धर्म-अध्यात्म

क्या ये जायज और इस्लाम के अनुरूप है ?


hazभारत से प्रतिवर्ष औसतन सवा लाख लोग हज करने के लिए मक्का मदीना जाते हैं। इस्लामी आदेशानुसार हज यात्रा पर उसी इस्लामी – धर्मावलम्बी को जाना चाहिए, जो अपने जीवन के सभी पारिवारिक दायित्वों से मुक्त हो चुका हो और जिसके पास अपनी गाढ़ी कमाई हो और हज के निमित्त वो उसी कमाई को खर्च करे l प्रतिवर्ष आयोजित की जाने वाली हज यात्रा पर भारत सरकार अनुदान के रूप में करोड़ों रुपए खर्च करती है और राज्य सरकारों का पूरा अमला ही रवानगी से लेकर वापसी तक मुस्तैद रहता है , मानो एक धार्मिक यात्रा ना हो किसी राष्ट्राध्यक्ष के स्वागत की तैयारी हो l एक पंथनिरपेक्ष देश में एक विशेष वर्ग की मजहबी यात्रा पर अनावश्यक सरकारी खर्च मेरी समझ से परे है l

हज के अवसर पर प्रतिवर्ष सरकारी प्रतिनिधिमंडल सरकारी खर्च पर सऊदी अरब रवाना किया जाता है। इसकी संख्या निश्चित नहीं होती है। राज्य सरकारें बेरोक-टोक जितना चाहें उतना लम्बा-चौड़ा प्रतिनिधिमंडल भेज सकती हैं । इस प्रतिनिधिमंडल के लिए कोई नियमावली नहीं है। सरकार जिसे चाहे उसे इसमें शामिल करती है। अजीब विडम्बना है … ! अनौपचारिक रूप से पूछे जाने पर जवाब मिलता है “मजहब का मामला है इसलिए सरकार तो इसमें कदापि हस्तक्षेप नहीं कर सकती।” जबकि मेरी समझ के मुताबिक सीधे – सीधे वोट-बैंक की राजनीति और तुष्टीकरण का मामला है l राज्यों की हज कमेटी, विदेश मंत्रालय और मुस्लिमों के कद्दावर नेता इन प्रतिनिधिमंडलों की सदस्य संख्या तय करते हैं और सच्चाई ये है कि ” जिनका मजहबी, सामाजिक और राजनीतिक कद ऊँचा होता है उन्हें ही इस प्रतिनिधिमण्डल में शामिल किया जाता है। अनेक अवसरों पर प्रतिनिधिमंडल के सदस्य अपने परिजनों को इसमें शामिल करके सभी प्रकार के लाभ उठा लेते हैं।” प्रतिनिधिमंडलों की संख्या क्या होगी इसे तय करने के लिए भी कोई नियम या कानून नहीं है। कुछ चेहरे तो हर साल इस वार्षिक “जलसे ” में शामिल हो जाते हैं।

पिछले वर्ष बिहार के गया अंतर्राष्ट्रीय हवाई -अड्डे से हज -यात्रियों की रवानगी कवर करने के दौरान प्राप्त जानकारी के अनुसार एक सामान्य व्यक्ति एक से दो लाख में हज यात्रा करके लौट सकता है, लेकिन सरकारी प्रतिनिधिमंडल के एक सदस्य का खर्च 8 से 10 लाख रुपए का आता है। किसी भी प्रतिनिधि मंडल के सदस्य से जब आप उसका परिचय पूछेंगे तो वह यही कहेगा कि हम तो राजनीति को दूर रख कर हाजियों की सेवा करने के लिए आए हैं।

कटु सत्य तो ये है कि भारत के लगभग सभी राजनीतिक दलों के मुस्लिम नेता इस ‘लूट’ के साझेदार हैं। यदि आप सरकारी पैसों से हज करने वालों की सूची देखेंगे तो पता चलेगा कि एक ही व्यक्ति न जाने कितनी बार इस प्रतिनिधिमंडल का सदस्य बन कर हज के लिए जा चुका है। कुछ वैसे भी लोग हैं जो किसी की भी सरकार रहे प्रतिनिधिमंडल में शामिल हो जाते हैं।जानकारी के मुताबिक सरकारी प्रतिनिधिमंडल को पाँच और सात सितारा होटलों में ठहराया जाता है।

हज से लौटे कुछ मित्रों के परिजनों की मानें तो मक्का पहुँचने के पश्चात् ये प्रतिनिधि कहाँ गायब हो जाते हैं, यह भी जाँच-पड़ताल का विषय है। कोई मदरसे और मस्जिद का चंदा मांगने के लिए निकल पड़ता है, तो कई मुस्लिम – संस्थाओं का प्रतिनिधि बनकर कोष एकत्रित करने में व्यस्त हो जाता है l एक सदस्य , जिन्हें मैं व्यक्तिगत रूप से जानता हूँ , कई वर्षों से सिर्फ इसलिए चंदे के रूप में पैसा एकत्रित कर रहे हैं कि वो मुस्लिम बहुल इलाके में एक मेडिकल – कॉलेज खोलना चाहते हैं , भले ही उसके (कॉलेज) लिए वर्षों बीत जाने के बाद भी एक ईंट भी नहीं जोड़ी गई है l बिहार के ही एक मौलाना, जो अक्सर राजनीति के मोहरे अपनी जमात में रहकर उलटते-पलटते दिखाई पड़ते हैं, अनेकों प्रतिनिधिमंडलों का हिस्सा बन चुके हैं l ऐसे लोग बड़ी ढिठाई से कहते दिखते हैं कि “मुसलमानों का दबदबा जो भारत में है वह कहीं भी नहीं… देखो हमारी सरकार अपने आपको पंथनिरपेक्ष कहती है, लेकिन एक मजहब – विशेष का वह कितना ध्यान रखती है…. सरकारी पैसे से हज करना क्या कोई साधारण बात है …”

 
आलोक कुमार