वैदिक साहित्य का एक महत्वपूर्ण ग्रन्थ पुरुषार्थ प्रकाश

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ओ३म्

मनमोहन कुमार आर्य,

      वैदिक आर्य साहित्य में ‘पुरुषार्थ प्रकाश’ ग्रन्थ का अपना महत्व है। यह ग्रन्थ श्री स्वामी विश्वेश्वरानन्द जी और श्री ब्र. नित्यानन्द जी ने सन् 1914 से पूर्व कभी लिखा था। स्वामी विश्वेश्वरानन्द जी और ब्र. नित्यानन्द जी ने यह ग्रन्थ शाहपुराधीश महाराज नाहरसिंह जी की प्रेरणा से लिखा था। इसका द्वितीय संस्करण रामलाल कपूर न्यास, बहालगढ़, सोनीपत-हरयाणा से सन् 1988 में प्रकाशित किया गया था। इस ग्रन्थ की 1000 प्रतियां प्रकाशित की गई थी। वर्तमान में भी यह महत्वपूर्ण ग्रन्थ रामलाल कपूर न्यास से मात्र रू. 125.00 मूल्य पर सुलभ है। ग्रन्थ का प्रकाशकीय आर्य साहित्य के उच्च कोटि के विद्वान महामहोपाध्याय पं. युधिष्ठिर मीमांसक जी ने लिखा है। अनेक महत्वपूर्ण बातें पं. मीमांसक जी ने इस प्रकाशकीय में प्रस्तुत की है। वह लिखते हैं कि स्व. श्री स्वामी विश्वेश्वरानन्द जी और श्री ब्र. नित्यानन्द जी द्वारा विरचित पुरुषार्थ-प्रकाश, जिसे शाहपुराधीश श्री नाहरसिंह वर्मा महाराज के निर्देश से स्वीय राजकुमारों के लिये लिखा था, को श्रीमती सावित्री देवी बागड़िया न्यास, कलकत्ता की ओर से प्रकाशित कर रहे हैं। पुरुषार्थ-प्रकाश में ब्रह्मचर्य और गृहस्थाश्रम नाम के दो प्रकरण हैं। इनमें इन विषयों पर वेदादि सच्छास्त्रों के आधार पर विस्तार से प्रकाश डाला है। मानव जीवन के धर्म अर्थ काम और मोक्ष इन पुरुषार्थ चतुष्टयों के ये दो आश्रम प्रधान सोपान हैं। पुस्तक अत्यन्त महत्वपूर्ण एवं समादरणीय है। मीमांसक जी आगे लिखते हैं कि पुरुषार्थ-प्रकाश का जो संस्करण हमारे पास है वह वि0स0. 1971 (सन् 1914) का छपा हुआ है। सम्भवतः इसके अनन्तर इसका कोई संस्करण प्रकाशित नहीं हुआ। यह महत्वपूर्ण ग्रन्थ चिरकाल से अप्राप्य था। अतः इसे मानवमात्र के लिये सुलभ कराने की दृष्टि से प्रकाशित किया जा रहा है। प्रचारार्थ वर्तमान मंहगाई के काल में मूल्य भी यथासम्भव न्यून रखा है। पं. युधिष्ठिर मीमांसक जी आगे लिखते हैं कि इस ग्रन्थ में जिन प्राचीन ग्रन्थों के शतशः प्रमाण उद्धृत किये गये हैं उन्हें मूलभूत ग्रन्थों से मिलाकर शुद्ध छापने का प्रयत्न किया गया है। अन्य कुछ महत्वपूर्ण बातें भी मीमांसक जी ने लिखी है। प्रकाशकीय के अन्त में वह लिखते हैं कि आशा है पाठक महानुभाव इस परम उपयोगी ग्रन्थ के अधिक से अधिक प्रचार में सहयोग प्रदान करेंगे जिससे मानव समाज अपने पुरुषार्थ चतुष्टय को प्राप्त करने में सफल होंवे।

 

प्रकाशकीय के बाद पुस्तक में लेखकद्वय की लिखी हुई चार पृष्ठीय भूमिका दी गई है। भूमिका के आरम्भ में यजुर्वेद, छान्दोग्य उपनिषद, सांख्य दर्शन, वेदान्तदर्शन, पारस्कर गृह्यसूत्र आदि अनेक ग्रन्थों के श्लोक व सूत्र आदि देकर लेखकद्वय कहते हैं कि यह तो प्रत्यक्ष ही है कि इस संसार में साम्प्रत एतछ्देशनिवासी लोग विद्या, बल, बुद्धि, वीर्य, पराक्रम, शरीर, सम्पत्ति, धनधान्य, राज्य ऐश्वर्य आदि सांसारिक व पारमार्थिक परमोत्तम सुखों से सर्वथा वंचित रह कर, दीन धनहीन मनमलीन होकर, नाना प्रकार के दुःसह दुःखों का अनुभव करते हैं। इन उभय सुखों से वंचित रखने ओर अनेक दुःखों के देनेवाले भयंकर कुरोग का जब तक निदान ज्ञात न हो तब तक इस रोग व रोगजन्य दुःखों की निवृत्ति और उभय सुखों की प्राप्ति का होना नितान्त असम्भव है। इसके आगे लेखक कहते हैं कि वेदादि सत् शास्त्रों व प्रत्यक्षादि प्रमाणों के द्वारा विचार करने से इस भयंकर रोग का निदान (मूलकारण) अविद्याजन्य आलस्यादि दुर्व्यसनों में फंसकर सद्वैदिक पुरुषार्थपथ का परित्याग करना ही ज्ञात होता है। यद्यपि ‘कुर्व्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छतंसमाः’ इत्यादिक वेदवाक्यों से व सृष्टिक्रम के उदाहरणों से जगन्नियन्ता जगदीश्वर ने मनुष्यों का स्वकर्तव्य कर्म करने का उपदेश किया है, परन्तु ‘‘यही चिन्ह अज्ञान के जो माने कर्तव्य, सोई ज्ञानी सुधड़ नर नहीं जाको भवितव्य” (विचारसा0-1) इत्यादि कुशिक्षाओं के कारण से मूर्ख लोग ईश्वरेच्छा, प्रारब्ध, काल, ग्रह, देवी, देवता, भूत, प्रेत, पिशाच, भैरूं (भैरव) भोपा, मन्त्र, जन्त्र, जादू, टोना, तीर्थाटन भिक्षा, कीमियां, रसायन आदि पुरुषार्थ के बाधक और दुःखालस्य के साधक मिथ्या भ्रमजालों में फंस के पुरुषार्थ से विमुख होकर, अपने मनुष्य जन्म को नष्ट भ्रष्ट कर देते हैं। परन्तु बुद्धिमान् मनुष्यों को विचारना चाहिये कि जिन गृहों में रहते हैं, जिन वस्त्रों को पहिनते हैं, जिन रोटियों को खाते हैं, जिन पात्रों से जल पीते हैं, जिन शयाओं पर सोते हैं, जिन पुस्तकों को पढ़ते हैं, जिन शस्त्रों से लड़ते हैं, जिन हलों से खेत खड़ते हैं, और जिन रेलादि यानों पर चढ़ते हैं, ये सब पदार्थ पुरुषार्थ से ही बने हैं।

 

पुस्तक के महत्व का उल्लेख करते हुए लेखक कहते हैं कि श्रीमानों (महाराज नाहरसिंह जी) की इस सूचना के अनुसार हमने यथामति पुरुषार्थ प्रकाश का निर्माण किया। इस पुरुषार्थ-प्रकाश में तीन प्रकरण हैं जैसे ब्रह्मचर्य, गृहस्थाश्रम, और राज्यप्रकरण। इन तीनों प्रकरणों में से दो प्रकरण छपे हैं, और तृतीय प्रकरण किंचित् कालान्तर में मुद्रित होगा। इस पुस्तक में केवल मनुष्यों के पुरुषार्थ का वर्णन किया है, इसलिये इस पुस्तक का नाम पुरुषार्थ-प्रकाश रक्खा है। आगे लेखक कहते हैं कि इस ग्रन्थ के बांचने का मुख्य प्रयोजन यही है कि सामान्यतः सर्व मनुष्यों को और विशेषतः विद्यार्थियों को स्वकर्तव्य का बोध कराकर पुरुषार्थ का वास्तविक स्वरूप जनाकर अविद्याजन्य कुशिक्षोद्भव आलस्य आदि दुर्व्यसनों से हटाकर कर्तव्यबुद्धि के प्रादुर्भाव द्वारा सद्वैदिक पुरुषार्थ पथ में प्रवृत्त कर देना आदि है, अस्तु। भूमिका के बाद शाहपुरा राज्य का संक्षिप्त इतिहास तथा संक्षेप में उद्धृत ग्रन्थों के संकेतों के विषय में बताया गया है। ग्रन्थ संकेत के बाद ग्रन्थ विषयक विस्तृत विषयसूची है।

 

पुस्तक में आरम्भ के प्रकाशकीय, भूमिका, ग्रन्थ संकेत विवरण तथा विषय सूची आदि के बाद पृष्ठ 1 से 256 तक पृष्ठ है। पृष्ठ 1 से 85 तक ब्रह्मचर्य प्रकरण है तथा पृष्ठ 86 से 250 तक गृहस्थाश्रम प्रकरण है। बाद के 6 पृष्ठों में रामलाल कपूर न्यास के प्रकाशनों का सूची पत्र दिया गया है। ब्रह्मचर्यप्रकरण व गृहस्थाश्रम प्रकरण का सूची पत्र भी हमें महत्वपूर्ण लगता है। इसके आरम्भिक कुछ विषयों को प्रस्तुत करते हैं। ब्रह्मचर्य प्रकरण में ईश्वरस्तुति प्रार्थना उपासनापूर्वक संक्षेप से ईश्वर-जीव स्वरूप का प्रतिपादन तथा अन्य प्राणियों से मनुष्य की श्रेष्ठता, मनुष्य के प्रथम कर्तव्य का कथन व ब्रह्मचर्य और ब्रह्मचारी शब्द की निरुक्ति, ब्रह्मचर्य में अनेक प्रमाण और उसके लाभ, विद्या अविद्या के लक्षण और विद्या के लाभ, विद्याप्राप्ति का उपाय, पढ़ने से ही विद्या आती है मन्त्र जपादि से नहीं, आचार्य और गुरु किसको कहते हैं और वे कितने प्रकार के हैं, गुरु तथा आचार्य आदि के लक्षण, झूठे गुरुओं का निषेध और त्रिधा धर्मसेवन का कथन आदि। गृहस्थाश्रम प्रकरण की विषय सूची में समावर्त्तन का समय व अध्ययनान्तर ब्रह्मचारी ब्रह्मचारिणी के विवाह, अष्टवर्षा भवेत् गौरी आदि श्लोकों के खण्डनपूर्वक सेतिहास प्रमाणों से युवावस्था में स्वयंवर विवाह का विषय, राजर्षि ब्रर्ह्षियों के अनेक पुत्र पुत्रियों का विवाह न करना, बाल विवाह न्याय तथा सृष्टिक्रम से विरुद्ध है, बालविवाह से अनेक हानियां, एक पति पत्नी व्रत की आज्ञा, विवाह शब्द की निरुक्ति और वैवाहिक मन्त्रों का तात्पर्थ्य आदि अनेक विषय सम्मिलित है। इस पुस्तक को पढ़कर पाठक महानुभाव को इन कुछ विषयों व ऐसे अनेक विषयों जो पुस्तक में हैं, का यथार्थ ज्ञान उपलब्ध होता है।

 

ब्रह्मचर्य प्रकरण के अन्तर्गत पृष्ठ 29 पर शास्त्र प्रमाणों के उल्लेख के साथ वर्णन है कि मुक्ति का साधन केवल विद्या ही है। विद्या से अतिरिक्त और कोई भी मुक्ति का साधन नहीं है। इसी विषय को व्यास जी ने एक सूत्र में पुष्ट किया है। उनके अनुसार वेद भी विद्या से ही मुक्ति प्राप्ति का विधान करते हैं। इसी प्रकार कामधेनु के सदृश सर्वदा फलप्रद और माता के समान विदेश में सब सुखों को देने वाली विद्या ही है। यह विद्या एक प्रकार का गुप्त धन है। इस विद्या के बिना कुत्ते की पूंछवत् मनुष्य का जीवन सर्वथा व्यर्थ है जैसे कुत्ता अपनी पूंछ से न तो डांस आदि को उड़ा सकता है और न गुह्य अंगों को ही ढांप सकता है। ऐसे ही विद्या के बिना मनुष्य भी किसी महत्कार्य को नहीं कर सकता। इतना ही नहीं किन्तु ‘विद्याविहीनः पशुः’ भतृहरि। अर्थात् विद्या के विना मनुष्य पशु के सामन है। अतः हम सर्व मनुष्यों से निवेदन करते हैं कि इस पशु पंक्ति से निकल कर विद्याभ्यास करके अभ्युदय व निःश्रेयस को प्राप्त हूजिये। गृहस्थाश्रम प्रकरण से भी हम सुभा0प्र02 प्रमाणों के अर्न्तत उद्धृत तीन श्लोकों का अर्थ यहां प्रस्तुत कर इस लेख को विराम देते हैं। लेखकद्वय लिखते हैं कि धन को चाहने वाला पुरुष पिता आदि सम्बन्धियों का परित्याग करके श्मशान का भी सेवन करने लगता है। इस धन के मद से पुरुष अपने हितकारी भक्तजनों से द्वेष, जड़ दुष्ट मनुष्यों से प्रीति और गुरु आदि माननीय पुरुषों के वचनों का निरस्कार करने लगता है तथा ज्वरग्रस्त पुरुष के सदृश धनवान् का मुख सर्वदा कटु व कडुआ ही रहता है अर्थात् धनिक पुरुष मुख से सर्वदा कटु वचन बोला करता है। इतना ही नहीं किन्तु धनरूप रोग मनुष्य की ऐसी दशा कर देता है कि कानों से किसी की बात नहीं सुनता। यदि कोई कुछ पूछे तो उसका उत्तर नहीं देता और कोई सम्मुख आवे तो आंख से उसको देखता भी नहीं। जैसे लकवे के रोग से मनुष्य का शरीर टेढ़ा हो जाता है ऐसे ही धनरूप रोग से भी मनुष्य संसार भर से टेढ़ा हो जाता है। इस धन से मनुष्य नाना प्रकार के कुकर्म भी करने लगते हैं। इसलिये बुद्धिमानों को धनजन्य उपद्रवों से बचकर सज्जनतापूर्वक सब उत्तमोत्तम व्यवहार करने चाहियें, वर्तमान समय में अनेक नवशिक्षित धर्माधर्म की ओर ध्यान न देकर ‘टकाधर्मः टकाकर्म’ मान के धर्माधर्म का विचार न करते हुए अनेक कुकर्मों से धन को बटोर के खाने पीने और चैन उड़ाने में लगे रहते हैं परन्तु केवल ऐश आराम के लिये अधर्म से धनको एकत्र करना शास्त्र विरुद्ध है।

 

पुरुषार्थ प्रकाश ग्रन्थ अनेक महत्वपूर्ण गुणों से युक्त है। मीमांसक जी ने इस ग्रन्थ को परम उपयोगी ग्रन्थ लिखा है। यही गुण 30 वर्ष पूर्व इसके प्रकाशन का कारण भी बना था। हमें लगता है कि जो भी पाठक इसका अध्ययन करेगा वह अवश्य अपने ज्ञान में वृद्धि को प्राप्त होगा। आर्यजगत में विगत तीस वर्षों में इस ग्रन्थ की एक हजार प्रतियां भी खप नहीं सकी। इसी से यह अनुमान किया जा सकता है कि आर्यसमाज में स्वाध्यायशील पाठक कितने हैं? हम अनुभव करते हैं जिस समाज में अपने विद्वानों के साहित्य के स्वाध्याय की उपेक्षा होती है, वह प्रगति व उन्नति को प्राप्त नहीं हो सकता। केवल यदा कदा कुछ प्रवचन आदि सुन लेने व छुटपुट लेख आदि पढ़ लेने से अधिक लाभ नहीं होता। ऋषियों व वेद की आज्ञा है कि हम स्वाध्याय से कभी प्रमाद न करें। प्रमाद करने से हमारी ही हानि होगी। हमारे ऋषियों व विद्वानों ने जो ग्रन्थ लिखे हैं वह सबके स्वाध्याय व आचरण के लिए ही लिखे हैं। आज स्वाध्याय की सर्वत्र उपेक्षा हो रही है और धनोपार्जन ही मुख्य कर्तव्य कर्म बन गया है। इस प्रवृत्ति ने समाज में असमानता एवं अनेक विकृत्तियां उत्पन्न कर दी हैं। मुख्य विकृति तो यह हुई है कि मनुष्य अपने मुख्य लक्ष्य धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष से दूर हुआ है। ईश्वरोपासना व यज्ञ आदि भी कम लोग ही करते हैं। ऐसी स्थिति में हम निवेदन करते हैं कि पुरुषार्थ प्रकाश सहित उच्च कोटि के विद्वानों के ग्रन्थों का अध्ययन किया करें। महर्षि दयानन्द जी के सभी ग्रन्थों व साहित्य को अध्ययन व स्वाध्याय में प्रमुख स्थान दें। इससे इस जन्म व जन्मान्तरों में भी लाभ होने की पूरी पूरी सम्भावना है। ओ३म् शम्।

 

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