राजनीति

‘अराजकता का पैरोकार बनकर ‘सुराज’ का सपना नहीं देखा जा सकता’

-आलोक कुमार-   religion-politics-300x240

संविधान पर आस्था, लोकतंत्र पर विश्वास, संवैधानिक संस्थाओं का सम्मान और न्याय व्यवस्था पर भरोसा जैसे शब्द अभी भी हमारे देश में काफी मायने रखते हैं। इनका उपहास उड़ाकर ‘हासिल’ करने की प्रवृत्ति से प्रेरित राजनीति से तात्कालिक रूप से ‘सुर्खियां’ तो बटोरीं जा सकती हैं लेकिन किसी दूरगामी लक्ष्य की प्राप्ति कदापि सम्भव नहीं है। अराजकता का पैरोकार बनकर ‘सुराज’ का सपना नहीं देखा जा सकता। ‘सुराज’ के लिए स्वस्थ -व्यवस्था एवं सर्वमान्य व् अनुशासित मापदंडों की आवश्यकता होती है। शासन केवल सत्ता और क्षणिक लोकप्रियता तक ही सीमित नहीं है , इसमें अनेकों नैतिक मूल्य भी निहित हैं। एक शासक की भी सीमाएं हैं जिनके अंदर रहकर ही नीति और तर्कसंगत शासन और शुचिता की अवधारणाएं स्थापित की जा सकती हैं, केवल स्थापित-संस्थाओं के विरुद्ध आक्रोश और उद्वेग का प्रसार करना असुरक्षा और अविश्वसनीयता का ही परिचायक होता है।

जन-जीवन शासक के शब्दों से भी प्रेरणा लेता है और उस के अनुरूप व्यवहार भी करता है। इसलिए शासक का सबसे महत्वपूर्ण दायित्व ही है ‘सु-आचरण’। एक शासक ही जब स्थापित मूल्यों एवं संस्थागत -नीतियों का उल्लंघन करता दिखेगा तब तो स्वाभाविक ही है कि उसकी अनुगामी जनता भी वैसा ही आचरण करेगी जिससे अराजकता और असमंजस की स्थितियों की उत्पति होगी। ‘सुराज’ कायम करने के नाम पर ऐसी स्थितियों के पक्षधर होने को किसी भी तरह से उचित नहीं ठहराया जा सकता है क्यूँकि ऐसी स्थितियां ही आगे चलकर एक व्यापक विकृत रूप धारण कर ‘ भीड़-तंत्र, राष्ट्रद्रोह एवं क़ानून के प्रतिक्षोभ व अवज्ञा की भावना’ को जन्म देती हैं।

हमारे देश की वर्त्तमान व्यवस्था में संविधान सर्वोपरि है, इसलिए ये अनिवार्य और सत्यापित है कि हमारे देश में संविधान पर आस्था रखकर गणतंत्र को सशक्त बनाने वाला’ सुराज का सिद्धांत’ ही सर्वमान्य होगा। वहीं दूसरी तरफ संविधान विरोधी, लोकतंत्र विरोधी, नक्सलवाद, अलगाववाद जैसे राष्ट्रविरोधी दृष्टिकोण उभरकर तो आते हैं लेकिन इनकी व्यापक स्वीकार्यता ना कभी रही है और न ही इन पर आधारित राजनैतिक विचारधारा से उभरकर आई कोई भी व्यवस्था स्थापित हो सकी है। ‘सुराज’ का सार अपार है। सुराज में ‘अहिंसा’ भी समाहित है। ‘अहिंसा’ का अर्थ किसी जीव को केवल शारीरिक कष्ट पहुंचाना नहीं है, बल्कि आचरण एवं वाणी द्वारा भी किसी को कष्ट पहुंचाना भी ‘हिंसा’ की श्रेणी में ही आता है। तात्पर्य है कि किसी को मारना अथवा पीटना ही नहीं, अपितु यदि किसी को मानसिक अथवा जुबानी तौर पर भी आहत किया जाता है, वह भी ‘हिंसा’ ही है और बिना ‘अहिंसा ‘ को आत्म-सात किए ‘सुराज ‘ की प्राप्ति महज कोरी परिकल्पना है। निःसंदेह ‘सुराज ‘ में कायरता एवं कमजोरी के लिए कोई स्थान नहीं है। लेकिन ‘सुराज’ के नाम पर लांछन और दोषारोपण की अतिशयता को निर्भीकता व् सशक्ता के विकल्प के रूप में अनुमोदित व परिभाषित करना भी नीति-संगत, न्याय -संगत एवं तर्क-संगत नहीं है। ‘सुराज’ व्यक्तिगत अवधारणा नहीं है, अपितु ये एक दीर्घकालिक प्रक्रिया है जिसे त्वरित कदापि नहीं हासिल किया जा सकता। इसमें समाहित मूल्यों और सिद्धांतों का व्यवस्था में समावेश अभ्यास और आचरण के द्वारा ही सम्भव है।

“सुराज ” का सबसे श्रेष्ट मानक “राम-राज्य ” रहा है। जैसे राम ने सबसे पहले अपने लिए मर्यादाओं के मापदंड बनाए वैसे ही आज भी शासक को ‘सुराज’ की बात करने से पहले अपनी सीमाएं निर्धारित करनी होंगीं। राम राजतिलक के लोभ और मोह का परित्याग कर चौदह दुरह वर्षों तक अपने को तपाते हैं , इसके लिए राम कैकेयी, मंथरा पर दोषारोपण करते नहीं दिखाई देते, ना ही कैकेयी व मंथरा के साथ राज-सिंहासन के लिए कोई अनैतिक गठजोड़ में शामिल होते हैं। ‘राम -राज्य’ में एक आम प्रजा की शंका पर ही सीता ‘अग्नि-परीक्षा” देती दिखाई देती हैं। ‘राम-राज्य’ में राम क़ानून एवं उस में निहित मर्यादों का सर्वप्रथम स्वयं ही पालन करते दिखते हैं। ‘राम-राज्य’ में राम क़ानून एवं उस में निहित मर्यादों का सर्वप्रथम स्वयं ही पालन करते दिखते हैं।

राज-धर्म ‘ का निर्वहन सर्व-मान्य मूल्यों पर निर्धारित करना होगा। आधुनिक काल में गाँधी के ‘सच्चे स्वराज’ की सोच भी ‘सुराज ‘ का ही प्रारूप थी। गांधी स्पष्ट तौर पर कहते थे कि ‘‘सच्चा स्वराज मुठ्ठीभर लोगों द्वारा संघर्ष और सत्ता-प्राप्ति से नहीं आएगा, बल्कि सत्ता का दुरूपयोग किए जाने की सूरत में, उसका प्रतिरोध करने की जनता के सामर्थ्य विकसित होने से आएगा।’’ गांधी बार-बार कहते थे कि ‘स्वराज’ एक पवित्र शब्द है जिसका अर्थ है ‘स्वशासन’ तथा ‘आत्मनिग्रह’ है।

आज ‘सुराज’ की परिकल्पना शासन-प्रशासन मुखापेक्षी तथा सत्ता को ही सर्वोपरि मान कर की जा रही है। ‘सुराज’ की सोच और स्वीकार्यता क्षेत्र में सीमित नहीं बल्कि विस्तृत होनी चाहिए। इसके लिए सत-प्रयास की जरूरत है । ‘सुराज’ किसी प्रजातिगत, राजनैतिक अथवा धार्मिक भेदभावों को नहीं मानता, न ही ‘स्वयं’ की तरफदारी करता है। ‘सुराज’ के मानक भी सबों के लिए एक ही होंगे, ‘सुराज’ तभी सार्थक होगा जब ये ‘सबों के लिए, सबों के द्वारा होगा। ‘सच्चा ‘सुराज’ वही होगा जो सर्वव्यापी होगा। ‘स्वहित’ को केंद्र में रखकर रची गयी ‘सुराज’ की सोच केवल अराजकता व् अनर्गल -प्रलापों की ही उत्पति कर सकती है। ‘सुराज’ में क़ानून और विधान केवल शासित के लिए ही नहीं होते बल्कि शासक भी उससे बंधा होता है।