अन्ना के समर्थकों के समक्ष निराशा का आसन्न संकट?

डॉ. पुरुषोत्तम मीणा ‘निरंकुश’

आखिरकार अन्ना ने सत्ता के बजाय व्यवस्था को बदलने के लिये कार्य करने की सोच को स्वीकार कर ही लिया है। जिसकी लम्बे समय से मॉंग की जाती रही है। जहॉं तक अन्ना की प्रस्तावित राजनैतिक विचारधारा का सवाल है तो सबसे पहली बात तो ये कि यह सवाल उठाने का देश के प्रत्येक व्यक्ति को हक है!

दूसरी बात ये कि अन्ना और उसकी टीम की करनी और कथनी में कितना अंतर है या है भी या नहीं! ये भी अपने आप में एक सवाल है, जो अनेक बार उठा है, लेकिन अब इसका उत्तर जनता को मिलना तय है।

 

अन्ना की ओर से अपना नजरिया साफ करने से पूर्व ही इन सारी बातों पर, विशेषकर ‘‘वैब मीडिया’’ पर ‘‘गर्मागरम बहस’’ लगातार जारी है, जिसमें अभद्र और अश्‍लील शब्दावली का खुलकर उपयोग और प्रदर्शन हो रहा है। अनेक “न्यूजपोर्टल्स” ने शायद इस प्रकार की सामग्री और टिप्पणियों के प्रदर्शन और प्रकाशन को ही अन्ना टीम की भॉंति खुद को पापुलर करने का “सर्वोत्तम तरीका” समझ लिया है।

कारण जो भी हों, लेकिन किसी भी विषय पर “चर्चा सादगी और सभ्य तरीके से होनी चाहिए” और अन्ना के उन समर्थकों को जो कुछ समय बाद “अन्ना विरोधी” होने जा रहे हैं! उनको अब अन्ना को छोड़कर शीघ्र ही कोई नया मंच तलाशना होगा! उनके सामने अपने अस्तित्व को बचाने का एक आसन्न संकट मंडराता दिख रहा है। उन्हें ऐसे मंच की जरूरत है जो जो मीडिया के जरिये देश में सनसनी फ़ैलाने में विश्‍वास करता हो तथा इस प्रकार के घटनाक्रम में आस्था रखता हो! हॉं बाबा रामदेव की दुकान में ऐसे लोगों को कुछ समय के लिए राहत की दवाई जरूर मिल सकती है! हालांकि वहॉं पर भी कुछ समय बाद “सामाजिक न्याय तथा धर्मनिरपेक्षता रूपी राजनैतिक विचारधारा” को “शुद्ध शहद की चासनी” में लपेटकर बेचे जाने की पूरी-पूरी सम्भावना व्यक्त की जा रही है।

मैं यहॉं साफ कर दूँ यह मेरा राजनैतिक अनुमान है, कि धर्मनिरपेक्षता और सामाजिक न्याय के मुद्दों को अपनाये बिना, इस देश में कोई राजनैतिक पार्टी स्थापित होकर राष्ट्रीय स्तर पर सफल हो ही नहीं सकती और इसे “अन्ना का दुर्भाग्य कहें या इस देश का”-कि अन्ना की सभाओं में या रैलियों में अभी तक जुटती रही भीड़ को ये दोनों ही संवैधानिक अवधारणाएँ कतई भी मंजूर नहीं हैं! बल्कि कड़वा सच तो यही है कि अन्ना अन्दोलन में अधिकतर वही लोग बढचढकर भाग लेते रहे हैं, जिन्हें देश के धर्मनिरपेक्ष स्वरूप में कतई भी आस्था नहीं है। जिन्हें इस देश में अल्पसंख्यक, विशेषकर मुसलमान फूटी आँख नहीं सुहाते हैं और जो हजारों वर्षों से गुलामी का दंश झेलते रहे दमित वर्गों को समानता का संवैधानिक हक प्रदान किये जाने के सख्त विरोध में हैं। जो स्त्री को घर की चार दीवारी से बाहर शक्तिसम्पन्न तथा देश के नीति-नियन्ता पदों पर देखना पसन्द नहीं करते हैं।

यह भी सच है कि इस प्रकार के लोग इस देश में पॉंच प्रतिशत से अधिक नहीं हैं, लेकिन इन लोगों के कब्जे में वैब मीडिया है। जिस पर केवल इन्हीं की आवाज सुनाई देती है। जिससे कुछ मतिमन्दों को लगने लगता है कि सारा देश अन्ना के साथ या आरक्षण या धर्मनिरपेक्षता के खिलाफ चिल्ला रहा है। जबकि सम्भवत: ये लोग ही इस देश की आधुनिक छूत की राजनैतिक तथा सामाजिक बीमारियों के वाहक और देश की भ्रष्ट तथा शोषक व्यवस्था के असली पोषक एवं समर्थक हैं।

इस कड़वी सच्चाई का ज्ञान और विश्‍वास कमोबेश अन्ना तथा बाबा दोनों को हो चुका है। इसलिये दोनों ने ही संकेत दे दिये हैं कि अब देश के सभी वर्गों को साथ लेकर चलना होगा। बाबा का रुख कुछ दिनों में और अधिक साफ हो जाने वाला है| जहाँ तक अन्ना का सवाल है तो अभी तक के रुख से यही लगता है कि अन्ना चाहकर भी न तो साम्प्रदायिकता का खुलकर समर्थन कर सकने की स्थिति में हैं और न हीं वे देश के दबे-कुचले वर्गों के उत्थान की नीति और स्त्री समानता का विरोध कर सकते हैं, जो “सामाजिक न्याय की आत्मा” हैं। इसलिये अन्ना के कथित समर्थकों के समक्ष निराशा का भारी आसन्न संकट मंडरा रहा है। उनके लिये इससे उबरना आसान नहीं होगा।

इसलिये अन्ना टीम की विचारधारा की घोषणा सबसे अधिक यदि किसी को आहत करने वाली है तो अन्ना के कथित कट्टर समर्थकों को ही इसका सामना करना होगा। इसके विपरीत जो लोग अभी तक अन्ना का विरोध कर रहे थे या जो अभी तक तटस्थ थे या जिन्हें अन्ना से कोई खास मतलब नहीं है और न हीं जिन लोगों को देश की संवैधानिक या राजनैतिक विचारधारा से कोई खास लेना देना है। ऐसे लोगों के लिये अवश्य अन्ना एक प्रायोगिक विकल्प बन सकते हैं और यदि अन्ना टीम कोई राजनैतिक पार्टी बनती है तो इससे सबसे अधिक नुकसान “भारतीय जनता पार्टी” को होने की सम्भावना है, क्योंकि अभी तक जो लोग अन्ना के साथ “भावनात्मक या रागात्मक” रूप से जुड़े दिख रहे हैं, वे “संघ और भाजपा” के भी इर्दगिर्द मंडराते देखे जाते रहे हैं।

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डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'
मीणा-आदिवासी परिवार में जन्म। तीसरी कक्षा के बाद पढाई छूटी! बाद में नियमित पढाई केवल 04 वर्ष! जीवन के 07 वर्ष बाल-मजदूर एवं बाल-कृषक। निर्दोष होकर भी 04 वर्ष 02 माह 26 दिन 04 जेलों में गुजारे। जेल के दौरान-कई सौ पुस्तकों का अध्ययन, कविता लेखन किया एवं जेल में ही ग्रेज्युएशन डिग्री पूर्ण की! 20 वर्ष 09 माह 05 दिन रेलवे में मजदूरी करने के बाद स्वैच्छिक सेवानिवृति! हिन्दू धर्म, जाति, वर्ग, वर्ण, समाज, कानून, अर्थ व्यवस्था, आतंकवाद, नक्सलवाद, राजनीति, कानून, संविधान, स्वास्थ्य, मानव व्यवहार, मानव मनोविज्ञान, दाम्पत्य, आध्यात्म, दलित-आदिवासी-पिछड़ा वर्ग एवं अल्पसंख्यक उत्पीड़न सहित अनेकानेक विषयों पर सतत लेखन और चिन्तन! विश्लेषक, टिप्पणीकार, कवि, शायर और शोधार्थी! छोटे बच्चों, वंचित वर्गों और औरतों के शोषण, उत्पीड़न तथा अभावमय जीवन के विभिन्न पहलुओं पर अध्ययनरत! मुख्य संस्थापक तथा राष्ट्रीय अध्यक्ष-‘भ्रष्टाचार एवं अत्याचार अन्वेषण संस्थान’ (BAAS), राष्ट्रीय प्रमुख-हक रक्षक दल (HRD) सामाजिक संगठन, राष्ट्रीय अध्यक्ष-जर्नलिस्ट्स, मीडिया एंड रायटर्स एसोसिएशन (JMWA), पूर्व राष्ट्रीय महासचिव-अजा/जजा संगठनों का अ.भा. परिसंघ, पूर्व अध्यक्ष-अ.भा. भील-मीणा संघर्ष मोर्चा एवं पूर्व प्रकाशक तथा सम्पादक-प्रेसपालिका (हिन्दी पाक्षिक)।

9 COMMENTS

  1. अभिषेक पुरोहित जी ने बड़े महत्व पूर्ण प्रश्न उठाये हैं. इन प्रश्नों का उत्तर न देने का अर्थ यही होगा की जो संदेह लेखक महोदय पर किये जाते हैं, वे सही हैं. एक अजीब बात और हैं, इस लेख पर टिपण्णी के लिए दिए बॉक्स में हिंदी टाईप नहीं हो रही ? मामला क्या है ?

    • १-श्री कपूर साहब ये बात सही है कि हिंदी में लिखने में दिक्कत हो रही है! किन्तु इसी लेख पर हो रही है, इसका मुझे ज्ञान नहीं! बल्कि मुझे तो दूसरे लेखों पर भी लिखने में दिक्कत हुई है!

      २-जहाँ तक श्री अभिषेक पुरोहित जी की और से उठाये गए सवालों के बारे में मेरी टिप्पणी आपके द्वारा मांगे जाने का सवाल है तो मैं आपको निवेदन कर दूँ कि-
      मैं इस बात के लिए अपने आपको स्वतंत्र मानता हूँ कि किस-किस की, किस बात का कब, कैसे, कितना और क्या उत्तर देना है या उत्तर नहीं देना है और कौन किस इरादे से प्रश्न पूछ रहा है, इस पर मैं विचार करूँ और जरूरी हो तो उत्तर दूँ अन्यतः चुप रहूँ! मैं ये समझ रखता हूँ!
      इसलिए आपसे आग्रह है कि आप कम से कम एक विद्वान होने के नाते मुझे इस बात का समर्थन प्रदान करें कि लोग अपने अधिकारों का उपयोग करते समय इस बात का ध्यान रखें कि दूसरों के अधिकारों का अनाधिकार हनन नहीं हो और किसी की प्रतिष्ठा को नुकसान नहीं पहुंचाया जाये!
      यदि किसी मामले में यदि मैं खुद भी गलत हूँ तो आप मुझे व्यक्तिगत रूप से मेरे मेल पर या जरूरी हो तो बड़े होने के नाते सार्वजानिक रूप से भी समझाईश देने के लिए स्वतंत्र हैं! डांट भी सकते हैं, लेकिन इसका भी एक तरीका होता है!
      विचार में भिन्नता होना स्वाभाविक है, लेकिन इसे मन की भिन्नता या खिन्नता तक लेना मेरे विचार से उचित नहीं है!
      आप लिखते हैं कि “अभिषेक पुरोहित जी ने बड़े महत्व पूर्ण प्रश्न उठाये हैं. इन प्रश्नों का उत्तर न देने का अर्थ यही होगा की जो संदेह लेखक महोदय पर किये जाते हैं, वे सही हैं.” डॉ. कपूर साहब आप विद्वान व्यक्ति हैं, आपके अपने विचार और आग्रह हो सकते हैं, लेकिन इस प्रकार की इकतरफा सोच मेरे विचार में आप जैसे व्यक्ति को शोभा नहीं देती है! निर्णय आपका? आप जानते हैं कि अभिषेक जी क्या और किस तरीके से सवाल पूछते हैं? कम से कम मुझे उनसे संवाद करना पसंद नहीं है!
      सवाल जरूर उठाये जाने चाहिए, लेकिन लेखन, मीडिया मंच और लेखक की गरिमा का भी ख्याल होना चाहिए!
      कोई भी किसी को किसी बात के लिए विवश नहीं कर सकता!

      • भारत एक स्वतंत्र देश है सबकी अपनी अपनी पसंद है पर जब कोई बिना प्रमाण के संघ पर आरोप लगता रहता है तब उसे एस बात का जवाब देना ही चाहिए की क्यों नहीं ये माना जाए की चूंकि बोड़ो व दूसरे जनजातियों के बारे में लिखने से अदरणीय पुरुषोतम जी को कोई फायदा नहीं पाहुचता है तथा कोई भी मकसद हल नहीं होता है अत: आदिवासी होते हौवे भी वो उपेक्षा के लायक है ???संघ को निरंतर घारियाने वाले लोग वास्तव में या तो अज्ञानी है या बहुत ही शातिर है खास बात ये है की एसे लोगो के पास कोई तथ्यात्मक जानकारी हो ईएसए नहीं है बल्कि सारे के सारे आरोप मिथ्या ही नहीं बल्कि घड़े गए है जिनका कोई जवाब अदरणीय पुरुषोतम जी के पास नहीं है |
        फिर आते है इनकी बहुचर्चित आर्य थ्योरी पर जो आधुनिकतम शोधों जेनेटिक रिसर्च से अनेक बार खंडित हो चुकी है पर चूंकि इनकी राजनीतिक विचार धारा उसे ही खाद पानी पाती है अत: ये उसे छोड़ना नहीं चाहते है तो मेने उसी भाषा मे पूछा था की जब आर्य (?) लोग वर्षों से अपने सारे परिवार को छोड़ कर शुद्ध (?) भारतियों की सेवा में लगे है तो क्यों नहीं आप भी एक छोटी सी कलम उन पर चलते है जो अभी बंगालादेश मुल्लों से पीड़ित है ??हालकि कोई अनिवार्य नहीं है पर एक सवाल है इच्छा हो तो जवाब दे नहीं तो चलता है ……………………….

  2. हमारे पुराने मित्र डा. पुरुषोत्तम मीणा जी के पूर्वाग्रहों पर बहस बेमानी मानकर ( शायद मेरे बारे में वे भी यही कहें, उनका अधिकार है. इसपर बात फिर कभी ) अन्ना जी के आन्दोलन के असफल होने का जो फतवा मीडिया और उसके आका नेताओं ने जारी किया है, उसके बारे में निवेदन है की—————–
    # अन्ना आन्दोलन को असफल कहना एक नासमझी है और या फिर एक शरारत. एक ही पक्ष को बढ़ा-चढा कर पेश करना और बाकी पक्षों की अन्देखी कर देना, इससे लगता है कि शरारत है, नीयत की खोट है.
    # देश की समस्याओं की मुख्य जड़ है, देश की समस्याओं के प्रति जनता का जागरूक न होना . इसका एक ही हल है- जनमत का जागरूक हो जाना. फिर दुष्टों की दुष्टता चल नहीं पाएगी. ज़रा देखे कि जनता को जगाने में अन्ना का आन्दोलन कितना सफल या असफल रहा ? ४,००,००० (चार लाख) में से ९६% ने अन्ना को अपना मत देकर राजनैतिक दल बनाने की सहमती दी है. क्या यह देश की जनता के जागने की पहचान नहीं है ? दम हो तो किसी और मुद्दे पर, किसी अन्य नेता के पक्ष में जनमत संग्रह करवा कर देख लें, सच सामने आजायेगा. पर ऐसा करके ये मीडिया वाले अपनी और अपने नेताओं की पोल खोलने की भूल कभी नहीं करेंगे. अतः अन्ना का आन्दोलन अपने उद्देश्य में आशा से अधिक सफल रहा है. इसे असफल बतलाने के पीछे उन डरे हुओं का हाथ है जो जनमत के मनोबल को तोड़ना चाहते हैं, निराशा फैलाना चाहते हैं, किसी भी इमानदार और देशभक्त नेतृत्व के प्रति विश्वास नहीं बनने देना चाहते. क्यूंकि इसमें तो इन दुष्टों का अंत है.
    # क्या राजनैतिक दल चलाना या बनाना क्या केवल दुष्टों, भ्रष्टों का अधिकार है ? अन्ना द्वारा नए दल के गठन की घोषणा को एक गंभीर अपराध, एक बहुत बड़ी भूल, एक धोखे के रूप में प्रस्तुत करने के प्रयास क्यों कह रहे हैं, समझिये. दुर्जनों के एकाधिकार को मिली इस चुनौती ने इनके सिघासन हिला दिए हैं. घबरा गए हैं ये लोग. इनका अस्तित्वा तभी तक है जबतक कोई इमानदार विकल्प देश में खडा नहीं होजाता. भाजपा पर भी काफी दाग लगे हुए हैं, इसलिए उससे बहुत खतरा नहीं, खतरा तो अन्ना और बाबा रामदेव जैसों से है. ( खैर रामदेव जी की तो बढ़िया घेराबंदी करके घोषणा करवा दी है कि वे किसी भी हालत में राजनैतिक दल नहीं बनायेगे. वे अब जो करना है करते रहें, उनसे भी कोई खतरा नहीं रहा. ) पर जब राजनैतिक विकल्प ही नहीं देंगे तो नापसंद दल व सरकार को बदलेंगे कैसे ? बड़ी नासमझी की बात नहीं है यह तो ?
    # अन्ना द्वारा राजनैतिक दल के गठन को प्राप्त जनमत के ९६% का समर्थन स्पष्ट सन्देश है कि देश की जनता का विश्वास किसी भी वर्तमान दल में नहीं बचा.जनता अब अन्ना जी जैसे किसी साफ़ छवी के के नेतृत्व में नए दल का गठन चाहती है. कई लोगों को इस ९६% के समर्थन पर आशंकाएं हैं. कोई बात नहीं, ग्रामीण जनता और देश के अन्य वर्गों में भी सर्वेक्षण करवा के तसल्ली करलें. दम हो तो करवाईये किसी ‘ज़ी’ जैसे चैनल से सर्वेक्षण, सच सामने आजायेगा. अथवा अन्ना के निर्णय को गलत कहने ( जनमत का अपमान करने की बेईमानी न करते हुए ) के बजाय नए दल के गठन को देश के बहुमत का निर्णय मान लेना ही सही होगा.
    # आवश्यक नहीं कि अन्ना, विशेष कर उनके बाकी के साथी कसौटी पर खरे ही उतरें. पर यह यथास्थिती वाले हालत बदलने चाहियें. देश की जनता बार-बार मूल्यांकन करने और उचित परिवर्तन करने की प्रक्रिया शुरू तो करे. एक को परख कर ज़रूरत पड़े तो दुसरे को अवसर दे. यह क्या कि कांग्रस और भाजपा का फिक्सिंग मैच चलता ही रहे और देश के जनता इन्हें ढोती रहे?
    # लोकपाल जैसे किसी बिल-विल के पास होने से इस सरकार का चरित्र व देश के हालात बदलेंगे , इसकी आशा करना एक नासमझी, इन लोगों के चरित्र और परिस्थितियों का सही मूल्यांकन करने की अक्षमता का परिचायक है. लोकपाल बिल की मांग का केवल एक ही उपयोग होना था जो कि हुआ, इस सरकार की नीयत पर पडा पर्दा कुछ हटा, जनता जागृत हुई. अन्ना ने भी ऐसा सोचा न होगा. वे इस भ्रम में रहे कि जैसे पहले अनेक आन्दोलन करके वे अपनी अधिकाँश मांगे मनवाने में सफल होते आये, इस बार भी होंगे. पर उन और इन हालात का मूल्यांकन करने वे चूक गए. पर प्रभु की योजना से उनके आन्दोलन को इसी मोड़ पर पहुँचना था और वे पहुँच गए. अबतक की उनकी या कहें कि जनता की सफलता उल्लेखनीय व उत्साह जगाने वाली है. निसंदेह आगे (दिसंबर के बाद) यह सफलताओं का क्रम बड़ी तेज़ गति से चलने वाला है. केवल दिसंबर तक देशभक्तों और सज्जनों के लिए विकट और संघर्ष का काल शेष बचा है. फिर बस विजय ही विजय है.

    • आदरणीय डॉ. कपूर साहेब,
      सादर प्रणाम!

      इतनी विस्तृत और शानदार, आशावादी टिप्पणी लिखकर नाइंसाफी के खिलाफ काम करने वालों का उत्साह बढ़ाने वाली सकारात्मक टिप्पणी करने के लिए आपका आभार!

      डॉ. पुरुषोत्तम मीणा ‘निरंकुश’
      राष्ट्रीय अध्यक्ष
      जर्नलिस्ट्स, मीडिया एंड रायटर्स वेलफेयर एसोसिएशन
      0141-2222225, 98285-02666

  3. देश की बागडोर इन्ही मिलेगी जरा इंतजार करिएगा ……………………….

  4. आप जरा स्पष्ट कहे ,समझ नहीं पाया क्या कहना चाहते है?मेने सीधे सीधे आप से प्रश्न किया था की आप जो अपनी एनजीओ टाइप कुछ चलाते है तथा आदिवासी समाज के हित के बारे मे लिखते रहते है ये असम के बोड़ो आपके लेखनी मे क्यों नहीं आए अब तक??बोड़ो तथा उनके जैसी बीसियों जनजाति जो उत्तर पूर्व मे मुसलमानों ।चर्च ,चीन तथा मूर्ख सरकारों की गलत नीतियों की सजा भुगत रही है उस पर आप की कलम चलते देखि नहीं ??आपकी भाषा में वो तो शुद्ध भारतीय है भाई ???संघ के लोग वहा क्या कर रहे है ये आपने लिखा याद नहीं आता ,ओर हा आपकी जानकारी के लिए बता दूँ की संघ के जो लोग वहाँ काम कर रहे है शिक्षा,रोजगार,सुरक्षा ,सम्मान्न के लिए वो विदेशी आर्य भी है तथा शुद्ध भारतीय भी ………………..अपने जोधपुर के भी आपकी भाषा मे एक विदेशी आर्य वर्षों से वहाँ शिक्षा का काम कर रहे है तथा आप ही की भाषा में आप जैसे शुद्ध भारतीय बोड़ो लोगों के लिए एक शब्द भी नहीं लिखना चाहते है ??कारण स्पष्ट है आपको अपने स्वार्थ से मतलब है न की वास्तविक समस्या व समाधान से ,वरना आप ये जरूर लिखते की सबसे ज्यादा सेवा प्रक्ल्प विश्व हिन्दू परिषद के चलते है आदिवासी क्षेत्रों में,एकल विध्यालय।अवसीय छात्रावास,चलते है वैध्य भारती के विवेकानंद केंद्र के ,वनवासी कल्याण आश्रम के …………………………..

  5. श्री पुरोहित जी आज 05 .08 .12 को दैनिक भास्कर के पहले पन्ने पर एक खबर “उम्र 39, दसवीं पास, रुतबा सीएम जैसा ” शीर्षक से छपी है, जिसका अंतिम पेरा आपकी और आप जैसे विचार रखने वाले मित्रों की जानकारी के लिए प्रस्तुत कर रह हूँ :

    “इस बसाहट और बेदखली की कशमकश के बीच पूरे बोडो इलाके में बैनर-पोस्टर उग आए हैं। इन पर जारी करने वाली संस्था का नाम नहीं है। तिरंगे झंडे पर इन बैनरों पर लिखा है – हमारे जवान कश्मीर में मारे जा रहे हैं। हम बोडोलैंड को कश्मीर नहीं बनने देंगे।

    मोलिहारी कहते हैं – बांज्लादेशी घुसपैठियों की वजह से हम बोडोलैंड में ही अल्पसंयक नहीं बनना चाहते। पूछने पर कि बैनर-पोस्टर क्या आपकी संस्था ने लगाए हैं, पहली बार वे हल्का सा मुस्कुराए
    -अरे, यहां विश्व हिंदू परिषद, आरएसएस और भाजपा भी तो है। आप उनसे पूछो।”

    मुझे ये समझ में नहीं आता की इतनी साफ़-सुथरी बात को भी लोग क्यों समझना नहीं चाहते कि-

    “इस देश को बर्बाद करने वाले विचारों का वाहक कौन है?”

    लेकिन अब समय आ गया है, जबकि लोग सच को जानने और समझने लगे हैं, जिसका प्रमाण दैनिक भास्कर, जयपुर की आज की ही एक और खबर से मिलता है, जिसका शीर्षक है-

    “राजनीति में आने पर अन्ना को 13 राज्यों के 12 ,000 से ज्यादा पाठकों ने दिए सुझाव लोगों ने कहा रामदेव को छोडो कलम को जोड़ो”

    मतलब साफ है कि लोग स्वच्छता और पारदर्शी सरकार तो चाहते हैं, लेकिन सांप्रदायिक, सामाजिक न्याय के विरोधी, स्त्री समानता के विरोधी, धर्मोन्माद को बढ़ाने वाले और मानवता के विरोधियों को किसी भी कीमत पर देश की बागडोर नहीं देना चाहते!

  6. पुरुषोतम साहब जरा असम के हिन्दू बोड़ो आदिवासियों पर कलाम चलाये वो ज्यादा जरूरी है अन्ना से ,ओर हा वो लोग आपकी भाषा में शुद्ध भारतीय है आर्य नहीं ……………………………..पर मैं भूल गया की आपकी दृष्टि अपने लाभ के आगे नहीं देखती है पर बोड़ो लोगो का लाभ भी आपका हो या न हो कह नहीं सकता ,क्योकि उनके पक्ष में लिखने से आपको कोई फायदा तो नहीं ही पाहुचेगा न ……………..

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