अधर्म पर धर्म की जीत की याद दिलाती ”शहादत-ए-हुसैन”

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तनवीर जाफरी

मोहर्रम पर विशेष

अंग्रेज़ी कैलंडर वर्ष की शुरुआत हो या अन्य दूसरे पंथों द्वारा अपनाए जाने वाले वार्षिक कैलंडर की बात हो लगभग सभी नववर्षों की शुरुआत पूरे विश्व में पूरे हर्षोल्लास व स्वागतपूर्ण वातावरण में की जाती है। परंतु इसे इस्लाम धर्म का दुर्भागय कहा जाएगा कि इस्लामी वर्ष का पहला महीना अर्थात् मोहर्रम अपने आगमन के साथ करबला की उस दास्तान की याद को ताज़ा करता है जो जहां एक ओर इस्लाम के नाम पर फैलाए जा रहे आतंकवाद का सबसे पहला और सबसे बड़ा उदाहरण बनी वहीं इसी करबला ने आतंकवाद के आगे सर न झुकाने तथा सच्चाई के लिए कुर्बान हो जाने के हज़रत इमाम हुसैन के महान संकल्प को भी साक्षात किया। पूरी दुनिया प्रत्येक वर्ष की भांति इस वर्ष भी हज़रत मोहम्मद के नवासे व हज़रत अली व बीबी फातिमा के बेटे हज़रत हुसैन व उनके परिवारजनों की लगभग साढ़े चौदह सौ वर्ष पूर्व हुई शहादत की याद मना रहा है।

मुस्लिम समुदाय के लोग तथा इनमें विशेषकर शिया वर्ग के लोग आमतौर पर हज़रत इमाम हुसैन की शहादत को शोकपूर्ण धार्मिक आयोजन के रूप में देखते,मानते,मनाते व समझते हैं। पूरे विश्व में खासतौर पर शिया समुदाय मोहर्रम के दिनों में हज़रत इमाम हुसैन की शहादत को याद कर मजलिसें(शोकसभाएं)आयोजित करता है, ताजि़यादारी,मातमदारी, नौहाख्वानी, मर्सियाख्वानी,ज़ंजीरों व तलवारों के मातम तथा आग के अंगारों पर चलने जैसे शोकपूर्ण व हृदयविदारक आयोजन किये जाते हैं। शिया समाज के लोग इस प्रकार के शोकपूर्ण धार्मिक आयोजनों के माध्यम से हज़रत मोहम्मद के नवासे हज़रत इमाम हुसैन व उनके शहीद परिवारजनों को अपनी अश्रूपूर्ण श्रद्धांजलि देते हैं। इस दौरान जगह-जगह लंगर और छबीलें भी लगाई जाती हैं और हज़रत हुसैन की तीन दिन की भूख और प्यास को भी याद किया जाता है।

इतिहास के अनुसार लगभग साढ़े चौदह वर्ष पूर्व शाम अर्थात् सीरिया के एक मुस्लिम शासक यज़ीद ने हज़रत इमाम हुसैन से अपने राज्य की व अपनी बादशाहत की इस्लामिक मान्यता तलब की। उस समय हज़रत इमाम हुसैन अपने नाना हज़रत मोहम्मद द्वारा चलाए गए इस्लाम धर्म के इकलौते वारिस थे। यज़ीद अपने आप में एक अत्यंत बदचलन, दुष्चरित्र, शराबी, अय्याश,फसादी, क्रूर तथा अधर्म पर चलने वाला व्यक्ति था। हज़रत इमाम हुसैन ऐसे दुष्ट, अधार्मिक तथा क्रूर व्यक्ति को अपने हाथों से इस्लामी राज्य का बादशाह स्वीकार नहीं करना चाहते थे। इतिहास के अनुसार आज का सीरिया और उस समय का शाम दुनिया की सबसे बड़ी ताकतों में एक था। यज़ीद ने पहले तो कई बार अपने राजदूत व राज्यपाल आदि को मध्यस्थ बनाकर मदीने भेजा तथा बातचीत के द्वारा इस बात की पूरी कोशिश की कि हज़रत इमाम हुसैन उसके हाथों पर बैअत कर लें तथा उसे मान्यता प्राप्त इस्लामी राज्य के मान्यता प्राप्त मुस्लिम बादशाह के रूप में अपनी स्वीकृति दे दें। परन्तु हज़रत हुसैन किसी भी कीमत पर उसके व उसकी किसी लालच तथा विशाल सेना के भय के आगे झुकने को तैयार नहीं हुए। हज़रत इमाम हुसैन दुनिया को वास्तविक इस्लाम का दर्शन कराना चाहते थे। वे यह नहीं चाहते थे कि इतिहास में भविष्य में इस बात का उल्लेख हो कि हज़रत मोहममद के धार्मिक वारिस ने यज़ीद जैसे अधार्मिक व दुष्चरित्र व्यक्ति को इस्लामी साम्राज्य का बादशाह स्वीकार कर इस्लाम को कलंकित कर दिया। बल्कि वह यह चाहते थे कि इस्लाम की सही तस्वीर दुनिया के सामने पेश की जा सके। दुनिया को यह दिखाया जा सके कि इस्लाम वह धर्म है जिसके सच्चे मानने वाले अधर्म, अत्याचार, असत्य,क्रूरता व अमानवीयता के समक्ष कभी सिर नहीं झुकाते। हज़रत इमाम हुसैन का ही यह कथन था कि- जि़ल्लत की जि़ंदगी से इज़्ज़त की मौत बेहतर है।

हज़रत इमाम हुसैन द्वारा यज़ीद को इस्लामी साम्राज्य का बादशाह अस्वीकार करने के बाद आखीरकार यज़ीद ने जंग की ठानी। यज़ीद मदीने में आकर हज़रत हुसैन की हत्या करना चाहता था। परंतु हज़रत इमाम हुसैन ने अपने नाना हज़रत मोहम्मद के पवित्र जन्मस्थान मक्का-मदीना को युद्ध से अपवित्र होने से बचाने के लिए सपरिवार मदीना त्याग दिया। और वे अपने छोटे से परिवार व मित्रों के केवल कुल 72 व्यक्तियों के साधारण क़ाफीले के साथ मदीना छोडक़र इराक स्थित करबला के मैदान में जा पहुंचे। हज़रत हुसैन ने मदीने से करबला का सफर अपने परिजनों व साथियों को यह बताकर शुरु किया था कि वे यज़ीद के विशाल लश्कर के हाथों कत्ल होने के मकसद से मदीना छोड़ रहे हैं। लिहाज़ा उनके साथ उनके काफिले में जो भी व्यक्ति शामिल था वह प्रत्येका व्यक्ति न केवल सच्चा व समर्पित मुसलमान था बल्कि करबला के मैदान में इस्लाम धर्म पर छाए इतिहास के सबसे बड़े संकट के समय इस्लाम को संरक्षण देने वाला तथा इस्लाम को बचाने वाला ‘वास्तविक जेहादी’ भी था। करबला में फुरात नदी के किनारे हज़रत हुसैन ने मोहर्रम की 2 तारीख को अपना तंबू लगा दिया। परंतु 7 मोहर्रम को यज़ीद की फौजों ने हज़रत हुसैन व उनके साथियों को फुरात नदी के किनारे से हटा दिया। बताया जाता है कि उन दिनों मई का महीना था तथा भीषण गर्मी उस रेगिस्तानी क्षेत्र में पड़ रही थी। ऐसे में तीन दिनों तक हज़रत हुसैन व उनके पूरे परिवार के लोग उस रेगिस्तान में बिना पानी व खाने के भी रहे। आखिरकार मोहर्रम की दसवीं तारीख जिसे योम-ए-आशूरा भी कहा जाता है, को हज़रत इमाम हुसैन के सभी पुरुष साथी एक के बाद एक करबला के मैदान में यज़ीदी लश्कर के हाथों शहीद हो गए। करबला में जहां हज़रत हुसैन के अतिरिक्त उनके भाई हज़रत अब्बास व 18 वर्ष के उनके पुत्र अली अकबर शहीद हुए वहीं यज़ीदी लश्कर ने उनके मात्र 6 महीने के भूखे व प्यासे पुत्र अली असगर को भी तीर मारकर शहीद कर दिया। इतिहास के अनुसार हज़रत इमाम हुसैन उस मासूम बच्चे की प्यास बुझाने के लिए निहत्थे होकर तथा अली असगर को अपनी गोद में लेकर दुश्मन से पानी मांगने मैदान में गए थे। परंतु यज़ीदी सेना ने 6 महीने के अली असगर को पानी देने के बजाए तीर चलाकर हज़रत हुसैन की गोद में ही शहीद कर दिया। केवल उनके एक पुत्र ज़ैनुलआबदीन जो उन दिनों काफी बीमार थे और बीमारी के कारण युद्ध नहीं लड़ सके, वे जि़ंदा बचे थे जिन्हें बाद में हज़रत इमाम हुसैन का उत्तराधिकारी इमाम घोषित किया गया। करबला की दिन भर चली यज़ीद की सेना की आतंकवादी करतूत के बाद ज़ैनुलाबदीन व उनके परिवार की सभी महिलाओं को गिरफ्तार किया गया। उनके हाथों में रस्सियां बांधी गईं तथा करबला से कूफा और कूफा से शाम के बाज़ारों में उन्हें बेपर्दा घुमाया गया। दस मोहर्रम की इस काली शाम को शाम-ए-गरीबां के नाम से याद किया जाता है।

निश्चित रूप से शिया समुदाय के लोग हज़रत इमाम हुसैन की नस्ल से जुड़े लोगों में स्वयं को समझते हुए उनकी याद एक धार्मिक आयोजन के रूप में मनाते हैं। परंतु दरअसल हुसैन की शहादत को किसी एक धर्म या समाज या वर्ग विशेष की विरासत के रूप में कतई नहीं देखा जाना चाहिए। खासतौर पर आज के दौर में जबकि इस्लाम पर एक बार फिर उसी प्रकार की साम्राज्यवादी व आतंकवादी प्रवृति की शक्तियां हावी होने का प्रयास कर रही हैं ऐसे में बार-बार करबला की दास्तान इस प्रकार के इस्लामी रंगरूप में लिपटे आतंकवादी चेहरों को बेनकाब किए जाने व इनका मुकबला करने की प्रेरणा देती है। हज़रत इमाम हुसैन की शहादत के केवल शिया या मुस्लिम वर्ग के लोग ही कायल नहीं बल्कि पूरी दुनिया के लगभग सभी धर्म व समुदायों के शिक्षित व बुद्धिजीवी लोग, इतिहासकार तथा जानकार लोग हज़रत हुसैन द्वारा इस्लाम व मानवता की रक्षा के प्रति दी गई उनकी कुर्बानियों के कायल रहे हैं। भारत वर्ष में महात्मा गांधी, बाबा साहब अंबेडकर, सरोजनी नायडू, पंडित जवाहर लाल नेहरू आदि सभी ने कहीं न कहीं किसी न किसी अवसर पर हजऱत इमाम हुसैन को अपने अंदाज़ से श्रद्धांजलि दी है। महात्मा गांधी ने तो डांडी यात्रा के दौरान 72 लोगों को अपने साथ ले जाने का फैसला हज़रत इमाम हुसैन के 72 व्यक्तियों के काफले को आदर्श मानकर ही किया था। आज भी पूरे भारतवर्ष में विभिन्न स्थानों पर कई गैर मुस्लिम समाज के लोगों द्वारा हज़रत इमाम हुसैन की याद में मोहर्रम के अवसर पर ताजि़यादारी करने जैसे कई आयोजन किए जाते हैं। हज़रत इमाम हुसैन व उनके साथियों द्वारा करबला में दी गई उनकी कुर्बानी वर्तमान समय में जबकि इस्लाम पर आतंकवाद की काली छाया मंडरा रही है तथा एक बार फिर इस्लाम धर्म उसी प्रकार यज़ीदी विचारधारा के शिकंजे में जकड़ता नज़र आ रहा है ऐसे में न सिर्फ प्रासंगिक दिखाई देती है बल्कि हज़रत हुसैन के बलिदान की अमरकथा इस्लाम के वास्तविक स्वरूप व सच्चे आदर्शों को भी प्रतिबिंबित करती है। शायद तभी शायर ने कहा है कि –

इंसान को बेदार तो हो लेने दो।

हर कौम पुकारेगी हमारे हैं हुसैन।।

2 COMMENTS

  1. कर्बला का वाकया 10 Oct, को हुआ था लेकिन october मे ईराक में गर्मी भारत में पड़ने वाली मई से अधिक होती है।

  2. सदियाँ गुज़र गईं .. हैवान और इंसान की जंग आज भी जारी है. हज़रत हुसैन की अमर कथा के साथ विश्व शान्ति के सन्देश के लिए ..सलाम ..
    उतिष्ठ कौन्तेय

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