त्यौहार-संस्कृति एवं जीवन-संस्कारों को धुंधलाने का दौर

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-ः ललित गर्ग:-
पाश्चात्य अंधानुकरण के कारण हमने न केवल भारतीय त्यौहारों के रंगों को धुंधला दिया है, बल्कि वैलेनटाइन डे जैसे पर्वों को महिमामंडित कर दिया है। भारत के प्रत्येक भू-भाग के अपने त्यौहार हैं, कुछ समान हैं तो कुछ उस भू-भाग की विशिष्टता लिए। परंतु इन्हें भी विकृत करने का व्यापक प्रयास हो रहा है। हमने अपने त्यौहारों को विकृत करने में कोई कमी नहीं रखी है, यही कारण है कि कुछ त्यौहार मद्यपान से जुड़ गए हैं, तो कुछ जुए से, कुछ कीचड़ से सन जाते हैं, तो कुछ लेन-देन के अवसर बन गए हैं। कुछ के साथ अश्लीलता एवं फुहड़ता जुड़ गयी है। इतना ही नहीं हमारी त्यौहारों की समृद्ध परंपरा को धुंधलाने के भी सुनियोजित प्रयास हो रहे हैं। बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ और बड़े व्यावसायिक संस्थान अपने लाभ के लिए देश में ऐसे उत्सवों/पर्वों को स्थापित कर रहे हैं, जिनका हमारी संस्कृति से मेल नहीं है। फेमिली डे, मदर डे, फादर डे, वैलेनटाइन डे-ऐसे आधुनिक पर्व हैं, जिन्हें बड़ी कंपनियाँ एवं इलेक्ट्रोनिक मीडिया महिमामंडित कर रहे हैं। अपने आपको आधुनिक कहने वाले परिवारों एवं लोगों के लिए दीपावली, होली, रक्षाबंधन जैसे पारंपरिक पर्वों की तुलना में ये आधुनिक पर्व ज्यादा महत्त्वपूर्ण एवं प्रासंगिक हैं। आखिर क्यों? हम अपने ही देश एवं अपनी संस्कृति के बीच बेगाने क्यों बने हुए हैं? अपने त्यौहारों की समृद्ध परम्परा को क्यों कमजोर कर रहे हैं?
भारतीय संस्कृति इसलिये अनूठी एवं विलक्षण है क्योंकि यह मर्यादा पुरुषोत्तम प्रभु श्रीराम की अनुकरणीय और लीलाधर श्रीकृष्ण की अनुसरणीय शिक्षाओं की साक्षी है। हमारी संस्कृति ने न केवल भारत को, बल्कि सभी को अपना परिवार माना है। तभी यहां आज भी ‘वसुधैव कुटुंबकम’ का मूल मंत्र दोहराया जाता है। पाश्चात्य देशों की बात करें, तो उसने दुनिया को केवल बाजार माना है। हमारी सनातन संस्कृति में रचे-बसे लोग इतने उदार हैं कि हमने सदैव अन्य देशों की संस्कृतियों का दोनों बाहें फैलाकर स्वागत किया है। पर्व, व्रत, त्योहार एवं उत्सव सामाजिक सरोकार के अद्भुत संगम एवं समन्वय के मूर्त रूप हैं। यदि हम असामाजिक, संवेदनशून्य, उपभेक्तावादी एवं पाश्चात्य संस्कृति के अंधानुकरण करने की दिशा में अग्रसर रहेंगे तो हमारी यह मूल्यवान् संस्कृति जड़ बनकर पतनोन्मुख हो सकती है। हजारों-हजारों साल से जिस प्रकृति ने भारतीय मन को आकार दिया था, उसे रचा था, भारतीयता की एक अलग छवि का निर्माण हुआ, यहां के इंसानों की इंसानियत ने दुनिया को आकर्षित किया, संस्कृति एवं संस्कारों, जीवन-मूल्यों की एक नई पहचान बनी। ऐसा क्या हुआ कि आजादी के बाद उसके साथ कुछ गलत हुआ है, और वह गलत दिनोंदिन गहराता गया है जिससे सारा माहौल ही प्रदूषित हो गया है, जीवन के सारे रंग ही फिके पड़ गये हैं, हम अपने ही भीतर की हरियाली से वंचित हो गए लोग हैं। न कहीं आपसी विश्वास रहा, न किसी का परस्पर प्यार। न सहयोग की उदात्त भावना रही, न संघर्ष में सामूहिकता का स्वर, बिखराव की भीड़ में न किसी ने हाथ थामा, न किसी ने आग्रह की पकड़ छोड़ी। यूं लगता है सब कुछ खोकर विभक्त मन अकेला खड़ा है फिर से सब कुछ पाने की आशा में। क्या यह प्रतीक्षा झूठी है? क्या यह अगवानी अर्थशून्य है?  
विदेशों की उपभोक्ता संस्कृति की अंधी नकल ने हमारी जीवनशैली, परिवार परम्परा, त्यौहार, खानपान, विचार आदि को दूषित किया है। बच्चे अच्छे से अच्छे शरबत की अपेक्षा कोल्ड डिंªक्स में अधिक रुचि रखते हैं। वाह! क्या आकर्षण है इन पेयों का और इन अंग्रेजी नामों का। मेकडोनाल्ड बच्चों के सिर चढ़कर बोल रहा है, पिज्जा, नूडल्स, चाउमीन ये सब आधुनिक खान-पान है। यह सब हमारी बदली मानसिकता का द्योतक है। दावतों एवं ‘प्रीतिभोज’ में ‘बुफे’ संस्कृति भी खूब चल पड़ी है। भारतीय परिस्थितियों में यह पूर्णतः ‘गिद्ध भोज’ दिखाई देता है। पहनावे की तो बात ही न पूछो। क्या सोशल मीडिया शरीर पर न्यूनतम कपड़ों को दिखाने की होड़ में नहीं लगा हैं? हमने क्यों अपनाया ‘टाइट जीन्स’, ‘मिनी स्कर्ट’ तथा ‘हॉट पेंट्स’ को। क्या साड़ी-ब्लाउज, सलवार कुर्ता, काँचली-कुर्ती, ओढ़नी-घाघरा कम आकर्षक हैं? हम क्यों माता-पिता की छवि को आहत करते हुए उन पर अश्लील टिप्पणियां करते हुए स्वयं को आधुनिक मानते हैं? यह संस्कृति एवं संस्कारों को धुंधलाना नहीं है तो क्या है?
परिवार वह इकाई है, जहाँ एक ही छत के नीचे, एक ही दीवार के सहारे, अनेक व्यक्ति आपसी विश्वास के बरगद की छाँव और सेवा, सहकार और सहानुभूति के घेरे में निश्चित रहते हैं। परिवार वह नीड़ है, जो दिन-भर से थके-हारे पंछी को विश्राम देता है। लेकिन मियाँ, बीवी व बच्चों की इकाई ही आज परिवार है, इस एकल परिवार संस्कृति वाले दौर में माँ-बाप, भाई-बहन की बात करना बेमानी लगता है। परंतु लगता है जहाँ पति-पत्नी दोनों ही अर्थोपार्जन के लिए नौकरी या व्यवसाय करते हैं, उन्हें संयुक्त परिवार और कम से कम माता-पिता या किसी बुजुर्ग की याद आने लगती है। हाँ ‘बेबी सिटर’, ‘आया’ या ‘क्रेच’ भी यह काम कर लेगा, परंतु परिवार की गरमाहट तो वह दे नहीं सकता। स्वस्थ परिवारों एवं भारतीय संस्कृति की संस्कार-सुरभि ही समाज और राष्ट्र की काया को स्वस्थ/प्रफुल्ल रख सकती है। और इसी से बिखरते संयुक्त परिवार एवं जीवन मूल्यों को बचाया जा सकता है।
देश को अपनी खोयी प्रतिष्ठा पानी है, उन्नत चरित्र बनाना है, स्वस्थ समाज की रचना करनी है और समृद्ध संस्कृति को ऊच्च शिखर देने हैं तो हमें एक ऐसी जीवनशैली को स्वीकार करना होगा जो जीवन में पवित्रता दे। राष्ट्रीय प्रेम व स्वस्थ समाज की रचना की दृष्टि दे। कदाचार के इस अंधेरे कुएँ से निकले। बिना इसके देश का विकास और भौतिक उपलब्धियां बेमानी हैं। व्यक्ति, परिवार और राष्ट्रीय स्तर पर हमारे इरादों की शुद्धता महत्व रखती है, हमें खोज सुख की नहीं सत्व की करनी है क्योंकि सुख ने सुविधा दी और सुविधा से शोषण जनमा जबकि सत्व में शांति के लिये संघर्ष है और संघर्ष सचाई तक पहुंचने की तैयारी। हमें स्वयं की पहचान चाहिए और सारे विशेषणों से हटकर इंसान बने रहने का हक चाहिए। इस खोए अर्थ की तलाश करनी ही होगी। उपभोक्ता बनकर नहीं मनुष्य बनकर जीना नए सिरे से सीखना ही होगा।
संस्कृति और मूल्यों के नष्ट अध्यायों को न सिर्फ पढ़ना-गढ़ना होगा, बल्कि उन्हें नया रूप और नया अर्थ भी देना होगा। एक नई यात्रा शुरू करनी होगी। इसके लिये हमारे पर्वों एवं त्यौहारों की विशेष सार्थकता है। श्रीकृष्ण ने कहा है- जीवन एक उत्सव है। उनके इस कथन पर भारतीयों का पूर्ण विश्वास है। हम जीवन के हर दिन को उत्सव की तरह जीते हैं, ढेरों विसंगतियों और विदू्रपताओं से जूझते हुए। संकट में होशमंद रहने और हर मुसीबत के बाद उठ खड़े होने का जज्बा विशुद्ध भारतीय है और ऋतु-राग गुनगुनाते हुए अलग-अलग मौसम में उत्सव मनाने का भी। यही वजह है कि हम गर्व से कहते हैं- फिर भी दिल है हिन्दुस्तानी… पर इस सच से इनकार नहीं किया जा सकता कि बदलती दुनिया के असर से उत्सवधर्मिता का जज्बा काफी प्रभावित हो रहा है। सबसे ज्यादा हमारे पर्व और त्यौहार की संस्कृति ही धुंधली हुई है। खेद की बात है कि हमने पश्चिम की श्रेष्ठ परम्पराओं को आत्मसात नहीं किया, बल्कि उसके उपभोक्तावाद एवं अपसंस्कृति के शिकार बने।
हमें भारतीय पर्व और त्यौहार की संस्कृति को समृृद्ध बनाना होगा। प्रयागराज का महाकुंभ ऐसी ही समृद्धि ला रहा है। वहां भोर का उगता सूरज, बल खाती नदी, दूर तक फैला मैदान, सिंदूरी शाम, दूर से आती ढोलक की थाप, पीछे छूटती दृश्यावलियंा… हमारे भीतर रच-बस जाती हैं। यही सब जीवन की संपदाएं हैं, हमारे अंतर में जगमगाती-कौंधती रोशनियां हैं, जिनकी आभा में हम उस सब को पहचान पाते हैं जो जीवन है, जो हमारी पहचान के मानक हैं, जो हमारी संस्कृति है। हम भारत के लोग इसलिए विशिष्ट नहीं हैं कि हम ‘जगतगुरु’ रहे हैं, या हम महान आध्यात्मिक अतीत रखते हैं। हम विशिष्ट इसलिए हैं कि हमारे पास मानवता के सबसे प्राचीन और गहरे अनुभव हैं। ये अनुभव सिर्फ इतिहास और संस्कृति के अनुभव नहीं हैं, इसमें नदियों का प्रवाह, बदलते मौसमों की खुशबू, विविध त्यौहारों की सांस्कृतिक आभा और प्रकृति का विराट लीला-संसार समाया हुआ है।

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