
आज कितनी कल्पनाएँ,
और अगणित ज्योत्सनाएँ;
मुझे मग दिखला रहीं हैं,
गगन भास्वर कर रहीं हैं!
कल्प की मीमांसाएँ,
अल्प की उर अल्पनाएँ;
अभीप्साएँ शाँत की हैं,
प्रदीप्तित प्राणों को की हैं!
प्रश्रयों में बिन पले वे,
अश्रुओं को सुर दिईं हैं;
आत्म की हर ओज धारा,
धवलता ले कर बढ़ी है!
ध्यान की हर उमड़ती लय,
विलय लौकिक लड़ी की है;
कड़ी हर क्रंदन मिटा कर,
घड़ी हर घट को छुई है!
पटों में छुपती छुपातीं,
लटों शिव की उमड़ आतीं;
‘मधु’ मनों की प्रेरणाएँ,
प्रतीति में प्रकट आएँ!