आचार्य गिरिराज किशोर: श्रीराम के कार्य को समर्पित व्यक्तित्व

-विजय कुमार-
achrarya giriraj kishore

विश्व हिन्दू परिषद के मार्गदर्शक आचार्य गिरिराज किशोर का जीवन बहुआयामी था। उनका जन्म चार फरवरी, 1920 को एटा (उ.प्र.) के मिसौली गांव में श्यामलाल एवं अयोध्यादेवी के घर में मंझले पुत्र के रूप में हुआ। हाथरस और अलीगढ़ के बाद उन्होंने आगरा से इंटर की परीक्षा उत्तीर्ण की। आगरा में दीनदयाल उपाध्याय और भव जुगादे के माध्यम से वे स्वयंसेवक बने और फिर उन्होंने संघ के लिए ही जीवन समर्पित कर दिया।
प्रचारक के नाते आचार्य जी मैनपुरी, आगरा, भरतपुर, धौलपुर आदि में रहे। 1948 में संघ पर प्रतिबंध लगने पर वे मैनपुरी, आगरा, बरेली तथा बनारस की जेल में 13 महीने तक बंद रहे। वहां से छूटने के बाद संघ कार्य के साथ ही आचार्य जी ने बी.ए. तथा इतिहास, हिन्दी व राजनीति शास्त्र में एम.ए. किया। साहित्य रत्न और संस्कृत की प्रथमा परीक्षा भी उन्होंने उत्तीर्ण कर ली। 1949 से 58 तक वे उन्नाव, आगरा, जालौन तथा उड़ीसा में प्रचारक रहे।

इसी दौरान उनके छोटे भाई वीरेन्द्र की अचानक मृत्यु हो गयी। ऐसे में परिवार की आर्थिक दशा संभालने हेतु वे भिण्ड (म.प्र.) के अड़ोखर कॉलेज में सीधे प्राचार्य बना दिये गये। इस काल में विद्यालय का चहुंमुखी विकास हुआ। एक बार डाकुओं ने छात्रावास पर धावा बोलकर कुछ छात्रों का अपहरण कर लिया। आचार्य जी ने जान पर खेलकर एक छात्र की रक्षा की। इससे चारों ओर वे विख्यात हो गये। यहां तक कि डाकू भी उनका सम्मान करने लगे। आचार्य जी की रुचि सार्वजनिक जीवन में देखकर संघ ने उन्हें अ.भा. विद्यार्थी परिषद् का राष्ट्रीय उपाध्यक्ष और फिर संगठन मंत्री बनाया। नौकरी छोड़कर वे विद्यार्थी परिषद को सुदृढ़ करने लगे। उनका केन्द्र दिल्ली था। उसी समय दिल्ली वि.वि. में पहली बार विद्यार्थी परिषद ने अध्यक्ष पद जीता। फिर आचार्य जी को भारतीय जनसंघ का संगठन मंत्री बनाकर राजस्थान भेजा गया। आपातकाल में वे 15 मास भरतपुर, जोधपुर और जयपुर जेल में रहे।

1979 में ‘मीनाक्षीपुरम कांड’ ने पूरे देश में हलचल मचा दी। वहां गांव के सभी 3,000 हिन्दू एक साथ मुसलमान बन गये। प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने इससे चिंतित होकर डॉ. कर्णसिंह को कुछ करने को कहा। उन्होंने संघ से मिलकर ‘विराट हिन्दू समाज’ नामक संस्था बनायी। संघ की ओर से श्री अशोक सिंहल इसमें लगे। दिल्ली तथा देश के अनेक भागों में विशाल कार्यक्रम हुए। मथुरा के ‘विराट हिन्दू सम्मेलन’ की जिम्मेदारी आचार्य जी पर थी; पर धीरे-धीरे संघ के ध्यान में आया कि इंदिरा गांधी इससे अपनी राजनीति साधना चाहती हैं। अतः संघ ने हाथ खींच लिया। ऐसा होते ही वह संस्था भी ठप्प हो गयी। इसके बाद 1982 में अशोक जी तथा 1983 में आचार्य जी को ‘विश्व हिन्दू परिषद’ के काम में लगा दिया गया।
इन दोनों के नेतृत्व में संस्कृति रक्षा योजना, एकात्मता यज्ञ यात्रा, राम जानकी यात्रा, रामशिला पूजन, राम ज्योति अभियान, राममंदिर का शिलान्यास और फिर बाबरी ढांचे के ध्वंस आदि ने विहिप को नयी ऊंचाइयां प्रदान कीं। संगठन विस्तार के लिए आचार्य जी ने इंग्लैंड, हॉलैंड, बेल्जियम, फ्रांस, स्पेन, जर्मनी, रूस, नार्वे, स्वीडन, डेनमार्क, इटली, मारीशस, मोरक्को, गुयाना, नैरोबी, श्रीलंका, नेपाल, भूटान, सिंगापुर, जापान, थाइलैंड आदि देशों की यात्रा की। अपनी बात पर सदा दृढ़ रहने वाले आचार्य जी के मीडिया से बहुत मधुर संबंध रहते थे। 13 जुलाई, 2014 (रविवार) को वृद्धावस्था के कारण 95 वर्ष की सुदीर्घ आयु में उनका निधन हुआ। उनकी स्मृति अंत तक बहुत अच्छी थी तथा वे सबसे बात भी करते थे। उनकी इच्छानुसार उनके नेत्र और फिर ‘दधीचि देहदान समिति’ के माध्यम से पूरी देह दिल्ली के आर्मी मेडिकल कॉलेज को चिकित्सा विज्ञान के छात्रों के उपयोग हेतु दान कर दी गयी।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

* Copy This Password *

* Type Or Paste Password Here *

17,866 Spam Comments Blocked so far by Spam Free Wordpress