अन्ना की माला के बिखरते मोती

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डॉ. शशि तिवारी

जीवन के तट पर कर्मों की ऊर्जा की लहरों के निरंतर टकराहट से ही जीवन स्पंदित होता रहता है, क्रियाशील रहता है, कर्म ही जीवन की ऊर्जा एवं शक्ति है और जहां शक्ति होती है वहां कर्म होता है। नियंगित एवं दिशायुक्त शक्ति ही लक्ष्य को भेद सकती है। जरा सा भटकाव, चूक, जिंदगी भर अंधेरे में भटकने के लिए मजबूर कर सकती है।

भ्रष्टाचार के विरूद्ध अन्ना का आदोलन राजनीति के गलियारों में किसी सुनामी से कम नहीं था। सभी अनुभवी दिग्गज नेता भौचक्के बन अपने अपमान की तबाही को देखने के लिए मजबूर से लग रहे थे जो स्वभाविक भी था। लेकिन जलजले के बाद सभी बयानवीर फिर से उठ खड़े हुए डेमेजर कन्ट्रोल में जुट गए। वहीं अन्ना के यज्ञ में होम करने वाले योद्धा अन्ना की बनी माला में से वैचारिक मतभेद के चलते टूटना शुरू हो जा ए, जिनमें प्रमुख राजेन्द्र सिंह, पी.वी.राजगोपाल अन्ना टीम के राजनीतिक हाइवे पर दौड़ने को ले होने वाली संभावित दुर्घटना की संभावना को आप अपने को इससे अलग करने में ही भलाई समझी। वहीं आंदोलन की प्रतिस्पर्धा के प्रमुख किरदार स्वामी बाबा रामदेव को अपना महत्व कमतर लगा। परिणामस्वरूप उन्होंने भी सार्वजनिक रूप से अब यह कहना शुरू कर दिया फिर अन्ना को जनलोकपाल से आगे सोचना चाहिए। जनलोकपल से भ्रष्टाचार खत्म होना भ्रामक है। मुख्य मुद्दा काला धन है। वहीं अन्ना के गांव के लोगों को राहुल बाबा से मिलने का पहले न्यौता दे न मिलने देना भी अन्ना को झटका दे गया। दूसरी ओर प्रशांत भूषण की पिटाई के श्री गणेश के साथ ही हिसार में भी अन्ना समर्थकों को दौड़ा-दौड़ा कर मारा गया। ये मामला अभी शांत हुआ ही नहीं था कि लखनऊ में जितेन्द्र पाठक ने अरविंद कजरीवाल पर चप्पल चला दी। यहां प्रशांत भूषण से अरविंद केजरीवाल का मामला बिल्कुल अलग इस मायने मं है जितेन्द्र पाठक द्वारा किये गये हमलो के पीछे कुछ प्रायोजित लोग लगते हैं? क्योंकि वह मीडिया के सामने संतोषजनक उत्तर नहीं दे पाया था। वही अरविंद केजरीवाल का रूख भी उस युवक को ले प्रतिशोध का न हो क्षमा का ही रहा जो निःसन्देह प्रशंसनीय है। हमारे भारत में जैन समाज में तो बाकायदा क्षमा पर्व बड़े गौरव के साथ मनाया जाता है।

ऐसा लगता है कि राइट टू रिकाल और राइट टू रिजेक्ट कही अगला आंदोलन का मुद्दा अन्ना न बनाए इसलिए कही ये दूर की सोची समझी कोड़ी तो नहीं कि एक-एक कर अन्ना टीम के सदस्यों को पीट-पीट कर, लांछन लगाकर कही असली समस्या से जनता का ध्यान हटाना तो नहीं है। काला धन, लोकपाल तो बाद की चीज है जब जनता भ्रष्ट, नकारा लोगों को पहले ही चरण में रिजेक्ट कर देगी तो क्या खाक मंत्री या सांसद बन पायेंगे? फिर घपला और भ्रष्टाचार करना तो दूर की बात है?

चूंकि राइट टू रिकाल में लम्बी प्रक्रिया का हवाला दे चालाक नेता इससे बचने की जुगत लगा सकते है लेकिन राइट टू रिजेक्ट में तो कहानी शुरू होने के पहले ही खत्म हो जायेगी, असली डर तो यही है।

अन्ना को सोचना होगा जाने-अनजाने में कहीं टीम में अहंकार भाव तो नहीं आ गया। कहीं अपने को तंत्र में लोक से बडा समझने का भ्रम तो नहीं हो गया? कहीं मूल मुद्दे से तो नही भटक गए? कहीं राजनीति की सड़क पर तो नहीं चल पड़े? कही साम, दण्ड, भेद को तो नहीं अपना रहे? आखिर क्या बात है कि टीम के वैचारिक लोग धीरे-धीरे कन्नी काटते जा रहे है? क्या वाकई चालाक नेताओं ने पूरी टीम को धीरे-धीरे अजगर की तरह अपने कबजे में लेना शुरू कर दिया है? आखिर पुराने पापी और नए पापियों में अंतर तो होगा? कई बार पुराने पापियों का अहंम जोर मार ही देता है आखिर उन्हें कहना ही पड़ता है मेरी बिल्ली मुझसे ही म्याऊं।

अन्ना टीम का हश्र कुछ ऐसा ही हो रहा है जैसे अभिमन्यु ने चक्रव्यूह को तो भेद दिया था लेकिन इससे बाहर निकलने का रास्ता नहीं जानता था। नतीजन सभी ने मिलकर उसे मृत्यु के घाट उतार दिया।

अब जैसी कि बयार चल रही है कि अन्ना को भी सुरक्षा मुहईया कराई जाए, टीम के सदस्यों पर सुनियोजित, रणनीति के तहत् हमलों का होना भ्रष्टाचारियों के बाहुबल को ही दर्शाती है। अन्ना के आंदोलन से बौखलाए नेताओं को अब दुश्मनी व अपमान का बदला निकालने का सही मौका मिलता नजर आ रहा है? कहते भी है कि प्यार और जंग में सब जायज होता है। उद्देश्य केवल और केवल जीत ही होना चाहिए।

इच्छा और अहंकार का जब मिलन होता है तब संकल्प होता है। निःसंदेह कर्म जीवन की शक्ति होती है और जहां शक्ति हो वहां कार्य भी होगा। इस सम्बन्ध में दार्शनिक नीडसे भी कहते है जो संकल्प करेगा वही जीतेगा। संकल्प हमेशा पागलपन ही पैदा करता है चाहे जो हो, मरे या मिटे काम तो करेंगे। वहीं हमारे श्री कृष्ण कहते है कि युद्ध/लडाई के लिए संकल्परहित होना जरूरी है। संकल्प रहित व्यक्ति केवल शून्य के लिए लड़ेगा कभी भी अधर्म के लिए नहीं बल्कि धर्म के ही लिए लड़ेगा। हकीकत में संकल्प मैं अर्थात् अहंकार का ही बचाव है। कहते है आदमी को जितना पाप नहीं सताता उससे ज्यादा उसका किया जाना सताता है। अगर किरण बेदी अपनी गलती को स्वीकार रही है तो यही एक बड़ी बात है। वह रूग्न नहीं है। रही बात पश्चाताप की तो वह उनका निजी मामला है। किरण बेदी इस मामले में यहां मुझे अनूठी प्रतीत होती है जब आए दिन मंत्री, सांसद घपले भ्र%E