विविधा

क्या आप वाकई साहित्कार है?

writerडा. अरविन्द कुमार सिंह

क्षमा कीजिएगा मैं कोई साहित्यकार नही हूॅ। पेशे से एक अध्यापक हूॅ। चरित्र से राष्ट्रवादी हूॅ। विचारों में अपना देश बसता है और अपने देश के लिये चरित्रवान नौजवानों को गढने का कार्य करता हूॅ।
मेरे अल्फाजों से यदि किसी को चोट लगे तो क्षमा चाहूॅगा क्योकि सच झूठ की तरह प्रिय नही हो सकता। मेरा मानना है जो साहित्कार सच को सच न कह सके, उसे साहित्यकार कहलाने का कोई हक नही है। बात एक घटना से शुरू करूंगा –

गोधरा की घटना के बाद गुजरात दंगो की आॅच थोडी कम हुयी थी। पूरे देश में विचार विर्मशो का दौर जारी था। ऐसे में वाराणसी स्थित उदय प्रताप कालेज के लाईब्रेरी सभागार में एक संगोष्ठी आयोजित की गयी। देश के नामचीन साहित्कार बुलाये गये। मैं भी उस संगोष्ठी को सुनने हेतु वहाॅ गया। थोडी देर के बाद उनके वक्तव्यों को सुनने से ऐसा प्रतीत हुआ जैसे कोई व्यक्ति अपनी सुविधा के अनुसार अपने हिस्से के सच को बढा चढाकर पेश कर रहा है। आधा झूठ और आधा सच उनके वक्तव्यों का आधार था।

सारे साहित्कार मात्र गुजरात दंगे का जिक्र कर रहे थे। किसी एक की हिम्मत नहीं थी की वो गोधरा का जिक्र कर सके। ख्याल रख्खें यदि गोधरा न होता तो गुजरात दंगा भी न होता। ‘‘ क्रिया की स्वभाविक प्रतिक्रिया का सिद्धांत ’’ तो न्यूटन 1687 में ही प्रतिपादित कर गये थे।

मैं इंतजार करता रहा कि शायद कोई एक साहित्यकार यह हिम्मत जुटाकर कह सकेगा कि – यदि गुजरात दंगा सही नहीं था तो गोधरा भी सही नहीं था। मुसलमानों ने गोधरा कांड अंजाम देकर यदि ठीक नहीं किया तो फिर हिन्दुओं ने भी गुजरात कांड करके ठीक काम नहीं किया । दोनो ही गलत थे। इस प्रकरण में सबसे दिलचस्प तथ्य तो ये था, जब गोधरा कांड हुआ तो पूरे दो दिन तक पूरे देश से कोई प्रतिक्रिया नहीं आयी। जब घटना की प्रतिक्रिया हुयी, गजरात हिंसा में जलने लगा तो पूरे देश में प्रतिक्रिया देने की होड लग गयी। यह शर्मनाक था।

जो व्यक्ति सच कहने की हिम्मत न जुटा सके क्या वह अपने को साहित्यकार कहलाने का हक रखता है? कलम सत्ता की गुलाम नहीं हो सकती। मेरा मानना है जब साहित्कार सच बोलने से कतरायें तो वह समझौतावादी तो हो सकता है पर सच्चा साहित्यकार नहीं।

जो साहित्यकार अपने को वामपंथी या दक्षिणपंथी लेखक कहलाने में गर्व महसूस करते है, वह बुद्धि के सहारे जीवनयापन करने वाला एक बुद्धिजीवी के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं। राष्ट्र ऐसे लोगो से निर्मित नहीं होता वरन विकृत होता है। साहित्कार जिस दिन किसी जाति, सम्प्रदाय, विचारधारा का पोषक हो जायेगा, उसी दिन उसकी रचनाधर्मिता दूषित और एक पक्षीय हो जायेगी। सच के अतिरिक्त साहित्यकार किसी और का बंधक नहीं।

जुलाई 2013 में मेरठ के पास नागलमल नामक स्थान पर एक मंदिर में लाउडस्पीकर पर भजन बजने के विरूद्ध स्थानिय मुस्लमानों की भीड ने मंदिर की बिजली बंद कर दी, भक्तों को पीटा। दो लोग मारे गये, दजर्नो घायल हए पर साहित्यकारों का मन आहत नहीं हुआ। बेंगलूर में कांग्रेस के राज में 2014 में गो वध के विरोध में पुस्तक बाॅट रहे एक हिन्दु कार्यकर्ता को उन्मादी भीड ने घेरकर पीटा। साहित्यकार का मन आहत नहीं हुआ। सिंतम्बर 2014 में मध्यप्रदेश में जब कुछ मुस्लीम महिलायें मंास रहित ईद मनाने का अभियान चला रही थी तो मुसलमानो की भीड ने उनपर पत्थर बरसाये तब भी साहित्यकारों का मन आहत नहीं हुआ।

गृह मंत्रालय के आंकडे के अनुसार 2012, 2013 और 2014 में साम्प्रदायिक हिंसा की क्रमशः 668 ,823 और 644 घटनाए हुयी , जिनमें क्रमशः 39, 77 और 26 लोगो की जाने गयी । तब भी कलमवीरों का मन आहत नहीं हुआ। 1984 के सिख दंगो में 3000 सिखांे का दिल्ली में कत्ल हुआ पर साहित्यकार का मन तब भी आहत नहीं हुआ। कश्मीर की सरजमी से लोगो को भागने पर मजबूर कर दिया गया पर साहित्यकार का मन तब भी आहत नहीं हुआ।

सोनिया – मनमोहन शासन के दौरान तर्कवादी दाभेलकर जी की हत्या हुयी। साहित्यकार तब भी खामोश था। यू.पी. के दादरी में अखलाक की हत्या हुयी , साहित्यकार उत्तर प्रदेश सरकार के बजाय केंद्र सरकार से नाराज हो गये। मन आहत हो गया पर मुख्यमंत्री अखिलेश से नहीं प्रधानमंत्री मोदी से। प्रदेश सरकार के एक मंत्री तो इतने आहत हो गये कि वो संयुक्त राष्ट्रसंघ तक को पत्र लिखने का मन बना लिया। केद्र को जो रिर्पोट भेजी गयी घटना के बाबत उसमें भी प्रदेश सरकार सच लिखने का हौसला न दिखा सकी।

एक दिलचस्प तस्वीर और देखने की आवश्यकता तथा समझने की जरूरत है कि आखिरकार साहित्यकार का मन कब आहत होता है और क्यो?
अंग्रेजी की लेखिका नयनतारा सहगल को अंग्रेजी उपन्यास के लिये साहित्य अकादमी का पुरस्कार 1986 में मिला। एम.एम कुलबर्गी की हत्या पर पुरस्कार वापस करने की घोषणा करने वाली अंग्रेजी लेखिका इसी हत्या पर क्यों बोली? इन्हे अपनी ममेरी बहन के लगाये आपातकाल का विरोध करना क्यों नही सूझा? 1975 से 1977 तक आपातकाल में दमन की जो भयानक चक्की भारत भर में चली तब वो मौन क्यों थी? क्यों इन्हे 1984 में भारत के विभिन्न नगरों में हुए सिख विरोधी दंगो ने आहत नहीं किया? जिसके बारे में इनके भंाजे राजीव गाॅधी ने कहा था, जब कोई बडा पेड गिरता है तो धरती हिलती ही है। इन्हे स्वर्ण मंदिर के बाहर डीआईजी अटवाल सहित हजारों निर्दोषो के मार दिये जाने के बारे में कुछ कहना क्यों नहीं सूझा? इन्हे 1992 में कश्मीर घाटी से मार कर भगा दिये गये हिन्दुओं का करूण क्रदंन क्यों सुनाई नहीं दिया? क्यों इन्हे मुम्बई की लोकल ट्रेनो में हुए धमाकांे की आवाज सुनाई नहीं दिये?

दरअसल सुविधाजनक मन, अपने सुविधानुसार व्यवस्था खोजता है। एक सच्चे साहित्यकार के लिये हिन्दु और मुसलमान तभी तक आदरणीय है जब तक उनके कृत्यों से देश को क्षति नहीं पहुॅचती। यदि क्षति पहुॅचती है तो वह बराबर के कलम की जद में आयेगें । यदि कलमकार भी सुविधा के अनुसार कलम चलायेगा तो वह कुछ भी हो सकता हैे पर सच्चा साहित्यकार हरगीज नहीं हो सकता। यदि हिन्दु देश के खिलाफ काम करेगा तो उसे अपने हिस्से में गद््दार शब्द लेना होगा, यदि मुसलमान देश के बरखिलाफ काम करेगा तो उसे भी अपने हिस्से में गद्दार शब्द लेना होगा। यदि साहित्यकार इस स्थिति से गुजरेगा तो उसे भी यह शब्द अपने हिस्से में लेना होगा।

विडम्बना तो ये है कुछ साहित्यकार देश के लिये नहीं लिखते, जो सच है उसे नहीं लिखते जो सुविधाजनक है उसे लिखते है। मेरा मानना है यदि वो सच लिखने लगे तो उन्हे जनता का आदर और सम्मान दोनो ही प्राप्त होगें। हाॅ ये जरूर है ऐसे लोगों को साहित्यक सम्मान हरगीज नहीं मिलेगा। अब साहित्यकार को तय करना है कि वो सच लिखे या फिर पुरस्कार के लिये लिखे। याद रख्ख्ेा महाकवि तुलसी का लेखन किसी सम्मान का मोहताज नही।

दाभोलकर, एम.एम कुलबर्गी, पानसारे, अखलाक, कश्मीरी ब्राहमणो का पलायन, सिख दंगे, गोधरा व गुजरात दंगे तथा तमाम साम्प्रदायिक दंगे व हत्यायें सभी गलत है। तर्क की कसौटी पर चढाकर एक को सही और दूसरे को गलत साबित करना राजनितिज्ञों का काम है, साहित्यकारों का नहीं। साहित्यकारों को इन सभी घटनाओं को अपनी कलम की जद पर ऐसा रखना चाहिये जिससे देश का आम आदमी इसके बरखिलाफ खडा हो सके। तभी एक स्वस्थ भारत का निर्माण होगा।

एक सैनिक देश के लिये जीता है और देश क लिये मरता है। उसकी जाति भारत है, उसका धर्म भारत है और उसका ईमान भारत है। जो भारत के साथ है वह उसके साथ है। जो भारत को आॅख दिखायेगा – वो सजा का हकदार होगा। क्योकि वो जानता है देश यदि जिन्दा रहेगा तभी तक मेरा वजूद जिन्दा रहेगा। जब देश ही जिन्दा नहीं होगा तो हमारे होने का क्या मतलब है। हम रहे ना रहे यह देश रहना चाहिये।