विविधा

अलोकतांत्रिक है दंगा विरोधी बिल

पीयूष द्विवेदी

download (1)वर्तमान समय देश में चुनावी मौसम वाला है। इस वर्ष पाँच राज्यों में विधानसभा चुनाव तथा अगले वर्ष लोकसभा चुनाव होने हैं। अतः इन चुनावों के मद्देनजर अब सत्तारूढ़ कांग्रेस तथा मुख्य विपक्षी दल भाजपा समेत सभी छोटे-बड़े दलों द्वारा जनता को लुभाने के लिए अपनी-अपनी क्षमतानुसार अनेकानेक प्रयास किए जा रहे हैं। अब जहाँ विपक्ष द्वारा जनता को आकर्षित करने के लिए वादे तथा सत्तापक्ष की आलोचना की जा रही है तो वहीँ सत्तापक्ष द्वारा अपनी उपलब्धियों की लंबी फेहरिस्त जनता के सामने रखने के साथ-साथ अपना वोट बैंक बढ़ाने के लिए और भी तमाम तरह की कोशिशें की जा रही हैं। सतापक्ष की इन्ही कोशिशों का एक हिस्सा है दंगा विरोधी बिल । उल्लेखनीय होगा कि सरकार द्वारा आज से दो साल पहले सन २०११ में भी इस बिल को लाने की कोशिश की गई थी, लेकिन तमाम राजनीतिक दलों के भारी विरोध के चलते तत्कालीन दौर में सरकार को ये विधेयक वापस लेना पड़ा था । पर अब पुनः सरकार इस विधेयक को संसद में पेश करने और पारित करवाने की तैयारी में लग चुकी है । सरकार के इस विधेयक को देश को तोड़ने वाला कहते हुए मुख्य विपक्षी दल भाजपा द्वारा इसका विरोध किया गया है । कारण कि जिन प्रावधानों के कारण २०११ में इस विधेयक को भाजपा समेत तमाम राजनीतिक दलों के विरोध का सामना करना पड़ा था, वो प्रावधान अब भी इसमें यथावत मौजूद हैं, अतः वर्तमान में भाजपा के विरोध को समझा जा सकता है । पर सत्तारूढ़ कांग्रेस इसबार पीछे हटने के मूड में नही दिख रही । वो अपने धर्मनिरपेक्षता के राग के सहारे इस विधेयक को लेकर आगे बढ़ना चाहती है । इसी क्रम में सत्तापक्ष के समर्थन और विपक्ष के विरोध के बीच ‘साम्प्रदायिक और लक्षित हिंसा निरोधक’ नामक इस दंगा विरोधी बिल के प्रावधानों को समझने का प्रयास करें तो स्पष्ट होता है कि ये विधेयक बहुसंख्यक समुदाय का विरोधी होने के साथ-साथ अल्पसंख्यकों को असीमित अधिकार देने वाला भी है । साथ ही, इस आशंका से भी इंकार नही किया जा सकता कि ये विधेयक कानूनी जामा पहनने की स्थिति में अल्पसंख्यकों के लिए बहुसंख्यकों के विरुद्ध इस्तेमाल होने वाले एक अकाट्य हथियार की तरह भी हो जाएगा । अधिक क्या कहें, इस विधेयक का मूल मत ही ये है कि किसी भी दंगे में बहुसंख्यक उत्पीड़क होते हैं जबकि अल्पसंख्यक सदैव पीड़ित होते हैं । वैसे इस संदर्भ में दंगों के इतिहास पर एक संक्षिप्त दृष्टि डालें तो बीसवी सदी के उत्तरार्ध में हुए मेरठ, मुज़फ्फरनगर, भागलपुर आदि दंगों की जांच में यही पाया गया है कि इनको भड़काने में अल्पसंख्यक समुदाय की ही प्रथम भूमिका रही है । लिहाजा इस विधेयक की ये काल्पनिक मान्यता समझ से परे है कि बहुसंख्यक हिंसक और दंगाई प्रवृत्ति के होते हैं और निरपवाद रूप से दंगों की शुरुआत उन्हीके द्वारा होती है । दुखद ये है कि इसी मूल सिद्धांत के आधार पर इस विधेयक के सभी प्रावधान बनाए गए हैं । इस विधेयक के कुछ महत्वपूर्ण प्रावधान यों हैं कि कोई भी अल्पसंख्यक इस क़ानून के तहत बहुसंख्यक समुदाय के व्यक्ति पर सांप्रदायिक सौहार्द बिगाड़ने सम्बन्धी आरोप लगा सकेगा और उस आरोप के आधार पर उस व्यक्ति की गिरफ़्तारी भी हो सकेगी, पर किसी बहुसंख्यक को अल्पसंख्यकों पर ऐसे आरोप लगाने का अधिकार नही होगा । इन प्रावधानों को देखते हुए समझा जा सकता है कि ये विधेयक पूरी तरह से निराधार, अन्यायपूर्ण, संविधान विरोधी और सत्तापक्ष द्वारा की जा रही समुदाय विशेष के तुष्टिकरण की राजनीति से प्रेरित है । कुल मिलाकर इस विधेयक के संदर्भ में अगर ये कहें तो अतिशयोक्ति नही होगी कि ये विधेयक दंगा विरोधी नही, संप्रदाय विरोशी है, हिंदू विरोधी है ।

भारतीय संविधान के अनुच्छेद १४-१६ में भारतीय सीमा के अंतर्गत सभी व्यक्तियों के लिए जाति, धर्म, नस्ल आदि के भेदभाव से परे समान रूप से कानूनी संरक्षण की बात कही गई है । पर दंगा विरोधी विधेयक के प्रावधानों को देखते हुए तो यही लगता है कि शायद हमारे सियासतदार अपने वोट बैंक की राजनीति को चमकाने के चक्कर में संविधान में वर्णित समानता के इस सिद्धांत को भूल गए हैं । अगर ऐसा नही होता तो एक लोकतांत्रिक राष्ट्र में ऐसे किसी भी क़ानून की कल्पना के लिए भी स्थान नही हो सकता जिसमे कि बिना किसी प्रामाणिकता और तर्क के सिर्फ बहुसंख्यक होने के कारण किसी व्यक्ति को पूर्व में ही अपराधी घोषित कर दिया जाए । बेशक अभी ये विधेयक ना संसद में पेश हुआ है और न ही इसपर कोई चर्चा ही हुई है । पूरी संभावना है कि लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं से होते हुए इसके संसद में पेश होने तथा संसद में चर्चा आदि के दौरान इसमे व्यापक बदलाव हो सकते हैं । पर फिर भी वर्तमान में सवाल यही उठता है कि इस विधेयक पर सरकार एक संतुलित रुख अपनाने की बजाय इसके बचाव में क्यों खड़ी है ? आज जब विश्व में भारत अपनी लोकतांत्रिक आस्था और संविधान के प्रति अपनी सत्निष्ठा के लिए जाना जाता है, तब इस दंगा विरोधी बिल जैसे संविधान विरोधी क़ानून की संकल्पना सरकार द्वारा आखिर क्या सोचकर की गई है ? उल्लेखनीय होगा कि इस विधेयक के वर्तमान प्रावधान सोनिया गाँधी की अध्यक्षता वाली राष्ट्रीय सलाहकार समिति के सुझावों पर आधारित हैं । लिहाजा सोचने वाली बात है कि आखिर किन लोगों द्वारा और किस आधार पर ये सुझाव दिए गए, तिसपर समिति द्वारा ये मान्य कैसे हो गए ? इनकी मान्यता का आधार क्या है ? इन बातों का सरकार की तरफ से अबतक कोई पुख्ता जवाब नही आया है और आना भी मुश्किल है । क्योंकि ये वो प्रश्न हैं जिनका कोई भी तर्कपूर्ण उत्तर फ़िलहाल तो नही दिखता । अतः सही होगा कि वोट बैंक की राजनीति से ऊपर उठते हुए हमारे सियासी हुक्मरान इस अन्यायपूर्ण व अलोकतांत्रिक विधेयक का बचाव करने की बजाय इसपर पुनर्विचार करें और सही ढंग से इसमे ऐसे प्रावधानों को शामिल करे जो दंगा विरोधी हों, संप्रदाय विरोधी नहीं ।