धरातल के आईने में टीम अन्ना का ‘चुनावी बिगुल’

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तनवीर जाफरी

टीम अन्ना द्वारा छेड़ी गई भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम अपने निर्णायक दौर से गुज़रती नज़र आ रही है। गत् 2 अगस्त(बृहस्पतिवार) अर्थात् अन्ना हज़ारे व उनके सहयोगियों द्वारा जंतरमंतर पर आयोजित अनिश्चितकालीन अनशन के नौवें दिन भी जब केंद्र सरकार द्वारा टीम अन्ना से उनकी मांगों के संबंध में कोई विचार-विमर्श नहीं किया गया, न ही इस बार उनके अनशन को सरकार द्वारा कोई विशेष महत्व दिया गया, ऐसे में अन्ना हज़ारे व उनके कुछ वफादार अनशनकारी सहयोगियों के स्वास्थय के प्रति चिंता जताते हुए देश के कई पूर्व आलाअधिकारियों, फ़िल्म जगत की हस्तियों, पूर्व न्यायधीशों तथा कई प्रतिष्ठित सामाजिक संगठनों के लोगों द्वारा लिखित रूप से न केवल अन्ना हज़ारे को उनके द्वारा छेड़ी गई मुहिम के लिए समर्थन दिया गया बल्कि उनसे यह आग्रह भी किया गया कि वे सरकार से अपनी बात मनवाने के बजाए स्वयं सरकार का व संसद का अंग बनने की दिशा में कार्य करें और अपने स्वास्थय को देखते हुए अपना अनशन समाप्त कर दें। इस अपील पर हस्ताक्षर करने वालों में मुख्य रूप से जस्टिस वी आर कृष्णाअय्यर, पूर्व एडमिरल राम तहलियानी,पूर्व सेनाध्यक्ष जनरल वीकेसिंह, पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त जे एम लिंगदोह,जस्टिस संतोष हेगड़े, संदीप पांडेय तथा अभिनेता अनुपम खेर आदि के नाम प्रमुख हैं। लगता है केंद्र सरकार की ओर से अपने अनशन के प्रति अनदेखी का सामना कर रही टीम अन्ना को देर से ही सही मगर आख़िरकार यह बात समझ आ गई है कि वे अपनी मर्ज़ी का हूबहू जनलोकपाल विधेयक या अपनी पसंद का भ्रष्टाचार विरोधी कोई दूसरा कानून संसद में तभी पारित करवा सकते हैं जबकि वे स्वयं इस राजनैतिक व्यवस्था का एक अंग हों।

बहरहाल, टीम अन्ना द्वारा इस दिशा में कदम उठाया जाना निश्चित रूप से अपेक्षित था। टीम अन्ना के मिशन जनलोकपाल के आलोचक भी प्राय: चर्चा के दौरान व अपने आलेख के माध्यम से उन्हें यह सुझाव देते रहते थे कि यदि उन्हें विश्वास है कि पूरा देश भ्रष्टाचार से त्राहि-त्राहि कर रहा है और वह व उनकी टीम उस भ्रष्टाचार प्रभावित भारतीय समाज की नुमाईंदगी करती है तो उन्हें भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था तथा भारतीय संविधान का सम्मान करते हुए चुनाव प्रक्रिया में शामिल होना चाहिए। ऐसा लगता है कि अब टीम अन्ना के सदस्य 2014 में होने वाले संसदीय चुनावों में अपनी भागीादारी सुनिश्चित करने की संभावनाओं की तलाश करेंगे। ज़ाहिर है इसके लिए उनके पास कई विकल्प मौजूद हैं। एक तो यह कि टीम अन्ना स्वयं अपना राष्ट्रव्यापी राजनैतिक दल गठित करे और अन्य राजनैतिक दलों की ही तरह वह भी अपने प्रत्याशी चुनाव मैदान में उतारे। दूसरा यह कि चुनाव मैदान में उतरे किसी ईमानदार व्यक्ति को अपना समर्थन देकर उसे विजयी बनाने की कोशिश करे। और तीसरा यह कि पारंपरिक राजनैतिक दलों द्वारा खड़े किए गए उनके प्रत्याशियों में से ही किसी एक अच्छे, ईमानदार व उनके मुद्दों के पक्ष में संसद में आवाज़ उठाने वाले प्रत्याशी को अपना समर्थन देकर उसे विजयी बनवाने की कोशिश करे।

जहां तक राष्ट्रीय स्तर पर राजनैतिक दल बनाने व उस नए राजनैतिक दल के चुनाव मैदान में उतरने का सवाल है तो निश्चित रूप से यह एक टेड़ी खीर मालूम होती है। क्योंकि यहां यह बताने की ज़रूरत नहीं कि संसदीय चुनाव लडऩे हेतु कितना पैसा, कितना साधन, कितना बाहुबल तथा कितने छल-कपट व तिकड़मबाजि़यों की आवश्यकता होती है। और इनमें से कोई भी चीज़ सीधे रास्ते से चलकर हासिल नहीं की जा सकती। ज़ाहिर है यदि टीम अन्ना अपना राजनैतिक दल बनाकर स्वयं इन्हीं पारंपरिक राजनैतिक दलों पर चढ़े रंगों में खुद को भी रंग ले तो आखिर इस नए राजनैतिक दल के गठन का लाभ ही क्या होगा? यदि टीम अन्ना भी दूसरे तमाम राजनैतिक दलों की ही तरह ख़ुद भी चुनाव जीतने हेतु साम-दाम, दंड-भेद का प्रयोग करने लगी तो वह अपने आपको अन्य दलों से भिन्न कैसे रख सकेगी? वैसे भी राष्ट्रीय स्तर की राजनैतिक पार्टी का गठन करना और इसे संचालित करना और वह भी ईमानदारी के पक्ष तथा भ्रष्टाचार के विरोध का परचम हाथ में लेकर शायद इतना आसान नहीं है। कुछ ऐसी ही परेशानियां टीम अन्ना को ईमानदार व साफ-सुथरी छवि रखने वाले उन प्रत्याशियों का समर्थन करने में भी आ सकती हैं जोकि विभिन्न संसदीय क्षेत्रों से स्वेच्छा से चुनाव लड़ रहे हों।

हालांकि टीम अन्ना के सदस्यों द्वारा स्वयं को संसदीय लोकतंत्र का हिस्सा बनाए जाने के लिए आम लोगों से राय तलब की जा रही है। इसके लिए वे आधुनिक संचार व्यवस्था का प्रयोग करते हुए निजी टीवी चैनल पर एसएमएस व फेसबुक के द्वारा तथा अपनी संस्था इंडिया अगेंस्ट कॉरप्पशन के मोबाईल नंबर पर एसएमएस मांग कर ले रह हैं। यहां यह कहना ग़लत नहीं होगा कि हमारे देश में मात्र दस प्रतिशत जनता ही इस प्रकार की आधुनिक संचार सुविधाओं या सोशल साईटस या एसएमएस आदि का प्रयोग करती है। लिहाज़ा इन संचार माध्यमों के द्वारा ही टीम अन्ना को मिलने वाला समर्थन राष्ट्रव्यापी समर्थन होगा इस बात पर भी संदेह है। परंतु इसमें भी कोई शक नहीं कि शहरी जनता इस समय अन्ना हज़ारे के आंदोलन के साथ खड़ी दिखाई दे रही है। और इसमें भी कोई संदेह नहीं कि देश का आम आदमी तथा देश का भविष्य समझा जाने वाला छात्र एवं युवा वर्ग पूरे देश की व्यवस्था में व्याप्त भ्रष्टाचार से बेहद दु:खी व परेशान है। और यह भी सच है कि आम लोग इस भ्रष्टाचार से मुक्त होना चाहते हैं। परंतु अफ़सोस इसी बात का है कि भ्रष्टाचार से निजात दिलाने वाली संस्था भ्रष्टाचारियों के समक्ष अपने घुटने टेक चुकी है तथा भ्रष्टाचार में डूबे लोग स्वयं ही इस व्यवस्था का एक प्रमुख अंग बन चुके हैं।

इसके अतिरिक्त टीम अन्ना को संसदीय लोकतांत्रिक व्यवस्था में सहभागी बनने के लिए अपने ही एक और ‘सहयोगी’ बाबा रामदेव से भी तालमेल बिठाना पड़ सकता है। कहने को तो वे भी भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम छेड़े हुए हैं। परंतु उनका मुख्य मुद्दा विदेशों में जमा भारतीय काले धन को वापस लाने तक ही केंद्रित है। जबकि अन्ना हज़ारे व उनके सहयोगी जनलोकपाल विधेयक पारित करवाकर संसद से एक ऐसा कानून बनवाने के पक्षधर हैं जिसके अंतर्गत् प्रधानमंत्री सहित किसी भी मंत्री,सांसद या अधिकारी के विरुद्ध लगने वाले भ्रष्टाचार के आरोप की जांच स्वतंत्र जनलोकपाल कर सके। बाबा रामदेव गत् कई वर्षों से इस बात का संकेत देते आ रहे हैं कि वे अपना राजनैतिक दल कभी भी खड़ा कर सकते हैं। भारत स्वाभिमान के नाम से उन्होंने अपना संगठन देश के काफी बड़े भाग में गठित भी कर लिया है। वे अपने योग ज्ञान द्वारा तैयार किए गए नेटवर्क तथा इसके द्वारा अर्जित की गई लोकप्रियता के बल पर ही अपने समर्थकों को अपने साथ जोडऩे तथा उसका राजनैतिक लाभ उठाने की कोशिश भी कर रहे हैं। साथ-साथ वे उसी वर्ग को आधार बनाकर स्वदेशी वस्तुएं बेचने के नाम पर अपने कारोबार का भी विस्तार कर रहे हैं। गोया रामदेव के मिशन में उनकी अपनी महत्वाकांक्षा सा$फ झलकती है। उसपर सोने में सुहागा यह कि उनके सहयोगी बालकृष्ण इन दिनों कई अपराधों के सिलसिले में जेल में हें। उच्चतम न्ययालय ने बालकृष्ण की ज़मानत अर्जी भी $खारिज कर दी है।

उपरोक्त हालात यह सोचने के लिए काफ़ी हैं कि बाबा रामदेव, अन्ना हज़ारे द्वारा संसदीय लोकतांत्रिक प्रक्रिया में भागीदारी के मुद्दे पर उनका साथ देते भी हैं या नहीं? और यदि साथ देते भी हैं तो किन शर्तों पर और यदि बाबा रामदेव अन्ना हज़ारे के साथ चुनाव मैदान में नज़र आए तो इससे अन्ना हज़ारे के मिशन को फ़ायदा होगा या नुक़सान? यह बात इसलिए भी काबिलेगौर है क्योंकि पिछले दिनों जब गुजरात में एक कार्यक्रम के दौरान बाबा रामदेव ने गुजरात के विवादित मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ एक मंच सांझा किया उस समय टीम अन्ना के कई सदस्यों ने इस पर घोर आपत्ति जताई थी। टीम अन्ना के कई सदस्यों का कहना था कि नरेंद्र मोदी अपने कई भ्रष्ट मंत्रियों का बचाव कर रहे हैं लिहाज़ा वे उनकी भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम के समर्थक नहीं हो सकते। जबकि कुछ का यह भी मत था कि लोकतांत्रिक तरीके से निर्वाचित किसी मुख्यमंत्री के साथ बैठने में आख़िर हर्ज भी क्या है।

बहरहाल, अन्ना हज़ारे का यह कहना कि ‘मैं राजनैतिक दल बनाने के पक्ष में हूं और देश को इस समय एक धर्मनिरपेक्ष राजनैतिक विकल्प की आवश्यकता है। उनका यह वक्तव्य निश्चित रूप से भारतीय राजनीति में खलबली पैदा करने वाला परंतु अपेक्षित वक्तव्य है। देश से भ्रष्टाचार को समाप्त किए जाने की प्रत्येक मुहिम व ऐसे प्रयासों का स्वागत किया जाना चाहिए तथा इन्हें अपना समर्थन भी दिया जाना चाहिए। इसमें कोई शक नहीं कि भ्रष्टाचार इस समय घुन की तरह देश को खाए जा रहा है। परंतु क्या टीम अन्ना के लिए पूरे देश में ईमानदारों,त्यागियों,तपस्वियों,धनलक्ष्मी से मुंह मोड़ कर रखने वालों की राष्ट्रव्यापी टीम तैयार करना संभव हो पाएगा? क्या टीम अन्ना द्वारा जंतरमंतर पर चुनावी प्रक्रिया में भाग लेने की मंशा के पक्ष में फूंका गया चुनाव प्रक्रिया में भाग लेने वाला बिगुल धरातल के आईने में उतना ही सफल,कारगर, प्रभावी तथा रचनात्मक रूप ले पाएगा जिसकी टीम अन्ना उम्मीद कर रही है? ज़ाहिर है यह सभी बातें 2014 के संसदीय चुनाव आते-आते आहिस्ता-आहिस्ता और स्पष्ट होती जाएंगी।

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  1. टीम अन्ना द्वारा छेड़ी गई भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम अपने निर्णायक दौर से गुज़रती नज़र आ रही है। गत् 2 अगस्त(बृहस्पतिवार) अर्थात् अन्ना हज़ारे व उनके सहयोगियों द्वारा जंतरमंतर पर आयोजित अनिश्चितकालीन अनशन के नौवें दिन भी जब केंद्र सरकार द्वारा टीम अन्ना से उनकी मांगों के संबंध में कोई विचार-विमर्श नहीं किया गया, न ही इस बार उनके अनशन को सरकार द्वारा कोई विशेष महत्व दिया गया, ऐसे में अन्ना हज़ारे व उनके कुछ वफादार अनशनकारी सहयोगियों के स्वास्थय के प्रति चिंता जताते हुए देश के कई पूर्व आलाअधिकारियों, फ़िल्म जगत की हस्तियों, पूर्व न्यायधीशों तथा कई प्रतिष्ठित सामाजिक संगठनों के लोगों द्वारा लिखित रूप से न केवल अन्ना हज़ारे को उनके द्वारा छेड़ी गई मुहिम के लिए समर्थन दिया गया बल्कि उनसे यह आग्रह भी किया गया कि वे सरकार से अपनी बात मनवाने के बजाए स्वयं सरकार का व संसद का अंग बनने की दिशा में कार्य करें और अपने स्वास्थय को देखते हुए अपना अनशन समाप्त कर दें। इस अपील पर हस्ताक्षर करने वालों में मुख्य रूप से जस्टिस वी आर कृष्णाअय्यर, पूर्व एडमिरल राम तहलियानी,पूर्व सेनाध्यक्ष जनरल वीकेसिंह, पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त जे एम लिंगदोह,जस्टिस संतोष हेगड़े, संदीप पांडेय तथा अभिनेता अनुपम खेर आदि के नाम प्रमुख हैं। लगता है केंद्र सरकार की ओर से अपने अनशन के प्रति अनदेखी का सामना कर रही टीम अन्ना को देर से ही सही मगर आख़िरकार यह बात समझ आ गई है कि वे अपनी मर्ज़ी का हूबहू जनलोकपाल विधेयक या अपनी पसंद का भ्रष्टाचार विरोधी कोई दूसरा कानून संसद में तभी पारित करवा सकते हैं जबकि वे स्वयं इस राजनैतिक व्यवस्था का एक अंग हों।

    बहरहाल, टीम अन्ना द्वारा इस दिशा में कदम उठाया जाना निश्चित रूप से अपेक्षित था। टीम अन्ना के मिशन जनलोकपाल के आलोचक भी प्राय: चर्चा के दौरान व अपने आलेख के माध्यम से उन्हें यह सुझाव देते रहते थे कि यदि उन्हें विश्वास है कि पूरा देश भ्रष्टाचार से त्राहि-त्राहि कर रहा है और वह व उनकी टीम उस भ्रष्टाचार प्रभावित भारतीय समाज की नुमाईंदगी करती है तो उन्हें भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था तथा भारतीय संविधान का सम्मान करते हुए चुनाव प्रक्रिया में शामिल होना चाहिए। ऐसा लगता है कि अब टीम अन्ना के सदस्य 2014 में होने वाले संसदीय चुनावों में अपनी भागीादारी सुनिश्चित करने की संभावनाओं की तलाश करेंगे। ज़ाहिर है इसके लिए उनके पास कई विकल्प मौजूद हैं। एक तो यह कि टीम अन्ना स्वयं अपना राष्ट्रव्यापी राजनैतिक दल गठित करे और अन्य राजनैतिक दलों की ही तरह वह भी अपने प्रत्याशी चुनाव मैदान में उतारे। दूसरा यह कि चुनाव मैदान में उतरे किसी ईमानदार व्यक्ति को अपना समर्थन देकर उसे विजयी बनाने की कोशिश करे। और तीसरा यह कि पारंपरिक राजनैतिक दलों द्वारा खड़े किए गए उनके प्रत्याशियों में से ही किसी एक अच्छे, ईमानदार व उनके मुद्दों के पक्ष में संसद में आवाज़ उठाने वाले प्रत्याशी को अपना समर्थन देकर उसे विजयी बनवाने की कोशिश करे।

    जहां तक राष्ट्रीय स्तर पर राजनैतिक दल बनाने व उस नए राजनैतिक दल के चुनाव मैदान में उतरने का सवाल है तो निश्चित रूप से यह एक टेड़ी खीर मालूम होती है। क्योंकि यहां यह बताने की ज़रूरत नहीं कि संसदीय चुनाव लडऩे हेतु कितना पैसा, कितना साधन, कितना बाहुबल तथा कितने छल-कपट व तिकड़मबाजि़यों की आवश्यकता होती है। और इनमें से कोई भी चीज़ सीधे रास्ते से चलकर हासिल नहीं की जा सकती। ज़ाहिर है यदि टीम अन्ना अपना राजनैतिक दल बनाकर स्वयं इन्हीं पारंपरिक राजनैतिक दलों पर चढ़े रंगों में खुद को भी रंग ले तो आखिर इस नए राजनैतिक दल के गठन का लाभ ही क्या होगा? यदि टीम अन्ना भी दूसरे तमाम राजनैतिक दलों की ही तरह ख़ुद भी चुनाव जीतने हेतु साम-दाम, दंड-भेद का प्रयोग करने लगी तो वह अपने आपको अन्य दलों से भिन्न कैसे रख सकेगी? वैसे भी राष्ट्रीय स्तर की राजनैतिक पार्टी का गठन करना और इसे संचालित करना और वह भी ईमानदारी के पक्ष तथा भ्रष्टाचार के विरोध का परचम हाथ में लेकर शायद इतना आसान नहीं है। कुछ ऐसी ही परेशानियां टीम अन्ना को ईमानदार व साफ-सुथरी छवि रखने वाले उन प्रत्याशियों का समर्थन करने में भी आ सकती हैं जोकि विभिन्न संसदीय क्षेत्रों से स्वेच्छा से चुनाव लड़ रहे हों।

    हालांकि टीम अन्ना के सदस्यों द्वारा स्वयं को संसदीय लोकतंत्र का हिस्सा बनाए जाने के लिए आम लोगों से राय तलब की जा रही है। इसके लिए वे आधुनिक संचार व्यवस्था का प्रयोग करते हुए निजी टीवी चैनल पर एसएमएस व फेसबुक के द्वारा तथा अपनी संस्था इंडिया अगेंस्ट कॉरप्पशन के मोबाईल नंबर पर एसएमएस मांग कर ले रह हैं। यहां यह कहना ग़लत नहीं होगा कि हमारे देश में मात्र दस प्रतिशत जनता ही इस प्रकार की आधुनिक संचार सुविधाओं या सोशल साईटस या एसएमएस आदि का प्रयोग करती है। लिहाज़ा इन संचार माध्यमों के द्वारा ही टीम अन्ना को मिलने वाला समर्थन राष्ट्रव्यापी समर्थन होगा इस बात पर भी संदेह है। परंतु इसमें भी कोई शक नहीं कि शहरी जनता इस समय अन्ना हज़ारे के आंदोलन के साथ खड़ी दिखाई दे रही है। और इसमें भी कोई संदेह नहीं कि देश का आम आदमी तथा देश का भविष्य समझा जाने वाला छात्र एवं युवा वर्ग पूरे देश की व्यवस्था में व्याप्त भ्रष्टाचार से बेहद दु:खी व परेशान है। और यह भी सच है कि आम लोग इस भ्रष्टाचार से मुक्त होना चाहते हैं। परंतु अफ़सोस इसी बात का है कि भ्रष्टाचार से निजात दिलाने वाली संस्था भ्रष्टाचारियों के समक्ष अपने घुटने टेक चुकी है तथा भ्रष्टाचार में डूबे लोग स्वयं ही इस व्यवस्था का एक प्रमुख अंग बन चुके हैं।

    इसके अतिरिक्त टीम अन्ना को संसदीय लोकतांत्रिक व्यवस्था में सहभागी बनने के लिए अपने ही एक और ‘सहयोगी’ बाबा रामदेव से भी तालमेल बिठाना पड़ सकता है। कहने को तो वे भी भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम छेड़े हुए हैं। परंतु उनका मुख्य मुद्दा विदेशों में जमा भारतीय काले धन को वापस लाने तक ही केंद्रित है। जबकि अन्ना हज़ारे व उनके सहयोगी जनलोकपाल विधेयक पारित करवाकर संसद से एक ऐसा कानून बनवाने के पक्षधर हैं जिसके अंतर्गत् प्रधानमंत्री सहित किसी भी मंत्री,सांसद या अधिकारी के विरुद्ध लगने वाले भ्रष्टाचार के आरोप की जांच स्वतंत्र जनलोकपाल कर सके। बाबा रामदेव गत् कई वर्षों से इस बात का संकेत देते आ रहे हैं कि वे अपना राजनैतिक दल कभी भी खड़ा कर सकते हैं। भारत स्वाभिमान के नाम से उन्होंने अपना संगठन देश के काफी बड़े भाग में गठित भी कर लिया है। वे अपने योग ज्ञान द्वारा तैयार किए गए नेटवर्क तथा इसके द्वारा अर्जित की गई लोकप्रियता के बल पर ही अपने समर्थकों को अपने साथ जोडऩे तथा उसका राजनैतिक लाभ उठाने की कोशिश भी कर रहे हैं। साथ-साथ वे उसी वर्ग को आधार बनाकर स्वदेशी वस्तुएं बेचने के नाम पर अपने कारोबार का भी विस्तार कर रहे हैं। गोया रामदेव के मिशन में उनकी अपनी महत्वाकांक्षा सा$फ झलकती है। उसपर सोने में सुहागा यह कि उनके सहयोगी बालकृष्ण इन दिनों कई अपराधों के सिलसिले में जेल में हें। उच्चतम न्ययालय ने बालकृष्ण की ज़मानत अर्जी भी $खारिज कर दी है।

    उपरोक्त हालात यह सोचने के लिए काफ़ी हैं कि बाबा रामदेव, अन्ना हज़ारे द्वारा संसदीय लोकतांत्रिक प्रक्रिया में भागीदारी के मुद्दे पर उनका साथ देते भी हैं या नहीं? और यदि साथ देते भी हैं तो किन शर्तों पर और यदि बाबा रामदेव अन्ना हज़ारे के साथ चुनाव मैदान में नज़र आए तो इससे अन्ना हज़ारे के मिशन को फ़ायदा होगा या नुक़सान? यह बात इसलिए भी काबिलेगौर है क्योंकि पिछले दिनों जब गुजरात में एक कार्यक्रम के दौरान बाबा रामदेव ने गुजरात के विवादित मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ एक मंच सांझा किया उस समय टीम अन्ना के कई सदस्यों ने इस पर घोर आपत्ति जताई थी। टीम अन्ना के कई सदस्यों का कहना था कि नरेंद्र मोदी अपने कई भ्रष्ट मंत्रियों का बचाव कर रहे हैं लिहाज़ा वे उनकी भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम के समर्थक नहीं हो सकते। जबकि कुछ का यह भी मत था कि लोकतांत्रिक तरीके से निर्वाचित किसी मुख्यमंत्री के साथ बैठने में आख़िर हर्ज भी क्या है।

    बहरहाल, अन्ना हज़ारे का यह कहना कि ‘मैं राजनैतिक दल बनाने के पक्ष में हूं और देश को इस समय एक धर्मनिरपेक्ष राजनैतिक विकल्प की आवश्यकता है। उनका यह वक्तव्य निश्चित रूप से भारतीय राजनीति में खलबली पैदा करने वाला परंतु अपेक्षित वक्तव्य है। देश से भ्रष्टाचार को समाप्त किए जाने की प्रत्येक मुहिम व ऐसे प्रयासों का स्वागत किया जाना चाहिए तथा इन्हें अपना समर्थन भी दिया जाना चाहिए। इसमें कोई शक नहीं कि भ्रष्टाचार इस समय घुन की तरह देश को खाए जा रहा है। परंतु क्या टीम अन्ना के लिए पूरे देश में ईमानदारों,त्यागियों,तपस्वियों,धनलक्ष्मी से मुंह मोड़ कर रखने वालों की राष्ट्रव्यापी टीम तैयार करना संभव हो पाएगा? क्या टीम अन्ना द्वारा जंतरमंतर पर चुनावी प्रक्रिया में भाग लेने की मंशा के पक्ष में फूंका गया चुनाव प्रक्रिया में भाग लेने वाला बिगुल धरातल के आईने में उतना ही सफल,कारगर, प्रभावी तथा रचनात्मक रूप ले पाएगा जिसकी टीम अन्ना उम्मीद कर रही है? ज़ाहिर है यह सभी बातें 2014 के संसदीय चुनाव आते-आते आहिस्ता-आहिस्ता और स्पष्ट होती जाएंगी।

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