राजनीति

आडवाणी बनाम मोदी

advani modi2009 में एन.डी.ए. की ओर से प्रधानमंत्री पद के घोषित उम्मीदवार लालकृष्ण आडवाणी, लगता है 2014 में भी अपनी प्रधानमंत्री पद की दावेदारी छोड़ने को तैयार नहीं है। जबकि 2009 से लेकर अब तक परिस्थितिया बहुत बदल चुकी है। पहली महत्वपूर्ण बात यह कि 2009 में आडवाणी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित करने से एन.डी.ए. का सत्ता में आना तो दूर उल्टे भाजपा की सीटे 2004 की तुलना में घट गई। दूसरे इधर देश के राजनैतिक परिदृश्य में तेजी से नरेन्द्र मोदी का उदय हुआ और देश का जनमत क्रमशः उनके पक्ष में होता चला गया। गुजरात विधानसभा का चुनाव तीसरी बार धमाकेदार ढ़ंग से जीतने पर उनकी प्रधानमंत्री पद की दावेदारी तो पुख्ता हो-ही गई। उनकी स्वीकार्यता कुछ इस अंदाज में बढ़ी कि ऐसा माना जाता है कि आज देश के आधे मतदाता कमोवेश उनके पक्ष में है। इस मामले में भाजपा या एन.डी.ए. को कोई भी नेता उनके आस-पास भी नहीं है। ऐसा माना जाता है कि यदि मोदी को भाजपा ने प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाया, तो पूरे देश में भाजपा के पक्ष में एक बेहतर माहौल बन सकता है, और भाजपा को पचासों सीटों का इजाफा हो सकता है।

 

बाबजूद इसके ऐसा लगता है कि आडवाणी, मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाना नहीं चाहते। तभी तो उन्होने पहले नरेन्द्र मोदी को भाजपा के संसदीय बोर्ड में आने से रोका। उन्हे जब ऐसा लगा कि ऐसा नहीं हो सकता तो म.प्र. के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह का नाम इसके लिए आगे बढ़ाया। क्योकि यदि ऐसा हो जाता तो शिवराज सिंह, नरेन्द्र मोदी की बराबरी में खड़ें हो जाते और नरेन्द्र मोदी का संसदीय बोर्ड में जाना कोई खास घटना न होती। अब जैसा कि खबरे है आडवाणी नरेन्द्र मोदी की जगह नितिन गडकरी को चुनाव-प्रचार अभियान समिति का अध्यक्ष बनाए जाने के पक्षधर है, ताकि नरेन्द्र मोदी की प्रधानमंत्री पद की दावेदारी कमजोर हो सके। यह बात अलग है कि भाजपाध्यक्ष राजनाथ सिंह आडवाणी की इस बात को मानने को तैयार नहीं है।

 

पर 01 जून को भाजपा के पालक-संयोजक सम्मेलन में आडवाणी ने जो कहा, उससे तो बड़ा विवाद खड़ा हो गया है। अब जैसा कि सभी को विदित है, आडवाणी ने इस अवसर पर दो बाते मुख्य रूप से कहीं एक तो गुजरात पहले से स्वस्थ था, पर म.प्र. एक बीमारू राज्य था। कहने का तात्पर्य यह कि शिवराज सिंह की उपलब्धियाँ नरेन्द्र मोदी से ज्यादा बड़ी है। दूसरी बात उन्होने शिवराज सिंह की अटल जी से तुलना करते हुए उन्हे अंहकार-रहित तो बताया ही साथ ही प्रकारांतर से यह भी कह डाला कि अटल जी तरह वह भी सबको साथ में लेकर चल सकते है। प्रकारांतर से इसका आशय यह भी हो सकता है कि नरेन्द्र मोदी अंहकारी है, और सबको साथ में लेकर नहीं चल सकते। कुल मिलाकर इन बातों का जो संदेश लोगों तक गया वह यही कि आडवाणी प्रधानमंत्री पद पर अपना ही अधिकार मानते है। यह बताना भी प्रासंगिक होगा कि वर्ष 2009 के लोकसभा के चुनावों के दौरान भले ही आडवाणी की ओर से प्रधानमंत्री पद के घोषित उम्मीदार थे। लेकिन कुछ ऐसी आवाजें उठी कि नरेन्द्र मोदी प्रधानमंत्री पद के बेहतर उम्मीदवार हो सकते है। इस पर आडवाणी ने उस समय भी शिवराज सिंह के लिए कहा था कि वह प्रधानमंत्री पद के बेहतर उम्मीदवार हो सकते है। स्पष्ट कि आडवाणी की इन बातों को कहने का आशय जो रहा हो, पर लोग तो यही मानेगें कि शिवराज सिंह का नाम नरेन्द्र मोदी के काट के बतौर लिया जा रहा है। ताकि उनका प्रधानमंत्री बनने का रास्ता निरापद रहे।

 

आडवाणी को इस बात की शिकायत है कि कर्नाटक के तात्कालिन मुख्यमंत्री येदुयरप्पा को भ्रष्ट्राचार के आरोपों के चलते हटाने में इतनी देरी क्यों की गई? क्या आडवाणी यह बता सकते है कि इसके लिए क्या वह स्वतः भी जिम्मेदार नहीं। भले ही आडवाणी पार्टी अध्यक्ष न रहे हों। पर यदि वह पूरी ताकत से यह तय कर लेते कि येदुयरप्पा को तत्काल हटाना चाहिए, तो पार्टी को उनकी इच्छा के सामने झुकना ही पड़ता। पर ऐसा लगता है कि आडवाणी को तब ऐसा लगा होगा कि उन्हे प्रधानमंत्री बनने के लिए येदुयरप्पा जैसे लोगों की जरूरत पड़ेंगी। इसीलिए वह उस समय चुप रहे। इतना ही नहीं जब उत्तर प्रदेश विधानसभा के चुनावों में बाबू सिंह कुशवाहा जैसे घोटालेबाजों को भाजपा में लिया गया तब भी आडवाणी ने इस पर प्रतिरोध नहीं किया। जिसका परिणाम यह हुआ कि मतदाताओं ने यह मान लिया कि सभी राजनैतिक दल ‘‘एक ही थैली के चट्टें-बटटें है।’’

 

रामजन्मभूमि आन्दोलन के दशक मंे राजमाता विजयराजे सिंधिया ने कहा था कि मै आडवाणी जी को प्रधानमंत्री की कुर्सी पर देखना चाहती हूँ। निःसन्देह इस देश में बहुत से ऐसे लोग होगे जो आडवाणी को प्रधानमंत्री की कुर्सी पर देखना चाहते है। रामजन्मभूमि आन्दोलन के माध्यम से उन्होने छद्म धर्म निरपेक्षता के खिलाफ जो लड़ाई लड़ी उससे देश का राजनैतिक परिदृश्य हीं बदल गया, और उसी के चलते कहीं-न-कहीं भाजपा को सत्ता में आने में मदद मिली। हवाला काण्ड में जिस ढ़ंग से उन्होने लोकसभा की सदस्यता से त्याग-पत्र दिया था, वह अब भी वर्तमान भारतीय राजनीति में एक दुर्लभ उदाहरण है। आडवाणी के चरित्र की ऊॅचाई यह है कि हवाला काण्ड के संदर्भ में सैयद सहाबुद्दीन ने कहा था कि मै आडवाणी का कटु आलोचक हूॅ। लेकिन मै यह दावे से कह सकता हूॅ कि आडवाणी एक पैसे की भी बेईमानी नहीं कर सकते। अटल बिहारी बाजपेयी तो उनमें एकात्म-मानववाद के प्रणेता तथा सादगी और सरलता की मूर्ति पण्डित दीनदयाल की छवि देखते थे।

 

कहने का आशय यह कि आडवाणी प्रधानमंत्री पद के सर्वथा उपर्युक्त है। लकिन जैसा कि सभी जानते है, लोकतंत्र संख्या का खेल है, और जब जन-मानस नरेन्द्र मोदी के पक्ष में है तो आडवाणी जैसे राजनेता को जिन्होने सत्ता में से ज्यादा सिद्धांतों को जिया है, उन्हे संहर्ष नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार मान ही नहीं लेना चाहिए, बल्कि इस बात की अगुवाई भी करनी चाहिए। ठीक वैसे ही जैसे नब्बे के दशक के बाद उन्होने स्वतः अटल बिहारी वाजपेयी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित किया था। यह बात अलग है कि वह आज भाजपा के अध्यक्ष नहीं है फिर भी यदि वह इस बात की पहल करते है तो देश का राजनैतिक वातावरण बदलने में मदद तो मिलेगी, पण्डित दीन दयाल उपाध्याय की तरह सत्ता के प्रति निस्पृहता का उदाहरण भी वह रख सकेगें।

 

यह कहने और सुनने में अतिशयोक्ति भले लगे, पर एक राज्य के मुख्यमंत्री रहते हुए भी नरेन्द्र मोदी की लोकप्रियता आज अटल जी से भी ज्यादा है। आडवाणी को यह विचार करना होगा कि क्या वह एक ऐसे गठबंधन के प्रधानमंत्री बनना चाहते है-जिसमें कामन सिविल कोड, राम जन्मभूमि, काश्मीर में धारा 370 हटाने, घुसपैठियों को देश से बाहर निकालने की कोई गुजांइश न रहे और ये मुद्दे स्थगित ही रहे। लेकिन यदि नरेन्द्र मोदी प्रधानमंत्री बतौर आते है तो हो सकता है कि भाजपा की शक्ति इस लायक हो सके कि कमोवेश वह इन मुद्दो की जीवंत रूप दे सके। प्रसिद्ध राजनैतिक विचारक रूसों ने कभी लिखा था-‘‘जनवाणी, देववाणी है।’’बेहतर हो आडवाणी इस देववाणी को सुने और एक राजनीतिज्ञ की भूमिका के बजाय एक राजनेता की भूमिका निभाएं। हाल में ऐसा सुनने में आया है कि आडवाणी ने मोदी की प्रधानमंत्री की उम्मीदवारी के प्रति सहमति व्यक्त कर दी है। जिसे देर आये पर दुरूस्त आये कहा जा सकता है।