्य के बिना या गलत लक्ष्य की और मीलों तक चलना सिर्फ थकान, भटकाव और नैराश्य देगा, मंजिल नही। इसके साथ ही हमें भारतीय परिपेक्ष में स्वराज्य के अर्थ को भी समझना होगा। महात्मा गांधी द्वारा जिस स्वराज्य की कल्पना की गई है वही इसकी वास्तविक परिभाषा भी है।
मैंने अपने लेख में जिन प्रश्नों को आम आदमी पार्टी की दिल्ली में कांग्रेस के समर्थन से चलाई गई ४९ दिनों की सरकार के भूतपूर्व मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल के सामने रखे थे…..गोपाल कृष्ण जी आपने उनमें से किसी एक का भी सीधे से उत्तर देने के बजाए….चर्चा की दिशा को ही मोड़ने का प्रयास किया है. कृपया उपरोक्त प्रश्नों को एक बार पुनः शान्ति से पढने की चेष्ठा करें. कुछ इसी प्रकार का प्रयत्न दास कृष्ण जी ने कल फेसबुक पर भी किया था.
चर्चा के विषय को और न भटका कर केवल और केवल प्रश्नों के उत्तर ही देवें……
“एक बड़ा सवाल” पढ़ा और उससे भी बड़ा सवाल मन में आया| क्या “एक बड़ा सवाल” पूछने से पहले लेखक ने सर्वव्यापक अनैतिकता और भ्रष्टाचार में देश और देशवासियों की दयनीय परिस्थिति को ठीक से समझने की कोशिश की है? रोटी रोज़ी के सवाल का समाधान ढूंढ़ते यदि कोई पत्रकार एक बड़ा सवाल पूछता है तो में उसकी लाचारी को समझता हूँ|
अनर्की (अन-आर-ची)
January 23, 2014 at 3:19am
अनर्की स्वराज का ही दूसरा नाम है। जिस व्यवस्था में शासक की कोई आवश्यकता न हो और यह अनुभवजन्य मान्यता हो की किसी व्यक्ति का किसी दूसरे पर नियंत्रण करने का मौलिक अधिकार कैसे संभव कैसे है यह मानसिकता ही अनर्किस्म या स्वाधीनता है। संस्कृत की तरह ही लैटिन में जब किसी शब्द के आगे अन लग जाय जैसे अनाश्रित: अर्थात बिना आश्रय, उसी तरह अन-अरचि या अनर्की का अर्थ है बिना शासक या नियंत्रण। अनर्की को अराजकता कहना कुछ वैसे ही है जैसे सर्वधर्मसमभाव को धर्म निरपेक्ष, धर्म का अभाव या अधर्म कहना।
प्लेटो के विचार रिपब्लिक नाम के पुस्तक में पढ़े जा सकते हैं। पालिटिक्स, असभ्य समाज के शासन-विधि की रचना है। भारतीय जिसे म्लेक्ष या अविकसित सभ्यता कहते थे प्लेटो ने उसे इम्परफ़ेक्ट सोसाइटी कहा। इम्परफ़ेक्ट सोसाइटी में पालिटिक्स का लक्ष्य जानवरों (असुरक्षित किन्तु स्वतंत्र) या अनियंत्रित व्यक्तियों को … पशु (पाश में बंधे किन्तु सुरक्षित) या नियंत्रित व्यक्तियों में बदला जाना था। नियम और कानून से बंधे इन पशुओं को अँग्रेजी में पब्लिक कहते हैं और जिनके लड़ने वाले गुण के कारण ही शासन की आवश्यकता पड़ती है। पशु-व्यवस्था या पब्लिक-सिस्टेम को आज भी रिपब्लिक कहते आ रहे हैं, और पॉलिटिक्स उसके ही शासन विधि का नाम है।
राष्ट्र संगठन का ही पर्याय है। याद रहे कि संगठन दुष्टों या सक्रिय तत्वों का ही बनता है क्योंकि किसी भी संगठन की शक्ति उसकी असुरक्षा या भय (रिस्क) है। इस अस्थिर संगठन को संभाले रखने वाली नियंत्रण व्यवस्था (या व्यय के लिए ही स्थित) को ही शासन कहते हैं। बिना शासन (रिस्क या असुरक्षा->संगठन->व्यवस्था->शासन या नियंत्रण) किसी भी संगठन का स्थिर बनाये रखना संभव ही नहीं। कौन नहीं जानता कि केमिस्ट्री में सोडियम और क्लोरीन जो तत्व हानिकारक हैं और जो कभी स्वतंत्र नहीं रह सकते उनका संगठन ही सोडियम क्लोराइड या नमक कहलाता है। सोना जो प्रतिक्रिया नहीं करता वह कभी संगठन नहीं बनाता और स्वतंत्र रह नोबल धातु कहलाती है। जिससे किसी को हानि न हो उसको संगठन की क्या आवश्यकता?
महाभारत का ज्ञान हमारी बुद्धि की जड़ता को सरलता से नष्ट करने में समर्थ है। राष्ट्र या संगठन को धारण करने वाले को धृत राष्ट्र (राष्ट्र को धारण करने वाला) कहते हैं जो असंवेदनशील या अंधा होता है। वह उस व्यवस्था से बंधा है जिसमें दुर्धर शत्रु अपने अपने स्वार्थ, अहंकार या मजबूरी के कारण ही उसमें शामिल हुये हैं। बाज़ार, राजनीति, शासन आदि रण-क्षेत्र या व्यवस्था के ही उदाहरण हैं जो उन लड़ने वालों जो अपने अपने कानून और लक्ष्यों से बंधे पशु या पब्लिक हैं का कार्य या कुरु-क्षेत्र है। उनका कार्य ही युद्ध है। धृत-राष्ट्र, युद्ध प्रिय होते हैं क्योंकि रण-नीति या प्रतिस्प्रधा ही केवल वह मार्ग है जिससे पशुता या पब्लिक की विकास के नये कीर्तिमान बनते हैं। ये प्राणी, मनुष्य नहीं होते क्योंकि मनुष्यों में अपनापन होता है और उन्हें इस आपसी तुलना, प्रतिस्प्रधा, या रणनीति की क्या आवश्यकता? नानक, कबीर , गांधी या टैगोर, या प्रकृति के नियम को खोजने वाला जो अपनी व्यक्तिगत ज्ञान से परे की स्थिति जिसे विज्ञान करते हैं में है क्या प्रतिस्प्रधा से विकसित होते हैं?
राष्ट्र को धारण करने वाला धृत-राष्ट्र अपनी स्थिरता के लिये दुशासन (भ्रष्ट शासन) और दुर्योधन (दूषित धन या बल) पर निर्भर है। संगठन को यही चलाते हैं और उन्हें भी योग्य और स्वामिभक्त कर्मचारी चाहिये जिस पर भरोसा किया जाय और कार्य का भार वे संभाल सकें। महाभारत का यही वह कर्ण है जो दुर्योधन और दुशासन के संगठन का कर्णधार है। न्याय व्यवस्था के पंडित जो राष्ट्र की रक्षा के व्रत से बंधे हैं वही राष्ट्र-व्रती भीष्म हैं जिससे धृत-राष्ट्र की रक्षा होती है। इस तरह, महाभारत में, राष्ट्र जो असुरक्षा और भय का प्रतीक है उसके धृत-राष्ट्र, संविधान की रक्षा के व्रत लेने के कारण विवश भीष्म, दुर्योधन जो धन के दुरुपयोग की शक्ति हैं, दुशासन या भ्रष्ट सरकार और कर्ण जो उस शासन की जटिलता को मजबूती देता है, आज भी उपस्थित हैं।
कौरव सेना के विपरीत स्वराज की ध्वजा लिये वे असंगठित योद्धा हैं जो पांडव के धर्म, प्रेम, अनुशासन, समानता, और सहनशीलता के प्रतीक हैं। स्वराज में न तो कोई संगठन है, न ही किसी का किसी पर नियंत्रण। यही अनर्की का अर्थ है। यहाँ न तो कोई शासक, और न ही व्यवस्था की जटिलता। उनका कौरवों या संगठित सत्ता से कोई विरोध नहीं है किन्तु पांडवों का जीवन दर्शन उनसे भिन्न है।
मैंने अपने लेख में जिन प्रश्नों को आम आदमी पार्टी की दिल्ली में कांग्रेस के समर्थन से चलाई गई ४९ दिनों की सरकार के भूतपूर्व मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल के सामने रखे थे…..गोपाल कृष्ण जी आपने उनमें से किसी एक का भी सीधे से उत्तर देने के बजाए….चर्चा की दिशा को ही मोड़ने का प्रयास किया है। आम आदमी पार्टी के अधिकतर नेता या समर्थक कुछ ऐसा ही आचरण करने में माहिर हैं।
कृपया उपरोक्त प्रश्नों को एक बार पुनः शान्ति से पढने की चेष्ठा करें और यदि जवाब हो तो देवे। कुछ इसी प्रकार का प्रयत्न कल दास कृष्ण जी ने फेसबुक पर अपनी वाल पर भी किया था। जिसके फलस्वरूप ही मैंने आपकी वाल पर लिखना बंद किया था.
मेरा ऐसा मानना है की आम आदमी पार्टी के समर्थक बहुत ही दिग्भ्रमित हैं। देश में शासन कर रही पार्टियों द्वारा जनापेक्षाओं और समस्यों की समयबद्ध योजना की निरंतर अनदेखी के फलस्वरूप जो जनआक्रोश देश में पैदा हुआ है उसका लाभ उठाते हुए चंद लोग आमजनता को दिग्भ्रमित करने का काम कर रहे हैं। इनका लक्ष्य समस्याओं को हल करना न होकर देश को एक ऐसे स्थिति में लाकर खड़ा करना है जहाँ सब कुछ अव्यवस्थित हो जाएगा। कुछ कर दिखाने या समस्याओं को हल करने का एक उदाहरण प्रस्तुत करने के लिए उनके पास दिल्ली जैसा महानगर था। परन्तु अपनी नाकामयाबी को छुपाने के लिए जिस प्रकार का आचरण उन्होंने सरकार में रह कर किया, उसका अंत समर्थन वापसी या त्यागपत्र के साथ ही होना निश्चित था।
दलों के समर्थकों की मनस्थिति किस प्रकार की होती है उसका वर्णन तो मैं अपने अनेक आलेखों में करता ही रहता हूँ।मैं तो इन्हें राजनीतिक दलों के खूंटे से बंधे लोगों की उपमा ही दिया करता हूँ।
इसी विषय पर अभी हाल ही में मैंने कहीं एक कहानी पढी थी जिसे आप मित्रों से साँझा कर रहा हूँ :
एक बार की बात है। एक चरवाहा अपने १०० ऊँटों के साथ रेगिस्तान से गुजर रहा था। अंधेरा होता देख मालिक ने एक सराय में रुकने का आदेश दे दिया।
निन्यानवे ऊंटों को जमीन में खूंटियां गाड़कर उन्हें रस्सियों से बांध दिया मगर एक ऊंट के लिए खूंटी और रस्सी कम पड़ गई। सराय में खोजबीन की, पर व्यवस्था हो नहीं पाई। तब सराय के मालिक ने सलाह दी कि तुम खूंटी गाड़ने जैसी चोट करो और ऊंट को रस्सी से बांधने का अहसास करवाओ।
यह बात सुनकर मालिक हैरानी में पड़ गया, पर दूसरा कोई रास्ता नहीं था, इसलिए उसने वैसा ही किया। झूठी खूंटी गाड़ी गई, चोटें की गईं। ऊंट ने चोटें सुनीं और समझ लिया कि बंध चुका है। वह बैठा और सो गया। सुबह निन्यानबे ऊंटों की खूटियां उखाड़ीं और रस्सियां खोलीं, सभी ऊंट उठकर चल पड़े, पर एक ऊंट बैठा रहा।
मालिक को आश्चर्य हुआ…- अरे , यह तो बंधा भी नहीं है , फिर भी उठ नहीं रहा है।
सराय के मालिक ने समझाया – तुम्हारे लिए वहां खूंटी का बंधन नहीं है मगर ऊंट के लिए है। जैसे रात में व्यवस्था की , वैसे ही अभी खूंटी उखाड़ने और बंधी रस्सी खोलने का अहसास करवाओ। मालिक ने खूंटी उखाड़ दी जो थी ही नहीं, अभिनय किया और रस्सी खोल दी जिसका कोई अस्तित्व नहीं था। इसके बाद ऊंट उठकर चल पड़ा।
न केवल ऊंट बल्कि मनुष्य भी ऐसी ही खूंटियों से और रस्सियों से बंधे होते हैं जिनका कोई अस्तित्व नहीं होता। मनुष्य बंधता है अपने ही गलत दृष्टिकोण से, मिथ्या सोच से, विपरीत मान्यताओं की पकड़ से। ऐसा व्यक्ति सच को झूठ और झूठ को सच मानता है। वह दुहरा जीवन जीता है। उसके आदर्श और आचरण में लंबी दूरी होती है। कुछ ऐसा ही आचरण अराजकता के पक्षधरों का भी है। व्यवस्था की खामियों को दूर करने की अपेक्षा वह व्यवस्था में ही आमूलचूल परिवर्तन की वकालत करने लगे हैं। अराजकता को स्वराज से जोड़ने की धींगा-मुश्ती करने में पिले पड़े हैं। जनआक्रोश के कारणों को समझ उनकी समस्याओं को दूर करने के उपाय तलाशने व व्यवस्था की खामियों को दूर करने की अपेक्षा जनआक्रोश को भुनाकर देश और समाज में जंगलराज फैलाना चाहते हैं। साथ ही वाम विचारधारा के अनुरूप वर्गसंघर्ष की स्थिति भी पैदा करने का प्रयास किया जा रहा है।
जहाँ तक अराजकता शब्द का प्रश्न है…..तो अराजकता शब्द को अंगरेजी भाषा में anarchy, outlawry या lawlessness बताया गया है। जिसका हिंदी भाषा में अर्थ होता है :
Anarchy :
anarchy-संज्ञा
अराजकता chaos, anarchy, lawlessness
अव्यवस्था clutter, chaos, disorder, breakup, disarray, anarchy
anarchy
कुप्रबंध anarchy, misgovernment, Inorganization
शासनहीनता anarchy
गड़बड़ी anarchy, confusion
Outlawry :
outlawry
अवैधीकरण outlawry, illegitimation
विधिबाह्यता outlawry
कानून भंग outlawry
डकैती outlawry, ravin, Dacoity
विधि-विद्रोह outlawry
outlawry-संज्ञा
ग़ैरक़ानूनी बनाना outlawry
नाजायज बनाना outlawry
समाज से बाहर जाना outlawry
नियम-विस्र्द्ध बनाना
Lawlessness :
lawlessness-संज्ञा
अराजकता chaos, anarchy, lawlessness
अवैधता illegality, illegitimacy, lawlessness, anomaly
न्यायविस्र्द्धी illegality, lawlessness
नियम-विस्र्द्धी lawlessness
lawlessness
अव्यवस्था Dislocation, maladjustment, disturbance, lawlessness, topsyturvy, shapelessness
अव्यवस्था अंधेर lawlessness
मुझे तो यह समझ में ही नहीं आता की उपरोक्त तमाम शब्दों और परिस्थियों का स्वराज्य से क्या लेना देना है ?
चूँकि मैंने जो प्रश्न उठाये हैं….चर्चा को केवल उन्हीँ तक सीमित रख उनका ही उत्तर चाहता हूँ। भारतीय लोकतान्त्रिक गणराज्य, भारतीय संस्कृति के परिवेश में रमे देश वासियों की विचारधारा में विदेशी सिद्धांतों का कोई स्थान नहीं है. वाम विचारधारा का हश्र देश और दुनिया देख ही चुकी है।
भारतीय जनमानस मंदिर या मस्जिद की व्यवस्था को सुधारने के लिए पुजारी या प्रबंध कमेटी को तो बदल सकता है….न कि मंदिर या उसमें स्थापित मूर्ती को। सत्ता प्राप्ति के लिए पनपने वाले नित नए दलों और उसके कार्यकर्ताओं को यह समझना होगा। अराजकता की अवधारणा के पक्षधरों को यह भी समझना होगा की उनकी आम आदमी पार्टी भी संगठन व नियम बना कर ही सत्ता प्राप्ति के लिए चुनावी मैदान में उतरे हैं। जबकि वह दूसरी और राज्य,संगठन और नियम विहीन समाज की परिकल्पना देश को समझाकर दिग्भ्रमित करने में लगे हुए हैं। भटकाव के स्थिति में अधिक समय तक रहना संभव नहीं है। मेरी तो यही मान्यता है की मनुष्य का मन जब भी जागे, लक्ष्य का निर्धारण सबसे पहले करे। उद्देश्य के बिना या गलत लक्ष्य की और मीलों तक चलना सिर्फ थकान, भटकाव और नैराश्य देगा, मंजिल नही। इसके साथ ही हमें भारतीय परिपेक्ष में स्वराज्य के अर्थ को भी समझना होगा। महात्मा गांधी द्वारा जिस स्वराज्य की कल्पना की गई है वही इसकी वास्तविक परिभाषा भी है।
मैंने अपने लेख में जिन प्रश्नों को आम आदमी पार्टी की दिल्ली में कांग्रेस के समर्थन से चलाई गई ४९ दिनों की सरकार के भूतपूर्व मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल के सामने रखे थे…..गोपाल कृष्ण जी आपने उनमें से किसी एक का भी सीधे से उत्तर देने के बजाए….चर्चा की दिशा को ही मोड़ने का प्रयास किया है. कृपया उपरोक्त प्रश्नों को एक बार पुनः शान्ति से पढने की चेष्ठा करें. कुछ इसी प्रकार का प्रयत्न दास कृष्ण जी ने कल फेसबुक पर भी किया था.
चर्चा के विषय को और न भटका कर केवल और केवल प्रश्नों के उत्तर ही देवें……
मैंने अपने लेख में जिन प्रश्नों को आम आदमी पार्टी की दिल्ली में कांग्रेस के समर्थन से चलाई गई ४९ दिनों की सरकार के भूतपूर्व मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल के सामने रखे थे…..गोपाल कृष्ण जी आपने उनमें से किसी एक का भी सीधे से उत्तर देने के बजाए….चर्चा की दिशा को ही मोड़ने का प्रयास किया है। आम आदमी पार्टी के अधिकतर नेता या समर्थक कुछ ऐसा ही आचरण करने में माहिर हैं।
कृपया उपरोक्त प्रश्नों को एक बार पुनः शान्ति से पढने की चेष्ठा करें और यदि जवाब हो तो देवे। कुछ इसी प्रकार का प्रयत्न कल दास कृष्ण जी ने फेसबुक पर अपनी वाल पर भी किया था। जिसके फलस्वरूप ही मैंने आपकी वाल पर लिखना बंद किया था.
मेरा ऐसा मानना है की आम आदमी पार्टी के समर्थक बहुत ही दिग्भ्रमित हैं। देश में शासन कर रही पार्टियों द्वारा जनापेक्षाओं और समस्यों की समयबद्ध योजना की निरंतर अनदेखी के फलस्वरूप जो जनआक्रोश देश में पैदा हुआ है उसका लाभ उठाते हुए चंद लोग आमजनता को दिग्भ्रमित करने का काम कर रहे हैं। इनका लक्ष्य समस्याओं को हल करना न होकर देश को एक ऐसे स्थिति में लाकर खड़ा करना है जहाँ सब कुछ अव्यवस्थित हो जाएगा। कुछ कर दिखाने या समस्याओं को हल करने का एक उदाहरण प्रस्तुत करने के लिए उनके पास दिल्ली जैसा महानगर था। परन्तु अपनी नाकामयाबी को छुपाने के लिए जिस प्रकार का आचरण उन्होंने सरकार में रह कर किया, उसका अंत समर्थन वापसी या त्यागपत्र के साथ ही होना निश्चित था।
दलों के समर्थकों की मनस्थिति किस प्रकार की होती है उसका वर्णन तो मैं अपने अनेक आलेखों में करता ही रहता हूँ।मैं तो इन्हें राजनीतिक दलों के खूंटे से बंधे लोगों की उपमा ही दिया करता हूँ।
इसी विषय पर अभी हाल ही में मैंने कहीं एक कहानी पढी थी जिसे आप मित्रों से साँझा कर रहा हूँ :
एक बार की बात है। एक चरवाहा अपने १०० ऊँटों के साथ रेगिस्तान से गुजर रहा था। अंधेरा होता देख मालिक ने एक सराय में रुकने का आदेश दे दिया।
निन्यानवे ऊंटों को जमीन में खूंटियां गाड़कर उन्हें रस्सियों से बांध दिया मगर एक ऊंट के लिए खूंटी और रस्सी कम पड़ गई। सराय में खोजबीन की, पर व्यवस्था हो नहीं पाई। तब सराय के मालिक ने सलाह दी कि तुम खूंटी गाड़ने जैसी चोट करो और ऊंट को रस्सी से बांधने का अहसास करवाओ।
यह बात सुनकर मालिक हैरानी में पड़ गया, पर दूसरा कोई रास्ता नहीं था, इसलिए उसने वैसा ही किया। झूठी खूंटी गाड़ी गई, चोटें की गईं। ऊंट ने चोटें सुनीं और समझ लिया कि बंध चुका है। वह बैठा और सो गया। सुबह निन्यानबे ऊंटों की खूटियां उखाड़ीं और रस्सियां खोलीं, सभी ऊंट उठकर चल पड़े, पर एक ऊंट बैठा रहा।
मालिक को आश्चर्य हुआ…- अरे , यह तो बंधा भी नहीं है , फिर भी उठ नहीं रहा है।
सराय के मालिक ने समझाया – तुम्हारे लिए वहां खूंटी का बंधन नहीं है मगर ऊंट के लिए है। जैसे रात में व्यवस्था की , वैसे ही अभी खूंटी उखाड़ने और बंधी रस्सी खोलने का अहसास करवाओ। मालिक ने खूंटी उखाड़ दी जो थी ही नहीं, अभिनय किया और रस्सी खोल दी जिसका कोई अस्तित्व नहीं था। इसके बाद ऊंट उठकर चल पड़ा।
न केवल ऊंट बल्कि मनुष्य भी ऐसी ही खूंटियों से और रस्सियों से बंधे होते हैं जिनका कोई अस्तित्व नहीं होता। मनुष्य बंधता है अपने ही गलत दृष्टिकोण से, मिथ्या सोच से, विपरीत मान्यताओं की पकड़ से। ऐसा व्यक्ति सच को झूठ और झूठ को सच मानता है। वह दुहरा जीवन जीता है। उसके आदर्श और आचरण में लंबी दूरी होती है। कुछ ऐसा ही आचरण अराजकता के पक्षधरों का भी है। व्यवस्था की खामियों को दूर करने की अपेक्षा वह व्यवस्था में ही आमूलचूल परिवर्तन की वकालत करने लगे हैं। अराजकता को स्वराज से जोड़ने की धींगा-मुश्ती करने में पिले पड़े हैं। जनआक्रोश के कारणों को समझ उनकी समस्याओं को दूर करने के उपाय तलाशने व व्यवस्था की खामियों को दूर करने की अपेक्षा जनआक्रोश को भुनाकर देश और समाज में जंगलराज फैलाना चाहते हैं। साथ ही वाम विचारधारा के अनुरूप वर्गसंघर्ष की स्थिति भी पैदा करने का प्रयास किया जा रहा है।
जहाँ तक अराजकता शब्द का प्रश्न है…..तो अराजकता शब्द को अंगरेजी भाषा में anarchy, outlawry या lawlessness बताया गया है। जिसका हिंदी भाषा में अर्थ होता है :
Anarchy :
anarchy-संज्ञा
अराजकता chaos, anarchy, lawlessness
अव्यवस्था clutter, chaos, disorder, breakup, disarray, anarchy
anarchy
कुप्रबंध anarchy, misgovernment, Inorganization
शासनहीनता anarchy
गड़बड़ी anarchy, confusion
Outlawry :
outlawry
अवैधीकरण outlawry, illegitimation
विधिबाह्यता outlawry
कानून भंग outlawry
डकैती outlawry, ravin, Dacoity
विधि-विद्रोह outlawry
outlawry-संज्ञा
ग़ैरक़ानूनी बनाना outlawry
नाजायज बनाना outlawry
समाज से बाहर जाना outlawry
नियम-विस्र्द्ध बनाना
Lawlessness :
lawlessness-संज्ञा
अराजकता chaos, anarchy, lawlessness
अवैधता illegality, illegitimacy, lawlessness, anomaly
न्यायविस्र्द्धी illegality, lawlessness
नियम-विस्र्द्धी lawlessness
lawlessness
अव्यवस्था Dislocation, maladjustment, disturbance, lawlessness, topsyturvy, shapelessness
अव्यवस्था अंधेर lawlessness
मुझे तो यह समझ में ही नहीं आता की उपरोक्त तमाम शब्दों और परिस्थियों का स्वराज्य से क्या लेना देना है ? स्वतंत्रता संग्राम के दौरान विदेशी शासकों से देश को आजाद करवाने और अपना यानि भारतीयों का शासन हो…इसी मंशा के साथ स्वराज्य की मांग की गई थी. स्वराज्य मेरा जन्म सिद्ध अधिकार है……इन मांग को सबसे पहले उठाने वाले लोकमान्य तिलक ने अराजकता की परिकल्पना के साथ यह मांग नहीं उठाई थी….
चूँकि मैंने जो प्रश्न उठाये हैं….चर्चा को केवल उन्हीँ तक सीमित रख उनका ही उत्तर चाहता हूँ। भारतीय लोकतान्त्रिक गणराज्य, भारतीय संस्कृति के परिवेश में रमे देश वासियों की विचारधारा में विदेशी सिद्धांतों का कोई स्थान नहीं है. वाम विचारधारा का हश्र देश और दुनिया देख ही चुकी है।
भारतीय जनमानस मंदिर या मस्जिद की व्यवस्था को सुधारने के लिए पुजारी या प्रबंध कमेटी को तो बदल सकता है….न कि मंदिर या उसमें स्थापित मूर्ती को। सत्ता प्राप्ति के लिए पनपने वाले नित नए दलों और उसके कार्यकर्ताओं को यह समझना होगा। अराजकता की अवधारणा के पक्षधरों को यह भी समझना होगा की उनकी आम आदमी पार्टी भी संगठन व नियम बना कर ही सत्ता प्राप्ति के लिए चुनावी मैदान में उतरे हैं। जबकि वह दूसरी और राज्य,संगठन और नियम विहीन समाज की परिकल्पना देश को समझाकर दिग्भ्रमित करने में लगे हुए हैं। भटकाव के स्थिति में अधिक समय तक रहना संभव नहीं है। मेरी तो यही मान्यता है की मनुष्य का मन जब भी जागे, लक्ष्य का निर्धारण सबसे पहले करे। उद्देश्य के बिना या गलत लक्ष्य की और मीलों तक चलना सिर्फ थकान, भटकाव और नैराश्य देगा, मंजिल नही। इसके साथ ही हमें भारतीय परिपेक्ष में स्वराज्य के अर्थ को भी समझना होगा। महात्मा गांधी द्वारा जिस स्वराज्य की कल्पना की गई है वही इसकी वास्तविक परिभाषा भी है।
मैंने अपने लेख में जिन प्रश्नों को आम आदमी पार्टी की दिल्ली में कांग्रेस के समर्थन से चलाई गई ४९ दिनों की सरकार के भूतपूर्व मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल के सामने रखे थे…..गोपाल कृष्ण जी आपने उनमें से किसी एक का भी सीधे से उत्तर देने के बजाए….चर्चा की दिशा को ही मोड़ने का प्रयास किया है. कृपया उपरोक्त प्रश्नों को एक बार पुनः शान्ति से पढने की चेष्ठा करें. कुछ इसी प्रकार का प्रयत्न दास कृष्ण जी ने कल फेसबुक पर भी किया था.
चर्चा के विषय को और न भटका कर केवल और केवल प्रश्नों के उत्तर ही देवें……
उनके त्यागपत्र का कारण (मराठी) “महाराष्ट्र टाइम्स में” जिस प्रकार से लिखा गया है;
उसका अर्थ स्पष्ट है।
कहा है==> (१) केजरीवाल “सरकारावास” (अर्थात सरकारी कारावास) से छूटने के लिए उत्सुक थे।
और केजरीवाल का (सर) कारावास समाप्त हुआ।
(२) कहने के लिए बहाना था==> ‘अभी तो शीला हारी है, अब मोदी की बारी है।’
(३) अब कुटिल अमरिका धीरे धीरे अपना पैंतरा बदलेगी। “निकम्मी मख्खी” को कप के बाहर फेंकेगी।
मुंगेरीलाल का सपना समाप्त ही हो गया। (मेरा अनुमान है।)
जी हाँ, सही कहा आपने कि केजरीवाल सरकारावास से मुक्ति चाहते थे…..क्यूंकि जन अपेक्षाओं व आकाँक्षाओं पर खरा न उतरने के कारण आम आदमी पार्टी का ग्राफ निरंतर नीचे गिर रहा था…..और संवैधानिक व प्रशासनिक प्रतिबधताओं के चलते उनके तथाकथित जन लोकपाल बिल का सदन में पारित होना और बाद में राष्ट्रपति द्वारा सहमति मिलना …..लगभग असम्भव ही था. और फिर लोकसभा के चुनाव की भी तैयारियां करनी थीं. कांग्रेस समर्थन जारी रख कर उन्हें उन्हीं के जाल में फंसाये रखना चाहती थी ताकि वह कहीं शहीद होने का लाभ न ले ले. इन्हें सब कारणों से जब उसने देखा कि अम्बानी के साथ नाम उछालने व मुकदमे दायर करने पर भी कांग्रेस समर्थन वापिस नहीं ले रही है…..अंततः……भगोड़ा कहलाना ही पसंद किया और इस्तीफ दे दिया.
आप की टिप्प्णी के लिए धन्यवाद……
ये आपके विचार नही भाजपा के विचार हैं इनका जवाब संक्षेप मे नहीं दिया जा सकता पूरा लेख कर दूंगी।
बिनु भटनागर जी….आपके विचार जानने को उत्सुक हूँ…..