बचपन की आजादी का सवाल

-रामकुमार विद्यार्थी-

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भारतीय आजादी की 67 वीं वर्षगांठ मनाते हुए हमें यह भी देखना होगा कि देश में बच्चों की सुरक्षा और विकास के संदर्भ में हम कहां तक पहुंचे हैं ? खासकर शहरी गरीब बस्तियों में रहने वाले बच्चों को बढ़ते शहरीकरण के बीच सुरक्षित एवं स्वस्थ वातावरण मिलना एक बड़ी चुनौती है।

बच्चों के लिए आजादी का मतलब क्या हो, यही ना कि सभी बच्चों के लिए स्वतंत्र रूप से खेलने की जगह हो। रहने व पढ़ने के लिए बच्चों की सुविधा को ध्यान में रखकर बनाया गया एक घर हो। आवागमन के साधनों में बच्चों के लिए सुविधा व सुरक्षा के प्रबंध किए जायें। खासकर विकलांग और संरक्षण की आवष्यक्ता वाले बच्चों को ध्यान में रखकर विकास व आवास इकाईयों का निर्माण कार्य हो। हालांकि यह सब करने की बात सरकारी नीतियों में कही तो गई है लेकिन उसे अमल में लाया नहीं गया है। तो देश के 90 प्रतिशत झुग्गी बस्तियों में व्याप्त सीवेज, खुले में शौच तथा हर तरफ व्याप्त गंदगी जैसी समस्याओं से सर्वाधिक परेशानी बच्चों को ही उठानी पड़ती है। राजीव आवास योजना के लिए किए गये अध्ययन में ही 38 प्रतिषत स्लम ने कभी कचरा कलेक्शन न होने की समस्या बतायी थी। इन बस्तियों में पानी आने का कोई सही प्रबंध नहीं है इसलिए अनियमित पढ़ाई और स्कूल छूटने का एक बड़ा कारण यह भी है। जिन बस्तियों में गरीबों के लिए सरकारी आवास बनाये जा रहे हैं, वहां भी स्थितियों कुछ बेहतर नहीं है। हालिया आंकड़े बताते हैं कि 67.8 प्रतिषत से अधिक स्लम के 40 प्रतिषत से अधिक हिस्से में सुरक्षित व स्थायी बिजली की कमी है। यहां हर तरफ झूलते और कटे हुए बच्चों के लिए खतरनाक बिजली के तारों का जाल दिखाई देता है।

बालपंचायत भोपाल की अध्यक्ष मनीषा ठाकुर बताती हैं कि झुग्गी बस्तियों को विस्थापित करते अथवा हटाते समय बच्चों की सुविधा का ध्यान नहीं रखा जा रहा है। यहां विस्थापन को लेकर कोई प्लान नहीं होता है कि बच्चे अपना स्कूल, आंगनवाड़ी कैसे नियमित रख सकते हैं। इंदौर के सामाजिक कार्यकर्ता आनंद लाखन के अनुसार परीक्षा और दीपावली जैसे मौके पर बस्तियों को हटाने से बच्चों की आजादी पर न सिर्फ संकट बढ़ा है बल्कि देश के भावी कहे जाने वाले नागरिकों के मन में सरकार  की नकारात्मक व दमनकारी छबि बनी है। ’हमारा बचपन अभियान’ की प्रतिनिधि दमयंती राउत बताती हैं कि बच्चों के लिए आजादी का सही मतलब तो तब होगा जब उन्हें हर जगह चाईल्ड फ्रैंडली वातावरण मिल सके।

देश भर में विभिन्न बाल समूहों से जुड़े बच्चे स्वयंसेवी संस्थाओं के साथ मिलकर सरकार से विकास योजनाओं के नियोजन में अपनी भागीदारी की मांग कर रहे हैं । यह उन शहरों के प्रभावित बच्चे हैं जहां गांव से पलायन कर रह रहे परिवार हैं जो कि खुद तो शहरों को सुंदर बनाने में खून पसीना बहा रहे हैं लेकिन खुद अव्यवस्थाओं में रह रहे हैं। इन 64 प्रतिशत परिवारों के पास स्थायी आय का जरिया नहीं है। जिनमें अकेले भोपाल शहर को देखें तो यहां 37 प्रतिशत परिवारों की कमाई 3000 के अंदर तथा 5 प्रतिशत परिवारों की कमाई 1000 के अंदर बतायी गई है।

शिक्षा अधिकार कानून में नजदीकि प्राइमरी स्कूल 1 कि.मी. के दायरे में होने की बात कही गई है जबकि राजधानी के ही 56.3 प्रतिशत स्लम नजदीकि प्राइमरी स्कूल से 2 कि.मी. दूरी पर हैं तथा 17.5 प्रतिशत स्लम तो 4 से 5 कि.मी. दूरी पर हैं। यहां सरकारी स्कूलों तक आने जाने के लिए बच्चों के सुविधा अनुकूल सुरक्षित ट्रांसपोर्ट के साधन ही नहीं हैं । अकेले म.प्र. में ही 7 लाख बाल मजदूरों बालश्रम के जमे हुए आंकड़े और रोजाना गुम होते बच्चों के साथ 42 प्रतिशत से अधिक बच्चों में कुपोषण व डायरिया की हकीकत बताती है कि देश – प्रदेश के करोड़ों बच्चों के लिए आजादी अभी भी महज एक दिन खुश हो लेने से ज्यादा महत्वपूर्ण नहीं जान पड़ता है। एैसे में सरकार व शासन के लिए बाल केंद्रित सामुदायिक विकास की नीतियों को अमल में लाना और इसके लिए पर्याप्त बजट की व्यवस्था व संसाधन जुटाकर ही बच्चों के लिए आजादी के अच्छे दिन लाये जा सकेंगे।

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