एक धर्म निरपेक्ष कविता

—–विनय कुमार विनायक
मैं चाहता हूं
एक ऐसी कविता लिखना
जिसमें परम्परा गान न हो
किसी संस्कृति पुरुष का नाम न हो
जो पूरी तरह से हो सेकुलर
और समकालीन भी!

मैं चाहता हूं
एक वैसी कविता लिखना
जिसमें चिंता हो आज के
वृद्ध-उपेक्षित-सेवानिवृत्त माता-पिता की
जिसे पढ़ूंगा उस सेमिनार में
कि कितना जरूरी/कितना त्याज्य है
आज के वरिष्ठ नागरिक!

मैं लिखूंगा नहीं
मातृ देवो भव:/पितृ देवो भव: जैसे
आउट डेटेड स्लोगन
बल्कि लिखूंगा मां ममी/पिता डैड हो गए!

मैं हरगिज नहीं लिखूंगा
कि मातृ इच्छा/पितृ आदेश से
किसी पुत्र ने त्याग दिया था घर-द्वार-राजपाट
कि अंधे मां-पिता को कंधे पर लेकर
तीर्थ कराता था बेटा!

कि किसी पुत्र ने पिता का वार्धक्य लेकर
असमय वृद्ध हो जाना स्वीकार किया था!

कि कोई बेटा पितृ सुख-भोग के खातिर
शपथ लेकर आजीवन कुंवारा रह गया था!

मैं लिखूंगा कि कैसे आज के बेटे
नौकरी की चाह में नौकरीशुदा बाप को
गला घोंटकर मार देते या बाध्य कर देते मरने को!

कि बीबी के कहने पर बूढ़ी मां को कैसे दुत्कारते
मुझे मालूम नहीं अनुकंपा बहाली के लिए
पिता की हत्या और पत्नी की खुशी के लिए
मां को थप्पड़ मारना कहां की परम्परा है!

या वृद्ध लाचार मां-बाप को
वृद्धाश्रम में डाल देना कहां का धर्म है!

कि वर्जित है वह ज्ञान-
‘गुरु ईश्वर की मूर्ति!
पिता ब्रह्मा का रुप/माता धरती स्वरुपा!
और भाई-बहन अपनी ही मूर्ति है—!’
ये पढ़ा नहीं मैंने मनुस्मृति में!

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