आफ़त में है ज़िन्दगी, उलझे हैं हालात।
कैसा यह जनतंत्र है, जहां न जन की बात।।
नेता जी हैं मौज में, जनता भूखी सोय।
झूठे वादे सब करें, कष्ट हरे ना कोय।।
हंसी-ठिठोली है कहीं, कहीं बहे है नीर।
महंगाई की मार से, टूट रहा है धीर।।
मौसम देख चुनाव का, उमड़ा जन से प्यार।
बदला-बदला लग रहा, फिर उनका व्यवहार।।
राजनीति के खेल में, सबकी अपनी चाल।
मुद्दों पर हावी दिखे, जाति-धर्म का जाल।।
आंखों का पानी मरा, कहां बची है शर्म।
सब के सब बिसरा गए, जनसेवा का कर्म।।
जब तक कुर्सी ना मिली, देश-धर्म से प्रीत।
सत्ता आयी हाथ जब, वही पुरानी रीत।।
एक हि सांचे में ढले, नेता पक्ष-विपक्ष।
मिलकर लूटे देश को, मक्कारी में दक्ष।।
लोकतंत्र के पर्व का, खूब हुआ उपहास।
दागी-बागी सब भले, शत्रु हो गए खास।।
रातों-रात बदल गए, नेताओं के रंग
कलतक जिसके साथ थे, आज उसी से जंग
मौका आया हाथ में, दूर करें संताप।
फिर बहुत पछताएंगे, मौन रहे जो आप।।
जांच-परख कर देखिए, किसमें कितना खोट।
सोच-समझ कर दीजिए, अपना-अपना वोट।।