राजनीति

अरुंधति राय का बौद्धिक विलाप और नक्सली हिंसा

-डॉ.शाहिद अली

सुप्रसिद्ध लेखिका और बुकर सम्मान से अलंकृत अरुंधति राय पिछले कुछ दिनों से लगातार मीडिया की सुर्खियां बन रही हैं। इससे पहले अरुंधति राय को इतना गंभीरता से मीडिया ने कभी नहीं लिया था। सुर्खियां बनने की पर्याप्त वज़ह भी है। लाल आतंक को अपना समर्थन देने के चक्कर में अरुंधति राय ने गांधी की नसीहतों को भी दरकिनार कर दिया। अरुंधति राय ने साफ जता दिया है कि गांधी वर्तमान दौर में प्रासंगिक नहीं रहे। नक्सली हिंसा का रास्ता उनका अपना भी रास्ता है। सशस्त्र क्रांति अरुंधति राय के लिये गलत नहीं है। अरुंधति राय की यह स्वीकृति तब सामने आई है जब उनके इर्द गिर्द नक्सलियों के साथ खड़े होने के आरोपों को बल मिलने लगा। अरुंधति राय का यह कथित नक्सल प्रेम उन्हें इतना गैर जिम्मेदाराना बना देगा इसकी कल्पना शायद किसी को नहीं थी। जिन सम्मानों के लिये अरुंधति राय को भारत के लोग उन्हें जानते हैं, वे सकते में हैं कि क्या बुकर जैसे अलंकरणों से नवाजे चेहरे इतने कठोर और निर्मम हो सकते हैं जिनके मन में इंसानों का जीवन किताब के हाशिये के समान हो गया हो। औपनिवेशवाद और बंदूकों के साये में रहने वाले देशों के लोग भी भारत के नायक महामानव गांधी का सम्मान करने से नहीं चुकते। अमेरिका, इंग्लैंड और अन्य पश्चिमी देशों में भी गांधी के अहिंसा के मंत्र को मनुष्य का सबसे बड़ा मित्र मानते हैं। अहिंसा और शान्ति के लिये सभी देशों के लोग और वहां की सरकारें गांधी को अपना आदर्श मानती हैं। गांधी भारत में पैदा हुये और अपने इसी मंत्र के जरिये भारतीय स्वतंत्रता का पहला पाठ उन्होंने देशवासियों को दिया। महात्मा गांधी का पूरा जीवन और उनके प्रयोग कभी अप्रासंगिक नहीं हो सकते हैं। गांधी के साथ चलने के लिये संयम, सादगी और सदाश्यता चाहिये। जो अरुंधति राय जैसे लोगों में कभी नहीं हो सकता है इसलिये वे गांधी को नकारने का दुस्साहस करती हैं। गांधी किसी एक इंसान की असहमति से नकारे नहीं जा सकते हैं। अरुंधति राय को यह समझना होगा कि गांधी एक जीवन शैली है, विचार है और इससे बढ़कर समस्त मानवाधिकार का सहज रास्ता है।

नक्सली हिंसा को सही करार देने के चक्कर में अरुंधति राय का मानवता के रास्ते से भटकना सामाजिक चिंता का विषय है। एक नारी होने के नाते भी अरुंधती राय के ह्दय में कोमलता का भाव होना चाहिये। गांधी के देश में हिंसा का कोई स्थान नहीं है। हिंसा का उद्देश्य कितना ही महत्वपूर्ण हो किन्तु वह कभी पवित्र नहीं हो सकती है। हिंसा की कोख से पैदा संतानें हिंसा की फसलों को बोने का काम करती हैं। भारतीय दर्शन अहिंसा परमोधर्मा: की बुनियाद पर टिका है। इसलिये कोई भी हिंसा किसी भी काल में हिन्दुस्तान के नक्शे में जगह नहीं पा सकी। भारत ने तोपों की गड़गड़ाहट और तलवारों की चमक देखी है। बंदूकों की गोलियों ने हिन्दुस्तानियों का सीना छलनी किया लेकिन हिन्दुस्तान टूटा नहीं है, बना है बनता गया है। समाजशास्त्रियों के लिये यह अन्वेषण का विषय होगा कि अरंधति राय नारी होते हुये अनारीपन क्यों कर रही हैं। अरुंधति राय का मन नक्सली हिंसा में जान गंवाने वाले पुलिसकर्मियों के बच्चों और विधवा नारियों के प्रति क्यों नहीं पसीजता। नक्सली हिंसा में बेवजह शिकार हो रहे आदिवासियों के लिये वे क्यों नहीं कोई सोच रखती हैं। नक्सली हिंसा का समर्थन करके अरुंधति राय कई सौ बेगुनाहों की मौत अपने सिर लेना चाहती हैं। संवेदनशील लेखिका का यह चेहरा किसी भी रुप में स्वीकार्य नहीं हो सकता है। ऐसा करके वह लेखन धर्म को भी कलंकित करने का ही काम कर रही हैं। लेखन का क्षेत्र सर्जना से जुड़ा होता है। अरुंधती राय का यह कदम उन्हें लेखन से भी बेदखल कर सकता है। अरुंधती राय को एक बार फिर से गांधी को पढ़ना चाहिये विशेषकर हिन्द स्वराज। लोगों से अपनी बात कहने से पहले वह स्वयं से पूछें और उत्तर लें। वहीं उत्तर उन्हें गांधी की तरफ मोड़ सकता है। संभव हो नक्सलियों के बीच गांधी के हिन्द स्वराज की प्रति वितरित कराएं। संभवत: गांधी के रास्ते नक्सली हिंसा त्याग कर राष्ट्र और समाज की मूल धारा से जुड़ जायें।

मीडिया के लिये जरुरी है कि यदि किसी दिमाग में हिंसा और अपराध का विष पनपने लगे उसका प्रचार न किया जाये। बहुत से समाजशास्त्री और मनोवैज्ञानिक इस बात से सहमत हो सकते हैं कि मनुष्य के अंदर नकारात्मकता का भाव अधिक होता है। वह नकारात्मक चीजें जहां से भी मिले उसकी तरफ लपकने का पहले प्रयास करता है। नकारात्कमता का बढ़ना किसी भी समाज के लिये अच्छा नहीं है। मीडिया की दृष्टि में आज समाचार वही है, जो नकारात्मक हो। अरुंधति राय का नकारात्मक बयान लीड खबर के लिये नहीं होना चाहिये। मीडिया को यह भ्रम भी नहीं पालना चाहिये कि वह चाहे जैसा व्यवहार समाज से करे। वह अपनी मर्जी से समाचारों को तय करे और उसे परोस दे। समाचारों को परोसते समय उसके सामाजिक और मनोवैज्ञानिक प्रभावों का अध्ययन जरुर कर लेना चाहिये। स्वतंत्र मीडिया की दरकार सभी को है लेकिन उसके व्यवहार को लेकर चिन्ता होती है। मीडिया का असंयमित व्यवहार कई चिन्ताओं को बढ़ा देता है। साधारण सोच रखने वाले मनुष्य के लिये यह सोचना कठिन हो जाता है कि क्या सही है और क्या गलत है। जनमत बनाने का काम मीडिया का है, लेकिन यह काम पूरी नैतिकता और ईमानदारी से होना चाहिये। समाज में संशय पैदा करने का भाव मीडिया में नहीं होना चाहिये। यह भी कहना पड़ेगा कि पीली पत्रकारिता के बाद पेड न्यूज के आने से मीडिया पर पैनी नजर रखना समाज के बाकी लोगों का भी दायित्व है। इंटरनेट पत्रकारिता के दौर में इसका जवाब बेहतर तरीके से दिया जा सकता है। और हां, अरुंधती जी फिर से गांधी को अप्रासंगिक कहने की ऐसी गुस्ताखी न करें।