पूर्ण विलय के पश्चात जनमत संग्रह का औचित्य?

-पवन कुमार अरविंद

जम्मू-कश्मीर में आत्मनिर्णय या जनमत संग्रह कराने की मांग का कहीं कोई औचित्य नहीं है। ये मांगें किसी भी प्रकार से न तो संवैधानिक हैं और न ही मानवाधिकार की परिधि में ही कहे जाएंगे। अलगाववादियों द्वारा इस विषय को मानवाधिकार से जोड़ना केवल एक नाटक भर है। क्योंकि इससे विश्व बिरादरी का ध्यान ज्यादा आसानी से आकृष्ट किया जा सकेगा। यह सारा वितंडावाद विशुद्ध रूप से कश्मीर को हड़पने के लिए पाकिस्तानी नीति का ही एक हिस्सा है।

अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा के भारत आगमन से पूर्व पाकिस्तान प्रायोजित आतंकी गतिविधियों में यकायक बढ़ोतरी हुई है। यहाँ तक कि कश्मीर घाटी के अलगाववादी संगठन और उसके नेता भी ज्यादा सक्रिय दिखने लगे हैं। अलगाववादी हुर्रियत नेता गिलानी का नई दिल्ली में “आजादी ही एक मात्र रास्ता” विषयक सेमीनार में शिरकत करना विश्व बिरादरी का ध्यान आकृष्ट कराने के अभियान का ही एक हिस्सा है। सेमीनार की खास बात यह रही कि इसमें कश्मीरी अलगाववाद के समर्थक कई जाने-माने बुद्धिजीवी भी भारत के खिलाफ जहर उगलने के लिए उपस्थित थे। सेमीनार में गिलानी के बोलने से पहले ही उनके सामने कुछ राष्ट्रवादी युवकों ने जूता उछाल दिया। इससे भारी शोर-शराबा हुआ, जिसको देखते हुए सेमीनार बीच में ही रोकना पड़ा। इस कारण से अलगाववादियों की सारी सोची-समझी रणनीति धरी की धरी रह गई।

ओबामा की भारत यात्रा के मद्देनजर पाकिस्तानी विदेश मंत्री शाह महमूद कुरैशी रणनीतिक दृष्टि से अमेरिका में थे। यहां पर कुरैशी ने अमेरिका से कश्मीर मसले के समाधान के लिए भारत-पाकिस्तान के बीच दखल देने का अनुरोध किया। लेकिन अमेरिका ने पाकिस्तान के अनुरोध को सुनने से ही इन्कार कर दिया। अमेरिका का कहना है कि कश्मीर मसला दो देशों के बीच का मामला है। इसलिए दोनों देशों के बीच में दखल देना या मध्यस्थता करना उसके लिए संभव नहीं है। इस तरह से अमेरिका ने कश्मीर मसले पर भारत के रुख का ही समर्थन किया है।

जम्मू-कश्मीर के संदर्भ में पाकिस्तान समर्थित अलगाववादियों की मांगे विशुद्ध रूप से भारत के एक और विभाजन की पक्षधर हैं। आत्मनिर्णय के अधिकार या जनमत संग्रह और मानवाधिकार की बड़ी-बड़ी बातें तो अलगाववादियों का महज मुखौटा भर है। क्योंकि जम्मू-कश्मीर का सशर्त विलय नहीं बल्कि पूर्ण विलय हुआ है। जम्मू-कश्मीर रियासत के तत्कालीन महाराजा हरिसिंह ने 26 अक्टूबर 1947 को एक विलय पत्र पर हस्ताक्षर करके उसे भारत सरकार के पास भेज दिया था। 27 अक्टूबर 1947 को भारत के गवर्नर जनरल लार्ड माउंटबेटन द्वारा इस विलय पत्र को उसी रूप में तुरन्त स्वीकार कर लिया गया था। यहाँ इस बात का विशेष महत्व है कि महाराजा हरिसिंह का यह विलय पत्र भारत की शेष 560 रियासतों से किसी भी प्रकार से भिन्न नहीं था और इसमें कोई पूर्व शर्त भी नहीं रखी गई थी।

प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू ने देशहित को अनदेखा करते हुए इस विलय को राज्य की जनता के निर्णय के साथ जोड़ने की घोषणा करके अपने जीवन की सबसे बड़ी भूल की। इस हेतु 26 नवंबर 1949 को संविधानसभा में अनुच्छेद-370 का प्रावधान रखा गया, जिसके कारण इस राज्य को विशेष दर्जा प्राप्त हुआ। विशेष बात यह है कि राज्य को अपना संविधान रखने की अनुमति दी गई। भारतीय संसद के कानून लागू करने वाले अधिकारों को इस राज्य के प्रति सीमित किया गया, जिसके अनुसार, भारतीय संसद द्वारा पारित कोई भी कानून राज्य की विधानसभा की पुष्टि के बिना यहां लागू नहीं किया जा सकता। इन्हीं सब कारणों से उस दौर के केंद्रीय विधि मंत्री डॉ. भीमराव अम्बेडकर ने इस अनुच्छेद को देशहित में न मानते हुए इसके प्रति अपनी असहमति जताई थी। संविधान सभा के कई वरिष्ठ सदस्यों के विरोध के बावजूद नेहरू जी ने हस्तक्षेप कर इसे अस्थाई बताते हुए और शीघ्र समाप्त करने का आश्वासन देकर पारित करा लिया।

हम सब जानते हैं कि भारत का संविधान केवल एक नागरिकता को मान्यता प्रदान करता है लेकिन जम्मू-कश्मीर के नागरिकों की नागरिकता दोहरी है। वे भारत के नागरिक हैं और जम्मू-कश्मीर के भी। इस देश में दो विधान व दो निशान होने का प्रमुख कारण यह कथित अनुच्छेद है। सबसे बड़ी बिडंबना यह है कि 17 नवबंर 1956 को जम्मू-कश्मीर की जनता द्वारा विधिवत चुनी गई संविधान सभा ने इस विलय की पुष्टि कर दी। इसके बावजूद भी यह विवाद आज तक समाप्त नहीं हो सका है।

तत्कालीन कांग्रेस नेताओं की अदूरदर्शिता का परिणाम आज हमारे सामने है कि महाराजा द्वारा किए गए बिना किसी पूर्व शर्त के विलय को भी शेख की हठधर्मिता के आगे झुकते हुए केन्द्र सरकार द्वारा ‘जनमत संग्रह’ या ‘आत्मनिर्णय’ जैसे उपक्रमों की घोषणा से महाराजा के विलय पत्र का अपमान तो किया ही साथ-साथ स्वतंत्रता अधिनियम का भी खुलकर उल्लघंन हुआ है। इस स्वतंत्रता अधिनियम के अनुसार, राज्यों की जनता को आत्मनिर्णय का अधिकार न देते हुए केवल राज्यों के राजाओं को ही विलय के अधिकार दिए गए थे।

ये बातें एकदम सिद्ध हो चुकी हैं कि 63 वर्षों बाद भी यदि जम्मू-कश्मीर राज्य की समस्या का समाधान नहीं हो सका है तो इसके जिम्मेदार कांग्रेसी राजनेता हैं। नेहरू का कश्मीर से विशेष लगाव होना, शेख अब्दुल्ला के प्रति अत्यधिक प्रेम और महाराजा हरिसिंह के प्रति द्वेषपूर्ण व्यवहार ही ऐसे बिंदु थे, जिसके कारण कश्मीर समस्या एक नासूर बनकर समय-समय पर अत्यधिक पीड़ा देती रही है, उसी तरह समस्या के समाधान में अनुच्छेद-370 भी जनाक्रोश का विषय बनती रही है।

इस विघटनकारी अनुच्छेद को समाप्त करने की मांग देश के बुद्धिजीवियों और राष्ट्रवादियों द्वारा बराबर की जाती रही है। दूसरी ओर पंथनिरपेक्षता की आड़ में मुस्लिम वोट बैंक की राजनीति करने वाले इसे हटाए जाने का विरोध करते रहे हैं। अस्थाई रूप से जोड़ा गया यह अनुच्छेद-370 गत 61 वर्षों में अपनी जड़ें गहरी जमा चुकी है। इसे समाप्त करना ही देशहित में होगा, नहीं तो देश का एक और विभाजन तय है।

अलगाववाद को शह दे रही है कांग्रेस

जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने हाल ही में अलगाववाद का समर्थन करते हुए जो बयान दिया था, वास्तव में उस बयान के बाद उनको मुख्यमंत्री पद पर बने रहने का कोई लोकतांत्रिक और नैतिक अधिकार नहीं रह गया है। उमर ने कहा था- “जम्मू-कश्मीर का पूर्ण विलय नहीं बल्कि सशर्त विलय हुआ है। इसलिए इस क्षेत्र को भारत का अविभाज्य अंग कहना उचित नहीं है। यह मसला बिना पाकिस्तान के हल नहीं किया जा सकता है।”

उमर के इस प्रकार के बयान से वहां की सरकार और अलगाववादियों में कोई अंतर नहीं रह गया है। जो मांगे अलगाववादी कर रहे हैं, उन्हीं मांगों को राज्य सरकार के मुखिया उमर भी दुहरा रहे हैं। आखिर, सैयद अली शाह गिलानी व मीरवाइज उमर फारूख सहित अन्य अलगाववादी नेताओं और राज्य के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला में क्या फर्क बचा है ?

यदि उमर अब्दुल्ला अलगाववादी भाषा बोलने के बाद भी राज्य के मुख्यमंत्री बने हुए हैं, तो इसकी प्रत्यक्ष जिम्मेदार कांग्रेस है। क्योंकि कांग्रेस के समर्थन से ही अब्दुल्ला सरकार टिकी हुई है। सबसे आश्चर्यजनक बात यह है कि जम्मू-कश्मीर मसले पर बातचीत के लिए केंद्र सरकार द्वारा नियुक्त वार्ताकार भी उमर अब्दुल्ला की ही तरह अलगाववादी भाषा बोल रहे हैं। यानी उमर अब्दुल्ला, कांग्रेस, वार्ताकारों और राज्य के अलगाववादियों के विचार एक हैं। चारो अलगाववाद के समर्थन में हैं।

कांग्रेस भी अलगाववादियों के सुर में सुर मिला रही है। यह चिन्तनीय है। अब यह प्रश्न उठता है कि क्या कांग्रेस भी पंडित नेहरू के ही नक्शे-कदम पर चल पड़ी है ? सभी जानते हैं कि स्वतंत्रता के तत्काल बाद कबाइलियों के भेस में पाकिस्तानी आक्रमण के दौरान कश्मीर की जीती हुई लड़ाई को संयुक्त राष्ट्र में ले जाकर पंडित नेहरू ने ऐतिहासिक भूल की थी। ठीक उसी प्रकार की भूल कांग्रेस भी कर रही है। इतिहास गवाह है कि यदि पंडित नेहरू कश्मीर मसले को संयुक्त राष्ट्र में नहीं ले गए होते तो आज अपने पूरे जम्मू-कश्मीर पर भारत का ध्वज फहराता और ‘पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर’ का कहीं कोई नामोनिशान नहीं होता।

2 COMMENTS

  1. पवन जी ने सही कहा है -अब आजादी के बाद जन मत संगृह या रेफ्रंदम की बात अर्थहीन है .
    वैसे भी तत्कालीन संयुक राष्ट्र चार्टर की तीन शर्तों में से दो पकिस्तान को पूरी करना थी .
    एक -कब्जा किये हुए कश्मीर को खाली करना .
    दो -सीमा से फौज को हटाना .
    तीसरा काम था संयुक्त राष्ट्र की देख रेख में जनमत संग्रह कराना.
    पाकिस्तान ने दोनों शर्तें पूरी नहीं की उलटे कश्मीर का एक हिस्सा चीन को दे दिया .
    इसके वावजूद विगत ६४ साल में लोकतांत्रिक तरीके से कश्मीर में अब तक कई जनमत संग्रह हो चुके हैं ,अतः अब कश्मीर भारत का अहम हिस्सा है .

  2. पूर्ण विलय के पश्चात जनमत संग्रह का औचित्य? -by – पवन कुमार अरविंद

    माननीय लेखक श्री पवन कुमार अरविंद जी का मानना है कि उमर अब्दुल्ला, कांग्रेस, वार्ताकारों और राज्य के अलगाववादियों के विचार एक हैं – क्या यह निष्कर्ष एक तथ्य है ?

    यदि है तो राष्ट्रवादी क्या कर रहें हैं ? हाथ पर हाथ रखें या निद्रा में है क्या ?

    – अनिल सहगल –

Leave a Reply to Anil Sehgal Cancel reply

Please enter your comment!
Please enter your name here