एड्स पर भारी जीने की ललक

-अरविंद जयतिलक

एड्स जैसी खतरनाक बीमारी पर जीने की ललक भारी पड़ रही है। यह खुलासा संयुक्त राष्ट्र संघ अपने कार्यक्रम यूएनएड्स द्वारा जारी रिपोर्ट में हो चुका है। उसके मुताबिक विश्व में एड्स से होने वाली मौतों में 2005 से 2016 के बीच 48 प्रतिशत की कमी आयी है। आंकड़ों पर गौर करें तो वर्ष 2010 से 56 प्रतिशत बच्चों में एचआइवी संक्रमण में कमी के साथ एचआइवी संक्रमित बच्चों की मौत में भी 50 प्रतिशत की कमी आयी है। उल्लेखनीय है कि संयुक्त राष्ट्र ने 2020 तक खुद के एचआइवी संक्रमण के बारे में लोगों के आंकड़े को 90 प्रतिशत तथा 90 प्रतिशत संक्रमितों तक इलाज पहुंचाने और एचआइवी संक्रमित लोगों में वायरस का प्रभाव 90 प्रतिशत तक कम करने का लक्ष्य रखा है। अभी गत वर्ष ही संयुक्त राष्ट्र ने  2030 तक एड्स बीमारी के खात्मे का लक्ष्य रखा। एड्स पीड़ित वैश्विक आंकड़ों पर गौर करें तो मौजूदा समय में लैटिन अमेरिका में 17 लाख, पूर्वी यूरोप एवं मध्य एशिया में 15 लाख, खाड़ी देश व उत्तर अफ्रीका में 2.8 लाख, पूर्वी, मध्य यूरोप व उत्तरी अमेरिका में 24 लाख, एशिया व प्रशांत क्षेत्र में 50 लाख, कैरेबियाई देश में 2.4 लाख तथा उप-सहारा क्षेत्र में 2.58 करोड़ एड्स पीड़ित हैं। संयुक्त राष्ट्र के एचआइवी/एड्स पर यूएनएड्स की रिपोर्ट पर विश्वास करें तो भारत एचआइवी संक्रमित लोगों का तीसरा सबसे बड़ा घर बन चुका है। रिपोर्ट के मुताबिक पूरे विश्व में एड्स संक्रमित लोगों में भारत का तीसरा स्थान है। रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत में एचआइवी पीड़ितों की संख्या 21 लाख से अधिक है और उसमें तेजी से वृद्धि हो रही है। ब्रिटिश मेडिकल जर्नल की रिपोर्ट से भी उद्घाटित हो चुका है कि भारत में एड्स पीड़ितों की संख्या 14 से 16 लाख के आसपास है। जबकि एक अन्य आंकड़े के मुताबिक इस समय देश में 20 लाख से अधिक लोग एचआईवी से पीड़ित है। एड्स किस तरह जानलेवा साबित हो रहा है इसी से समझा जा सकता है कि पिछले साल इससे दुनिया भर में 11 लाख लोगों की मौत हुई। विडंबना यह कि एड्स अब सीमित समूहों और शहरों तक सीमित न रहकर गांवों और कस्बों को भी अपने जद में लेने लगा है। त्रासदी यह कि एड्स पीड़ितों में तकरीबन 1.9 करोड़ लोग ऐसे हैं जिन्हें पता ही नहीं कि वे एचआईवी संक्रमित हैं। यह स्थिति एड्स के खिलाफ राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय अभियान की गंभीरता और सफलता की पोल खोलता है। लेकिन अच्छी बात यह है कि एड्स से निपटने के लिए अब धन की कमी आड़े नहीं आ रही है और मध्य आय वाले देशों ने एड्स से निपटने के लिए 2020 तक 26 अरब डाॅलर खर्च करने की कार्ययोजना तैयार करने के अलावा 90 फीसद मरीजों तक पहुंचने का लक्ष्य निर्धारित किया है। 2014 में इन देशों ने एड्स पीड़ित मरीजों के इलाज पर 19.2 अरब डाॅलर खर्च किया। लेकिन विडंबना यह है कि एड्स से बचाव के लिए सरकारी और गैरसरकारी स्तर पर जागरुकता कार्यक्रमों में तेजी के बाद भी बचाव की दर सिर्फ 0.34 फीसद ही है। बेहतर होगा कि संयुक्त राष्ट्र संघ, सरकारें और स्वयंसेवी संस्थाएं एड्स से बचाव के प्रभावी कदम उठाने के साथ ही लोगों को यह भी बताएं कि एड्स क्या है। यह सच्चाई है कि एड्स के बारे में लोगों को पर्याप्त जानकारी नहीं है और उसी का नतीजा है कि 1981 में एड्स की खोज से अब तक लगभग 30 करोड़ लोगों की जान जा चुकी है। आमतौर पर एड्स के संक्रमण की तीन मुख्य वजहें हैं-असुरक्षित यौन संबंध, रक्त का आदान प्रदान और मां से शिशु में संक्रमण। लेकिन यूनिसेफ की हालिया रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत में एड्स के तेजी से बढ़ते संक्रमण का एक अन्य कारण लोगों की बदलती जीवन शैली तथा युवाओं में रोमांच के लिए जोखिम लेने की प्रवृत्ति भी है। चिकित्सा वैज्ञानिकों की मानें तो भारत में 85.6 फीसदी एड्स पाश्चात्य जीवन पद्धति अपनाने से फैल रही है। इस लिहाज से 24 से 45 वर्ष के आयु के लोगों के इस बीमारी की चपेट में आने की आशंका सदैव बनी रहती है। वल्र्ड हेल्थ आर्गेनाइजेशन का कहना है कि एचआईवी संक्रमण की सबसे ज्यादा संभावना संक्रमित व्यक्ति के साथ यौन संपर्क से होती है। लेकिन आश्चर्य है कि सुरक्षित यौन संबंध के प्रचार-प्रसार के बावजूद भी लोग चेतने को तैयार नहीं। युवा वर्ग तो और भी गंभीर नहीं है। विभिन्न सर्वेक्षणों के आंकड़े बताते हैं कि देश के बड़े महानगरों में संक्रमित यौनकर्मियों की तादाद में लगातार इजाफा हो रहा है। 2003 के एक सर्वेक्षण के मुताबिक मुंबई के 70 फीसद यौनकर्मियों के शरीर में एचआईवी वायरस पाया गया है। इसी तरह सूरत में किए गए एक सर्वेक्षण से खुलासा हुआ कि वहां के यौनकर्मियों में 1992 में 17 फीसद के शरीर में एचआईवी वायरस था जबकि 2001 में बढ़कर 43 फीसद हो गया। यह एक खतरनाक संकेत है। देखा जाए तो इस स्थिति के लिए एड्स के विरुद्ध अभियान को गंभीरता से न लिया जाना ही मुख्य रुप से जिम्मेदार है। 2001 में राष्ट्रीय आचरण सर्वेक्षण (नेशनल बिहैवियर सर्वे) में 85000 लोगों से उनके यौन आचरण से जुड़े सवाल पूछे गए। इनमें 50 फीसद से अधिक लोग 25 से 40 वर्ष के थे, के द्वारा बताया गया कि उन्हें एड्स के बारे में बहुत कम जानकारी है। हैरान करने वाला तथ्य यह कि बिहार, उत्तर प्रदेश, गुजरात, पश्चिम बंगाल और मध्यप्रदेश में सिर्फ 60 फीसद लोगों ने ही एड्स का नाम सुना था। सर्वे के मुताबिक देश के अन्य हिस्सों में भी एड्स संबंधी जानकारी सिर्फ 70 से 80 फीसद लोगों को थी। यही नहीं वे इस जानकारी से भी वंचित थे कि एड्स यौन संपर्क से भी होता है। 90 फीसद लोगों का मानना था कि एड्स मच्छर के काटने से भी हो सकता है। यह सर्वेक्षण रेखांकित करता है कि देश के एक बड़े हिस्से में आज भी लोगों के बीच एड्स के बारे में समुचित जानकारी का अभाव है। एचआईवी के संक्रमण का दूसरा सबसे बड़ा प्रमुख कारण रक्त संक्रमण माना जाता है। यह किसी से छिपा नहीं है कि चेतावनी के बावजूद भी देश के अस्पतालों में एचआईवी संक्रमित व्यक्ति द्वारा इस्तेमाल की हुई सुई का धड़ल्ले से इस्तेमाल हो रहा है जिससे एचआईवी का जोखिम बढ़ता जा रहा है। एक सर्वेक्षण के मुताबिक देश में महिलाओं पर एचआईवी भार 39 फीसद है। यूनिसेफ की रिपोर्ट में भी कहा गया है कि एचआईवी पीड़ित दंपतियों में प्रसव के दौरान प्रिवेंशन आॅफ पैरेंटस टू चाइल्ड ट्रांसमिशन तकनीकी का प्रयोग करने के बाद भी 5 फीसद मामले संक्रमित बच्चों के देखने को मिल रहे हैं। रिपार्ट में बताया गया है कि 27 मिलीयन महिलाएं हर वर्ष बच्चों को जन्म देती हैं जिनमें 49000 महिलाएं एचआईवी संक्रमित होती हैं। देश में 21000 हजार बच्चे प्रतिवर्ष माता-पिता के कारण एचआईवी संक्रमण का शिकार होते हैं। एचआईवी का संक्रमण रोकने के लिए 2006 में नेशनल पीडियाट्रिक एन्टीरेट्रो तकनीकी आरंभ हुआ। अब तक देश में इसके चार सौ से अधिक एआरटी सेंटर भी स्थापित हो चुके हैं। लेकिन इस तकनीक के बाद भी आज बचाव की दर सिर्फ 0.2 फीसद है। इसे ध्यान में रखते हुए रिपोर्ट में इस जानलेवा महामारी से बचने के लिए बेहतर स्वास्थ्य सेवाओं को अमल में लाने के साथ ही सामाजिक कार्यक्रमों एवं शिक्षा के जरिए इसके रोकथाम के लिए ठोस कदम उठाने की जरुरत पर बल दिया गया है। लेकिन यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि भारतीय समाज में यौन विषयों पर चर्चा शुरु से वर्जना का विषय रहा है और जिसका नतीजा यह है कि लोगों के बीच एड्स को लेकर भ्रम की स्थिति है। यही नहीं समाज में इस बीमारी से ग्रसित लोगों से असहिष्णुता का व्यवहार किया जाता है। यह मानवता के विरुद्ध है। हालांकि अब लोगों में एड्स और इससे पीड़ि़त लोगों को लेकर जागरुकता और संवेदनशीलता दोनों बढ़ी है। आमजन को समझना होगा कि एड्स स्वयं में कोई रोग नहीं बल्कि एक संलक्षण है जो मनुष्य की अन्य रोगों से लड़ने की क्षमता को घटा देता है। बेहतर होगा कि संयुक्त राष्ट्र संघ, विश्व के सभी देश एवं स्वयंसेवी संस्थाएं एड्स की रोकथाम के लिए लोगों को जागरुक बनाएं और साथ ही प्रभावी इलाज की व्यवस्था सुनिश्चत करें।

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