आदि ग्रन्थ में शब्द से अर्थ तक की यात्रा

डॉ. कुलदीप चन्द अग्निहोत्री

downloadआदि ग्रन्थ में कबीर जी की वाणी भी शामिल की गई है । कबीर मध्यकालीन भक्ति आन्दोलन के अग्रणी स्तम्भों में से गिने जाते हैं । उन्होंने तत्कालीन भारतीय समाज में तारतम्य बिठाने का भरसक प्रयास किया । इस्लाम को मानने वाले विदेशी आक्रमणकारियों ने , भारत के बहुत बड़े भूभाग पर क़ब्ज़ा कर , वहाँ अपना शासन थोप दिया था । इतना ही नहीं उन्होंने यहाँ के स्थानीय लोगों में से भी कुछ को भय या लालच से मतान्तरित कर लिया था । मतान्तरित लोगों ने शासन के भय से या लोभ में अपना मत , सम्प्रदाय या मज़हब चाहे बदल लिया था , लेकिन वे यहाँ के इतिहास या परम्पराओं से नाता भला कैसे तोड़ सकते थे ? क्योंकि ये उनकी अपनी परम्पराएँ थीं । यह उनका अपना इतिहास था । वे उसी का अंश थे । अब एक ही मज़हब के हो जाने के बाबजूद , वे विदेशी शासित समाज का हिस्सा नहीं थे , बल्कि हिन्दुस्तानी स्थानीय समाज का ही हिस्सा थे । लेकिन विदेशी इस्लामी आक्रान्ता जानते थे कि जब तक ये नव मतान्तरित लोग , इस देश की मिट्टी , यहाँ के इतिहास , आस्था केन्द्रों को नकारेंगे नहीं , तब तक मतान्तरण का व्यापक उद्देश्य कैसे पूरा हो सकेगा ? इस लड़ाई का दूरगामी प्रभाव पड़ने वाला था ।

ऐसे संक्रमण काल में कबीर ने अपने आस्था स्थलों से जुड़े रहने के प्रति स्पष्ट शब्दों में सावधान किया । उन्होंने कहा–

बेद कतेब कहहु मत झूठे , झूठा जो न विचारै ( आदि ग्रन्थ १३५०)

संकेत स्पष्ट है । झूठा तो वह है जो वेद को विचारता नहीं है । उसके अन्दर नहीं झाँकता । उसके अनुसार जीवन का आचारण नहीं करता । बिना पढ़े और विना जाने उसे नकारता है । पढ़ने से ज्ञान प्राप्त होता है । लेकिन जो ज्ञान संस्कार बन कर जीवन में न उतरे वह ज्ञान भी भार बन जाता है । गधे की पीठ पर पचास मन ग्रन्थ लदे हैं या पत्थर , इससे उसे क्या फ़र्क पड़ता है । उसके लिये तो दोनों का अर्थ केवल भार है । लेकिन जब मनुष्य उस ज्ञान को संस्कार बना कर धारण कर लेता है तो वह सार्थक हो जाता है । समरस समाज की रचना इन्हीं संस्कारों से होती है । दुर्भाग्य से मध्यकाल में जिस नेतृत्व पर इस संकट काल में भारतीय समाज को हताशा के गर्त से निकालने का दायित्व था , वह या तो ज्ञान का बोझ ढो कर ही स्वयं को गौरवान्वित कर रहा था , या फिर चुपके से विदेशी शासकों के दरबारों में ही दुबक गया था । ऐसी स्थिति में नव मतान्तरित वर्ग , मुल्ला मौलवियों की व्याख्याओं के शोर में अपनी परम्परा को नकारने के रास्ते पर चल पड़ा था । इसीलिये कबीर नकारने से पहले विचार करने पर बल देते हैं । यदि विचार न किया तो विदेशी आन्धी में ज़मीन से पैर उखड़ जाने का ख़तरा तो बना ही रहेगा ।

गुरु नानक तो एक प्रकार से चेतावनी ही दे रहे हैं । ख़ुरासान खसमान किया , हिन्दोस्तान डराया । इसी डर से मतान्तरण की हवा चलने लगी थी । पहला क़दम मतान्तरण और दूसरा अपने आप ही स्थानीय ज़मीन से टूटना होता है । इस लिये किसी भी तरह यह डर समाप्त करना होगा । डर तभी समाप्त होगा यदि चिन्तन किया जाये , विचार किया जाये , शाश्वत सत्य को पहचान लिया जाये । अन्यत्र भी कहा गया है — विद्या विचारी तो पर उपकारी । विचार करने पर विद्या केवल परोपकारी ही नहीं बन जाती बल्कि ज्ञान चक्षु भी खोल देती है । अन्दर के नेत्र । जिसके अन्दर के नेत्र खुल जायें वह भला बिना विचारे क्यों अपनी विरासत को नकारेगा ? लालच और भय से तो बिल्कुल ही नहीं । वह मतान्तरित हो गया है यानि उसने ईश्वर की वन्दना का तरीक़ा बदल लिया है । लेकिन यही तो भारतीय परम्परा है । एक् सत विप्रा बहुधा वदन्ति । इसलिये इसे नकारने का प्रश्न कहाँ है ?

गुरु नानक देव कहते हैं —

चारे वेद होए सचिआर , पढिहि गुणहि तिन चार वीचार ।( आदि ग्रन्थ ४७०)

संकेत इस बार भी स्पष्ट है । पढ़ने के बाद ‘गुणिए’ । पंजाबी संस्कृति में ‘गुणना’ का अपना महत्व है । वही जिसे कबीर विचार करना कहते हैं । ज्ञान को आचरण तक ले जाना , शब्द के भीतर के अर्थ से साक्षात्कार करना । मध्यकालीन भक्ति आन्दोलन के प्रवर्तक जानते थे कि यदि संकट के इस काल में ‘विचार’ न किया गया तो भविष्य के समाज के लिये सचमुच संकट खड़ा हो जायेगा । बिना पढ़े , जाने बूझे और उस पर विचार किये बिना विरासत को ‘रिजैक्ट’ कर देना , भविष्य में भारत की पहचान को ही समाप्त कर देगा । अरब , अफ़ग़ानी , तुर्क और मुग़ल विदेशी शासक इसी पहचान को समाप्त करने का प्रयास कर रहे थे । इसके लिये यहाँ के नव मतान्तरित समाज को ‘नकार आन्दोलन’ की ओर धकेला जा रहा था । उनका प्रयास था कि इनकी देशी स्थानीय जड़ों को उखाड़ दिया जाये । लेकिन मध्यकालीन भक्ति आन्दोलन के प्रवर्तक प्रयास कर रहे थे कि मतान्तरण के बावजूद इनकी जड़ों को इसी मिट्टी और समाज में बचा कर रखा जाये । यदि इसमें सफलता मिल गई तो विदेशी इस्लामी आक्रान्ताओं का मतान्तरण आन्दोलन अपने प्रभाव और उद्देश्य में निष्फल हो जायेगा । भारतीय परम्परा इतना तो जानती ही थी कि राम और रहीम में केवल शब्द का अन्तर है , अर्थ में कोई भेद नहीं है । इसलिये वे अर्थ का पीछा कर रहे थे । अर्थ की पीछा करने से ही इस विदेशी प्रयास को मात दी जा सकती थी । लेकिन विदेशी आक्रमणकारी चाहते थे कि बहस शब्द तक ही सीमित रहनी चाहिये , तभी मतान्तरण से राष्ट्रान्तरण तक पहुँचा जा सकेगा ।

यह लड़ाई बहस और चिन्तन को शब्द से अर्थ तक ले जाने की लड़ाई थी । गुरु अर्जुन देव जी ने कहा–

चतुरथि चारे वेद , सुणि सोधिओ ततु बीचार

सरब खेम कलिआण निधि राम नामु जपि सार ( आदि ग्रन्थ २९७)

सब का ज़ोर विचार पर है । लेकिन समस्या एक और भी है । शासक यदि विदेशी हो , उसकी अपनी निष्ठा सैमेटिक हो , अपने विचार के अलावा वह दूसरे के विचार को सुनना ही कुफ़्र मानते हो , तो उस स्थिति में शब्द से होते हुये विचार या अर्थ की साधना इतनी सरल यात्रा नहीं होती । गुरु अर्जुन देव जी को अपनी इस यात्रा की क़ीमत अपने प्राण देकर चुकाने पड़ी थी । इतना ही नहीं विदेशी शासक वर्ग में से भी यदि किसी को इस देश की मिट्टी या संस्कृति की सौंधी सुगन्ध आकर्षित करने लगी , तो बिना किसी लाज लिहाज़ के मुल्ला मौलवियों ने उसका सिर भी मांग लिया । दारा शिकोह को भी अपनी इस हिमाक़त की यही क़ीमत चुकानी पड़ी थी ।

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डॉ. कुलदीप चन्‍द अग्निहोत्री
यायावर प्रकृति के डॉ. अग्निहोत्री अनेक देशों की यात्रा कर चुके हैं। उनकी लगभग 15 पुस्‍तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। पेशे से शिक्षक, कर्म से समाजसेवी और उपक्रम से पत्रकार अग्निहोत्रीजी हिमाचल प्रदेश विश्‍वविद्यालय में निदेशक भी रहे। आपातकाल में जेल में रहे। भारत-तिब्‍बत सहयोग मंच के राष्‍ट्रीय संयोजक के नाते तिब्‍बत समस्‍या का गंभीर अध्‍ययन। कुछ समय तक हिंदी दैनिक जनसत्‍ता से भी जुडे रहे। संप्रति देश की प्रसिद्ध संवाद समिति हिंदुस्‍थान समाचार से जुडे हुए हैं।

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