समाज

सर्वनाश की ओर ले जाता तूफान

डा. विनोद बब्बर 

वर्तमान समय युवा युग  कहलाता है। भारत को विशेष रुप से युवा भारत के नाम से संबोधित किया जा रहा है क्योंकि हमारी जनसंख्या का सबसे बड़ा भाग युवा है और तेजी से बदलती तस्वीर में युवा शिक्षा के क्षेत्र में अनेंक कीर्तिमान स्थापित कर रहे हैं। उच्च शिक्षा, व्यवसाय से राजनीति तक, देश से विदेश तक हमारे युवाओं की धूम है तो ऐसे में हमारे मन का प्रफुल्लित होना स्वाभाविक है लेकिन इस सुखद परिवर्तन के साथ हो रहे अन्य परिवर्तनों की भी हम अनदेखी नहीं कर सकते। साथ-ही-साथ हमें यह भी स्वीकार करना होगा कि इस स्थिति के लिए कहीं-न-कहीं अपने बच्चों को अच्छे संस्कार न दे पाने के हम स्वयं भी दोषी हैं।

यह सर्वविदित ही है कि युवाओं का एक बड़ा वर्ग ऐसा है जिनकी सोच, संस्कृति, जीवनशैली एवं मनोरंजन के सारे साधन बदल गए हैं। बेशक अत्याधुनिक कहे जाने वाले सभी युवाओं के जीवन में ऐसा नकारात्मक परिवर्तन न आया हो लेकिन इस तथ्य को नकारा नहीं जा सकता कि भटकाव के कई नये द्वार खुल गए हैं। फैशनपरस्ती और ड्रग्स उनके जीवन का आधार बन गए हैं। इन्हें किसी से कोई मतलब नहीं है, केवल अपना मनोरंजन करना था मनमानी करना, इनकी नियति बन गई है। माता-पिता से इनका नाता सिर्फ लेने तक ही सीमित हो रहा है, उनके प्रति कोई दायित्व बोध नहीं । परिवार से ही नही, समाज और राष्ट्र के बारे में जानने की इच्छा भी औपचारिकता भर है । इनकी दिलचस्पी किसी न जाने किस दूसरे लोक में है। सकारात्मक सोच से बहुत दूर ये युवा वर्तमान युग की कई खोखली चीजों से प्रभावित हैं। अपने कर्तव्यों और कार्यक्षेत्रों से विमुख ये युवा पता नहीं कौन-सी नई राह बनाने में लगे हैं।

आज के युवाओं को प्रभावित करने वाली चीजों में से मुख्य हैं- इंटरनेट, अश्लील एवं फूहड़ फिल्में, पब संस्कृति, ड्रग्स, फैशन, महंगे मोबाइल, जिनमें एसएमएस एवं एमएमएस करना, महंगी गाड़ियां एवं न सबके लिए मोटी रकम। ये चीजें ऐसी हैं, जो युवाओं में रचनात्मक एवं सृजनात्मक सोच के बजाय, घातक सोच को अंजाम दे रही हैं, परंतु हमारे युवा इस घातक सोच को ही आधुनिक युग की प्रतिष्ठा एवं सम्मान का स्वरूप देने में जुट गए हैं। इस सर्वेक्षण में जो तथ्य सामने आये हैं, उससे कष्ट तो होना स्वाभाविक है परंतु सच्चाई चाहे कितनी भी अप्रिय क्यों न हो उसेे नजरअंदाज भी नहीं किया जा सकता है। यदि हम इस ओर से आँखें मूंदते हैं तो इसका अर्थ होगा कि हम भी इस संकट को हल्के से ले रहे हैं।

इस तथ्य से कौन इंकार करेगा कि इंटरनेट का मायाजाल आज का सर्वाधिक आकर्षित करने वाला एक सशक्त माध्यम है। सर्वेक्षण से पता चलता है कि युवा इंटरनेट से सूचना एवं ज्ञानवर्द्धक सामग्री से अधिक कुछ ऐसी बातें खोजते हैं जो उनके नैतिक पतन का रास्ता तैयार करती हैं। जैसे वेब पोर्टलों पर सेक्स से जुड़ी कई साइट्स हैं, जो सहज ही आकर्षित कर लेती हैं। भारत के उच्च शिक्षण संस्थान जैसे दिल्ली, मुंबई, हैदराबाद, बंगलौर, खड़गपुर, अहमदाबाद आदि बड़े महानगरों में स्थित आई.आई.टी., मेडिकल एवं आई.आई.एम. के युवाओं से पूछे जाने पर यह बात सामने आई कि इन संस्थानों में अधिकतर युवाओं एवं युवतियों के लिए सेक्स एक सामान्य बात है। विवाह से पूर्व ही इन्हें वैवाहिक जीवन की सामान्य गतिविधियों की अच्छी-भली जानकारी एवं अनुभव प्राप्त है। पाँच से सात प्रतिशत युवा, जो इस राह को नापसंद करते हैं, उन्हें विशिष्ट विशेषणों से नवाजा जाता है।

मंहगे उच्च शिक्षण संस्थानों में शिक्षा प्राप्त करने का तात्पर्य है चरित्र, शील एवं सभी मर्यादाओं को ताक पर रख देना। किसी भी देश की धड़कन कहे जाने वाले तथा राष्ट्र को अपने मजबूत कंधों पर ढोकर ले जाने वाले युवाओं के एक वर्ग ने अश्लीलता की इतनी हदें पार कर ली हैं कि न तो उनके जीवन की धड़कन ही सही ढंग से धड़क पा रही है और न वे स्वयं अपने जर्जर शरीर को लड़खड़ाते कदमों से झेल पा रहे हैं। जब ये स्वयं को नहीं संभाल पा रहे हैं तो समाज एवं राष्ट्र के भार को क्या वहन कर पाएंगे। अश्लीलता की आग में झुलस रहे युवाओं को ड्रग्स एवं नशा खूब जला रहे हैं।  छोटी उम्र में ही नशे और कामुकता के प्रति बढ़ता आकर्षण शहर से गांव तक, विश्वविद्यालय से स्कूल स्तर तक, कुछ भी न करने वाले आवारा बच्चों में विशेष रूप से बढ़ रहा है। दुर्भाग्य की बात है कि इस आत्मघाती प्रवृत्ति को क्षमता बढ़ाने का नाम दिया जा रहा है। इनके लिए क्षमता का अर्थ नए ड्रग्स का अधिकतम उपभोग है। दुर्भाग्य से युवाओं में ही नहींहमारे पूरे समाज मेंहोने वाली पार्टियों में शराब सहित अनेक प्रकार के ड्रग्स का प्रचलन बढ़ा है। इधर हुक्का पब के नाम पर भी बहुत कुछ चल रहा है।

नव वर्ष की पूर्व संध्या पर देश के विभिन्न भागों में हुड़दंग देखने सुनने को मिलते हैं जहाँ बहुत बड़ी मात्रा में नशीले पदार्थों का उपयोग किया जाता है। एक ओर समाज कानून व्यवस्था की बिगड़ती स्थिति से परेशान है तो दूसरी ओर राजधानी सहित देश के विभिन्न भागों में शराब की दुकानों की संख्या बड़ी है। दूध और घी की दुकान पर बेशक एक भी व्यक्ति न हो लेकिन शराब की हर दुकान के बाहर लंबी-लंबी लाइन देखने को मिलती हैं। आखिर इसका क्या अर्थ हो सकता है?  आखिर किस ओर जा रहे हैं? क्या नशे की यह सूनामी हमें सर्वनाश की ओर ले जा रही है ?

पिछले दिनों संसद के केंद्रीय कक्षा में एक सांसद का ई सिगरेट का उपयोग करते हुए वीडियो वायरल हुआ जबकि भारत में ई सिगरेटके व्यापार बिक्री पर प्रतिबंध है। इस गंभीर मामले की शिकायत लोकसभा को अध्यक्ष को की गई परंतु अब तक कोई कार्रवाई न होने से देश में  गलत संकेत जाता है। दुर्भाग्य की बात यह है कि उस दल के नेतृत्व में भी अब तक उसे संसद के विरुद्ध कोई कार्रवाई नहीं की। क्या यह मान लिया जाए कि कानून और लोक लाज की दृष्टि में प्रतिबंध नशे के उपयोग को गलत मानना छोड़ दिया जाए।

एशिया में आज सिंथेटिक रसायन और मस्तिष्क को प्रभावित करने वाले एंफेटामाइन्स की खूब मांग है। अनेक प्रकार के मादक पदार्थों की सूची में लिकर चॉकलेट भी शामिल हो गई है जो युवाओं के हारमोंस को बदल उनके भविष्य को नष्ट करने का एक बड़ा कारण बन रही है। सीमा पार से आने वाले नशे का सामान पंजाब सहित अनेक राज्यों को बर्बाद कर रहा है ।

ओआरजी नेट पर ड्रग डाटाबेस को खंगालते एक 15 वर्षीय लड़के मंगेश से पूछने पर पता चलता है कि मादक पदार्थों का नुस्खा तैयार करने में महारत हासिल करना चाहता है और देसी एलएसडी का जादुई काढ़ा तैयार करके अपना चमकीला कैरिअर बनाना चाहता है। इस किशोर को पता नहीं कि वह मादक पदार्थों के तस्करों के लिए आसान माध्यम बनने जा रहा है। एक सर्वेक्षण के अनुसार एम्स में नेशनल ड्रग डिपेन्डेन्स ट्रीटमेंट सेंटर में प्रतिवर्ष 50 हजार से अधिक नशेड़ी पहुँचते हैं।  इनमें से आधे से अधिक की सामुदायिक देख-भाल की जाती है। इससे पता चलता है कि अफीम के उत्पादों का प्रय सिंथेटिक मादक पदार्थों का इस्तेमाल करने वालों की संख्या इससे भी कम समय में तेजी से बढ़ी हुई पाई गई और उपचार कराने वालों में से इसके व्यसनियों की संख्या 15 फीसदी बढ़ी हुई मिली।

नेशनल सेंटर फॉर ड्रग यूज प्रिवेंशन के उपनिदेशक सुरेश कुमार का कहना है कि पेनकिलर, सिडेटिव, एंक्जियोलाइटिक्स, हिप्नॉटिक जैसी दवाओं के साथ ही अफीम से बनी सिंथेटिक दवाओं का दुरूपयोग तेजी से बढ़ रहा है। इस संदर्भ में 2008 में आर.एस.आर.ए. के तहत दक्षिण एशिया के देशों में 21 से 30 साल के 9465 लोगों को सर्वेक्षण किया गया थां. इससे पता चला कि भारत में 5800 उत्तरदाताओं में से 43 फीसदी से अधिक दर्दनिवारक दवा की सुई लगवाते हैं।

नशीली दवाएं लेना एक ऐसी आदत है जो बन जाने के बाद छोड़नी असंभव हो जाती है। हर व्यक्ति एक ही चीज पसंद नहीं करता है. कोई एक पसंद करता है तो कोई दूसरी। केटामाइन चेतना लुप्त करने वाला ड्रग है जिसे ‘डेट रेप’ ड्रग्स भी कहते हैं। यह नींद की दवा वेलियम से दस से बीस गुना प्रभावशाली है। कई बार इन औषधियों को कामुकता बढ़ाने के लिए लिया जाता हैं। इसका असर खत्म होते ही भारी झटका लग सकता है, अधिक सेवन से मौत भी हो सकती है। आइस, जिसे क्रैंक, गलास या क्रिस्टल मेथ के नाम से जाना जाता है, यह भारी नशा देता है तथा हिंसक बना देता है। आज के युवा गांजा, भांग, अफीम को छोड़कर इन सिंथेटिक नशाओं के दीवाने बनते जा रहे हैं। विशेषज्ञों के मतानुसार  नशे के इंजेक्शनों का प्रचलन बढ़ रहा है जो अपेक्षाकृत सस्ते लेकिन बहुत खतरनाक है ।

बंगलौर स्थित विमहान्स में डिएडिक्शन सेंटर की प्रमुख के मतानुसार शहरों में ड्रग्स के साथ खतरनाक प्रयोग आम बात हो गई है। अधिकतर युवा पेशवर साथियों के दबाव, उबाऊ जिंदगी, तनाव एवं आवश्यकता से अधिक आय की वजह से मादक पदार्थों का सेवन शुरू कर देते है। केवल व्यवसाय ही नहीं, छोटे-छोटे काम धंधे करने वाले मजदूरी करने वाले भी  नशे के आदी अधिकतर लोग 20 से 40 वर्ष की उम्र के हैं, जिनमें महिलाएं भी शामिल हैं। पिछले दशक में में मादक पदार्थ सेवन शुरू करने की उम्र 20 वर्ष थी, वहीं आज घटकर 15  हो गई है। 

इन ड्रग्स का चलन यहाँ तक है कि अब तो स्कूली बच्चे भी कई तरह के ड्रग्स का एक साथ प्रयोग कर रहे हैं। नशा विरोधी एक स्वयंसेवी संगठन द्वारा स्कूली बच्चों के सर्वेक्षण- अध्ययन के नतीजे संकेत करते हैं कि अब लड़के ही नहीं, लड़कियां भी नियमित रूप से मादक पदार्थों का इस्तेमाल करती हैं। उच्च शिक्षा संस्थानों में सिगरेट और शराब का प्रचलन बढ़ा है। देश की राजधानी दिल्ली के एक बहुचर्चित संस्थान में सिगरेट पीती हुई हमारे ही परिवारों की बेटियों को देखा जा सकता है। आज युवक की पार्टी का स्वरूप बदला है। मदमस्त करने वाली लाइट, धुआं, ड्राइ अइस फाग ओर कान फोड़ने वाले टेक्नो संगीत की धुन पर नाचते सैंकड़ों युवक किसी डान्स पार्टी में नहीं, बल्कि आधुनिक रेव पार्टी में होते हैं। इस पार्टी में शराब नहीं बंटती है, परंतु इससे स्थान पर ऐसी चीजें बंटती हैं, जिन्हें दूसरे नाम दिए गए हैं, पर ये सभी तरह-तरह के नशे हैं। इन सभी को आज कोकीन ओर अफीम के उत्पादों से भी अधिक इस्तेमाल किया जाता है। इन दिनों बरसों पुराना हुक्का आधुनिक रूप धरकर सामने आया है। बड़े-बड़े शॉपिंग माल्स के अलावा अलग से ऐसे रेस्टोरेंट खुल गए हैं, जो सरेआम धुएं में दहकने युवाओं को विशेष स्थान मुहैया करा रहे हैं। लड़कियां भी बड़ी संख्या में इसकी शिकार हो रही हैं।

जीवन में यौवन एक ऊर्जा का आगार है। इस ऊर्जा को नशा, वासना एवं आधुनिक खुली संस्कृति में गंवाना नहीं चाहिए। युवा ऊर्जा एवं शक्ति के प्रतीक हैं, उन्हें इनका उपयोग मनमाने ढंग से करने की छूट नहीं मिल सकती है। इसका नियोजन सदैव रचनात्मकता में, सृजनात्मकता में, पीड़ित मानवता की सेवा में, गरीबी, भ्रष्टाचार, आतंकवाद आदि के खिलाफ करना चाहिए। बहनों के साथ सरेआम छेड़छाड़ अथवा दुर्व्यवहार को कायर बने तमाशा देखने वाले युवाओं में लगता है साहस और संघर्ष करने का जज्बा लुप्त हो रहा है। आज भी युवा एकजुट होकर समाज के दुश्मन इन अपराधियों से मुक्ति का संकल्प ले ले तो ये अधिक समय तक टिक नहीं पाएंगे। कहीं ऐसा तो नहीं कि नशे के अधम व्यापारियों ने हमारे युवाओं के साथ-साथ पूरी व्यवस्था को को अपने हाथों के खिलौने बना लिया हैं। जिन्हें नशा -उन्मूलन में लगना चाहिए,  क्या वे स्वयं भी नशे में हैं? यदि स्वयं और अपने परिवार समाज और राष्ट्र को प्रगति के पथ पर आगे बढ़ाना है तो युवाओं को अपनी नैसर्गिक क्षमता की पहचान करनी होगी।

 स्वामी विवेकानंद के उस महामंत्र को उन्हें अपने दिलों में उभारना होगा- ‘उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत’ – अर्थात उठो, जागो, और ध्येय की प्राप्ति तक रूको मत।

डा. विनोद बब्बर