आगे की सुधि लेय / विजय कुमार

0
140

पिछले दिनों सम्पन्न हुए पांच राज्यों के चुनावों के बारे में बहुत कुछ कहा और लिखा गया है। ‘जाकी रही भावना जैसी, प्रभु मूरत देखी तिन तैसी’ के अनुसार सबने इनका आकलन अपनी-अपनी तरह से किया है। किसी को इसमें राष्ट्रीय दलों का पराभव दिखाई दे रहा है, तो किसी को मजहबी शक्तियों का उभार। कोई क्षेत्रीय दलों के बढ़ते प्रभाव से खुश है, तो कोई दुखी। ठीक भी है; जिसके चश्मे का रंग जैसा, उसके लिए परिणाम भी वैसे होंगे ही।

गोवा के निष्कर्ष साफ हैं। लोग खनन माफिया और उन्हें कांग्रेस शासन द्वारा मिल रहे संरक्षण से नाराज थे। भाजपा ने साफ छवि वाले मनोहर पर्रिकर के नेतृत्व में चुनाव लड़ा। अतः लोगों ने उन्हें बहुमत दिया। कुछ लोग इस पर बहुत शोर मचा रहे हैं कि गोवा में ईसाइयों ने भी भाजपा को समर्थन दिया है। यह तथ्य सही है; पर इससे गोवा या देश भर के ईसाई भाजपाई हो गये हैं, यह भ्रम है।

वस्तुतः वहां के ईसाई भी आम नागरिकों की तरह माफियाओं की गुंडागर्दी से दुखी थे। इस माफिया राज को हटाने का एकमात्र विकल्प होने के कारण उन्होंने भाजपा को वोट दिया। फिर भाजपा ने कई ईसाई प्रत्याशी भी खड़े किये थे; पर लोकसभा चुनाव में जब उनके सामने मैडम इटली वाली कांग्रेस और भाजपा में से किसी एक को चुनना होगा, तो उनकी पंसद कांग्रेस ही होगी।

पंजाब में अकाली-भाजपा गठबंधन ने सभी अनुमानों को ध्वस्त किया है। भाजपा के विधायक कम हुए हैं, जबकि अकाली विधायक बढ़े हैं। कांग्रेस को जनता ने नकार दिया है। मनप्रीत सिंह बादल को कांग्रेस ने ही आगे किया था; पर वह कांग्रेस के लिए भस्मासुर सिद्ध हुआ। मणिपुर में कांग्रेस के विरोध में कोई प्रमुख दल नहीं था। इसलिए उसे जीतना ही था। तृणमूल कांग्रेस के कुछ प्रत्याशियों की जीत पूर्वांचल में ममता बनर्जी का बढ़ते प्रभाव का परिणाम है; पर अगले लोकसभा चुनाव तक इसका बने रहना असंभव है।

एक स्थान के अंतर से सत्ता के समीकरण कैसे बदलते हैं, यह उत्तराखंड में प्रत्यक्ष दिखाई दे रहा है। भाजपा ने भुवन चंद्र खंडूरी के नेतृत्व में सफल अभियान किया; पर वहां बहुत से लोग अपने ही प्रत्याशियों को हराने में लगे थे। किसी के लिए जीत प्रतिष्ठा का प्रश्न बनी थी, तो किसी के लिए हार। इसीलिए जनता ने दोनों दलों को सबक सिखाया है।

शत्रु से लड़ना आसान है; पर शत्रु और मित्र दोनों से एक साथ लड़ना कठिन। यह उत्तराखंड में सबने अनुभव किया है। कांग्रेस शासन कब तक चलेगा, कहना कठिन है। यदि भाजपा को सरकार बनाने का अवसर मिलता, तो वहां भी ऐसी ही उठापटक होती। कुछ समीक्षकों का मत है कि शीघ्र ही वहां विधानसभा के चुनाव फिर होंगे। भाजपा यदि तोड़फोड़ से सरकार बनाने का प्रयत्न न करे तथा विपक्ष की भूमिका ठीक से निभाए, तो उसे अगली बार पूर्ण बहुमत मिलेगा। अतः अगला एक वर्ष वहां की राजनीति में बहुत महत्वपूर्ण है।

उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी की ऐसी जीत तथा बाकी सबकी हार की आशा किसी को नहीं थी। सर्वेक्षण भी त्रिशंकु विधानसभा की बात कह रहे थे; पर जो हुआ, वह सबके सामने है। सोनिया मैडम ने तो मान लिया है कि कांग्रेस में नेता अधिक थे; पर भाजपा ने अब तक इसे नहीं माना है। भाजपा के लिए तो शायद यह कहना उचित होगा कि वहां जनाधारहीन नेता अधिक थे।

किसी भी युद्ध में सेनापति की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण होती है। सपा में अखिलेश यादव सामने थे, तो बसपा में मायावती; पर कांग्रेस और भाजपा में कोई सेनापति ही नहीं था। चुनाव के बाद बहुत से लोगों ने माना है कि यदि कांग्रेस राहुल को मुख्यमंत्री का प्रत्याशी घोषित कर देती, तो उसे दुगने स्थान मिल जाते।

यही हाल भाजपा में भी रहा। यद्यपि नितिन गडकरी ने अंतिम दिनों में उमा भारती का नाम आगे किया; पर तब तक अधिकांश वोट पड़ चुके थे। यदि यही काम वे एक साल पहले कर देते, तो भाजपा भी मुख्य लड़ाई में आ जाती; पर उमा भारती को हाशिये पर करने का प्रयास वे सब नेता करते रहे, जो पुराने तो हैं; पर चुनाव जीतना या जिताना अब उनके बस की बात नहीं रही। अर्थात यहां भी सेनापति का एक हाथ शत्रु पर प्रहार में व्यस्त था, तो दूसरा मित्रों के प्रहार रोकने में। ऐसे में युद्ध कैसे जीता जा सकता है ?

लोकसभा में उ0प्र0 से सबसे अधिक सांसद चुने जाते हैं। इसलिए इस समय मुलायम सिंह का दिमाग आसमान पर है। वे चाहते हैं कि मध्यावधि चुनाव शीघ्र हों, जिससे वे प्रधानमंत्री बन सकें। उन्हें यह भी पता है कि उ0प्र0 में उनकी सफलता का श्रेय मुसलमानों को है, इसलिए वे 18-20 प्रतिशत आरक्षण देकर अपने इस वोट बैंक को और पक्का कर लेना चाहते हैं। यद्यपि बहुत से विश्लेषकों का मत है कि सपा की सफलता का रहस्य जितना मुसलमान वोटों को है, उतना ही भाजपा तथा कांग्रेस की नेतृत्वहीनता को भी है। यदि ये दोनों दल सही समय से उचित नेतृत्व की घोषणा करते, तो भ्रष्ट मायावती को हटाने को प्रतिबद्ध जनता सपा के पाले में इतनी अद्दिक संख्या में नहीं जाती।

उ0प्र0 में सपा की जीत से भारतीय राजनीति में मुसलमानों का प्रभाव तथा आतंक अब और बढ़ेगा। बिहार में भाजपा के सहयोग से शासन कर रहे नीतीश कुमार का और बंगाल में ममता बनर्जी का रुख मुसलमानों के प्रति समर्पण का है। कांग्रेस तो केन्द्र में कई ऐसे कानून पारित कराना चाहती है, जिससे हिन्दुओं का मनोबल टूट जाए तथा मुगल राज्य की तरह हिन्दू फिर से देश में दो नंबर के नागरिक बनकर रह जाएं। ऐसे में देशभक्त संगठनों तथा राजनीतिक दलों के लिए चुनौती बहुत बढ़ गयी है।

केन्द्र को साधने के लिए उ0प्र0 को साधना अति आवश्यक है। प्रदेश में व्यापक परिचय रखने वाले कलराज मिश्र की संगठन क्षमता निर्विवाद है। दूसरी ओर कुशल वक्ता तथा संघर्षप्रिय उमा भारती हर वर्ग में लोकप्रिय हैं। ये दोनों विधानसभा में भी पहुंच गये हैं। मायावती ने विधानसभा से पलायन कर इनके लिए मार्ग खाली कर दिया है। यदि इन्हें काम करने का पूरा अवसर मिले, तो दो साल में चित्र बदल सकता है। बसपा के प्रतिबद्ध वोटर मायावती से निराश हैं। हिन्दू होने के नाते वे थोड़े प्रयास से ही भाजपा से जुड़ सकते हैं। शेष पुत्रप्रेमी, जनाधारहीन नेताओं को उनकी अब तक की सेवाओं के लिए धन्यवाद कहकर छुट्टी दे देनी चाहिए।

चुनाव में जीतने के लिए नेता, नारा, कार्यकर्ता, प्रत्याशी, वातावरण और रणनीति का उचित समन्वय चाहिए। 2014 में लोकसभा के चुनाव प्रस्तावित हैं। यदि उसमें भाजपा को जीतना है, तो इन बिन्दुओं पर अभी से ध्यान देना होगा। भाजपा की ओर से प्रधानमंत्री पद का प्रत्याशी कौन होगा, इसका निर्णय शीघ्र होना चाहिए।

श्री लालकृष्ण आडवाणी कितने ही अच्छे व्यक्ति हों; पर वे युवाओं को आकर्षित नहीं कर सकते। अरुण जेतली, सुषमा स्वराज, राजनाथ सिंह आदि कितने ही अच्छे वक्ता हों; पर उनका जनाधार नहीं है। अतः भाजपा को अपने मुख्यमंत्रियों में से किसी को आगे लाना होगा। इस दृष्टि से नरेन्द्र मोदी और शिवराज सिंह चौहान के नामों पर विचार होना चाहिए। ये दोनों अन्य पिछड़ा वर्ग (ओ.बी.सी) से होने के कारण वर्तमान जातीय समीकरणों पर भी खरे उतरते हैं।

गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी की छवि हिन्दुत्वप्रेमी, कठोर प्रशासक, लोकप्रिय जननेता, कुशल वक्ता तथा विकास पुरुष की है। देशभक्त लोग उन्हें खुलकर वोट देंगे। शिवराज सिंह ने भी म0प्र0 में अच्छा काम किया है। संगठन से उनका तालमेल भी ठीक है। उ0प्र0 के बाद सर्वाद्दिक सांसद म0प्र0 से ही आते हैं। उनके नाम पर भाजपा हिन्दीभाषी उ0प्र0, म0प्र0, बिहार, झारखंड, राजस्थान, छत्तीसगढ़, दिल्ली, हिमाचल आदि से 150 तथा शेष देश से 50 स्थान आसानी से जीत सकती है। ऐसा होने पर छुटभैये दल स्वतः इनके साथ आ जाएंगे। भाजपा को इस बारे में शीघ्र निर्णय करना चाहिए। अन्यथा नेतृत्वहीनता के कारण उ0प्र0 जैसा हाल होगा।

जहां तक कांग्रेस की बात है, तो उ0प्र0 में कांग्रेस की दुर्गति के बाद रहस्यमय बीमारी से ग्रस्त सोनिया मैडम का राहुल को प्रधानमंत्री बनाने का सपना टूट गया है। कांग्रेस वाले भी समझ गये हैं कि लोग फिल्म या क्रिकेट के सितारों की तरह राहुल का चिकना चेहरा देखने तो आते हैं; पर वोट नहीं देते। मनमोहन सिंह अगले चुनाव में खड़ाऊं उठाने को तैयार नहीं है। ऐसे में प्रधानमंत्री पद के लिए ईसाई होने के कारण सोनिया मैडम की पसंद ए.के.एंटनी हो सकते हैं।

अगले एक-दो साल में जहां विधानसभा चुनाव होने हैं, वहां कांग्रेस का हाल बेहाल है। गुजरात, म0प्र0 और छत्तीसगढ़ में भाजपा की जीत, जबकि राजस्थान में कांग्रेस की हार निश्चित है। कर्नाटक में भाजपा यदि समय रहते सुधर जाए, तो वहां भी नाक बच सकती है। अर्थात लोकसभा चुनाव से पूर्व कांग्रेस की हालत और खस्ता होनी है; पर यदि भाजपा ने पर्याप्त समय पूर्व तैयारी नहीं की, तो उसकी भी दुर्दशा होगी। ऐसे में छोटे दल फिर कांग्रेस के साथ जाने को मजबूर होंगे। मुलायम सिंह, नीतीश कुमार और ममता बनर्जी जैसे अवसरवादी, मुस्लिमपरस्त नेता दो बिल्लियों की लड़ाई में बंदर की भूमिका निभाकर प्रधानमंत्री बनना चाहते हैं।

ऐसे में एक बार फिर ‘बीती ताही बिसार के, आगे की सुधि लेय’ वाली बात याद आती हैं। क्या समझदार लोग इशारा समझेंगे ?

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

* Copy This Password *

* Type Or Paste Password Here *

17,871 Spam Comments Blocked so far by Spam Free Wordpress