जनलोकपाल विधेयक का अंत आख़िरकार भारतीय संसदीय इतिहास के एक तमाशे के रूप में हो गया। संसद का सत्र खासतौर पर इसी विधेयक को पारित कराए जाने के कथित मकसद से बढ़ाया गया था। बहरहाल देश की जनता ने यह बखूबी देख लिया कि जो संसद अपने सदस्यों के हितों संबंधी फैसले सर्वसम्मत से बिना किसी शोर-शराबे के ले लिया करती है वही संसद लोकपाल विधेयक पारित कराने को लेकर कितनी गंभीर है। पूरे देश ने देखा कि लोकपाल बिल पर केंद्रित चर्चा करने के बजाए उसे लेकर धर्म-जाति तथा अन्य अर्थहीन बातों में संसद का समय व विशेष सत्र बरबाद कर दिया गया। अब आरोप-प्रत्यारोप का दौर शुरु है। तथा प्रत्येक राजनैतिक दल उस विधेयक के संबंध में उठाए गए अपने कदम को उचित ठहराने की कोशिश कर रहा है।
बहरहाल, लोकपाल विधेयक अनिश्चितकाल के लिए एक बार फिर लटक गया है। इसके भविष्य को लेकर प्रश्रचिन्ह लग चुका है। परंतु हमारे देश की भ्रष्टाचार से दु:खी जनता तथा अपनी अंतर्रात्मा से देश को भ्रष्टाचार से मुक्त कराने की आकांक्षा रखने वाले लोग अन्ना हज़ारे का एहसान कभी नहीं भूलेंगे। देश के इतिहास में पहली बार किसी साधारण व्यक्ति ने अपनी साधारण शैली का प्रदर्शन करते हुए तथा काफी हद तक गांधीजी के नक्शे कदम पर चलते हुए देश की भ्रष्ट राजनैतिक व्यवस्था को झकझोरने का शानदार काम किया है। निश्चित रूप से मुंबई में उनके अनशन को भारी व टीम अन्ना द्वारा अपेक्षित जनसमर्थन नहीं मिला। परंतु इसका अर्थ यह नहीं है कि जो लोग मुंबई में अन्ना के साथ जुटे उनकी आवाज़ कम,बेअसर या बेमानी है। बड़े आश्चर्य की बात है कि अन्ना हज़ारे के आंदोलन की सफलता व असफलता को भीड़ के पैमाने से नापने की कोशिश की जा रही है।
जहां तक भीड़ का प्रश्र है तो निश्चित रूप से देश के सभी राजनैतिक दल अधिक से अधिक भीड़ इकट्ठी करने की क्षमता रखते हैं। मैं यह भी मानता हूं कि राजनैतिक पार्टियां जब और जहां चाहें लाखों की भीड़ बड़े ही नियोजित तरीके से इकठ्ठा कर सकती हैं व करती रहती हैं। परंतु अन्ना हज़ारे के साथ जुड़ी भीड़ दरअसल मात्र सिर गिनने वाली भीड़ नहीं होती बल्कि अपनी इच्छा से अपने खर्च पर तथा बिना निमंत्रण के व बिना किसी प्रायोजित साधन या प्रायोजित यातायात का सहारा लिए स्वयं अपने कंधों पर अपने कपड़े रखकर आंदोलन स्थल तक पहुंचती रही है। इस भीड़ की तुलना सिर गिनने वाली राजनैतिक रैलियों की उस भीड़ से हम कतई नहीं कर सकते जिनमें कई तो यह भी नहीं जानते कि हम कहां और क्यों जा रहे हैं। और न ही वे दिहाड़ी मज़दूर होते हैं। लिहाज़ा स्वेच्छा से भ्रष्टाचार के विरुद्ध एकजुट होने वाली भीड़ का एक-एक सदस्य अत्यंत जागरुक माना जाना चाहिए। सजग व देशभक्त समझा जाना चाहिए। ऐसे में इनकी आवाज़ को हल्के ढंग से लेना सरकार की नासमझी है।
अन्ना हज़ारे के आंदोलन को कमज़ोर करने के लिए सर्वप्रथम उनपर सबसे बड़ा अस्त्र यह चलाया गया कि वे आरएसएस की शह पर कांग्रेस सरकार का विरोध लोकपाल विधेयक को मात्र मुद्दा बनाकर कर रहे हैं। उधर अन्ना हज़ारे व उनके सहयोगियों द्वारा इस बात का खंडन किया जाता रहा। संभव है भविष्य में ऐसे कोई ठोस प्रमाण मिलें जिससे शायद यह पता चले कि अन्ना हज़ारे के आंदोलन के पीछे संघ परिवार का हाथ था। परंतु मुझे व्यक्तिगत् रूप से ऐसा कुछ $खास नज़र नहीं आता। हां इस प्रकरण में जंतर-मंतर के आंदोलन तक तथा अन्ना हज़ारे के अगस्त के रामलीला मैदान के अनशन व बाबा रामदेव के रामलीला मैदान के कार्यक्रम में व राष्ट्रीय स्तर पर उस समय आयोजित भ्रष्टाचार संबंधी कार्यक्रमों में संघ परिवार के लोग खुलकर इन आंदोलनों का साथ दे रहे थे। निश्चित रूप से यह उस सूक्ति का हिस्सा था जिसमें कि दुश्मन का दुश्मन अपना दोस्त हो सकता है। उस दौरान जहां तक बाबा रामदेव का प्रश्र है तो उनके इर्द-गिर्द तो संघ परिवार के कई लोग उनकी स्टेज को सांझा करते भी देखे गए। बाबा रामदेव ने भी स्वयं कभी संघ के समर्थन का खंडन भी नहीं किया। परंतु अन्ना हज़ारे के साथ ऐसा नहीं था। उन्होंने व उनकी टीम ने अपने ऊपर लगने वाले संघ के संबंध के आरोपों का बार-बार खंडन किया। उनके इस खंडन के बाद कई स्वर ऐसे भी उठते दिखाई दिए जिनमें यह कहा जा रहा था कि आ$िखर अन्ना हज़ारे संघ के आंदोलन में साथ होने की बात को स्वीकार क्यों नहीं कर लेते। परंतु अन्ना ने कभी भी यह स्वीकार नहीं किया। और शायद अन्ना द्वारा बार-बार संघ से अपने आंदोलन के रिश्ते को नकारने की वजह से ही इस बार मुंबई सहित राष्ट्रीय स्तर पर संघ परिवार के लोग उनके साथ खड़े नहीं हुए। अन्यथा यदि इस बार भी संघ परिवार अन्ना हज़ारे के आंदोलन के साथ होता तो शायद यह आंदोलन इस प्रकार असफल न हो पाता।
बहरहाल, लोकपाल विधेयक को लेकर संसद में हुई उठा पटक तथा राष्ट्रीय जनता दल के राज्य सभा सदस्य राजनीति प्रसाद द्वारा संसदीय मर्यादाओं का गला घोंटते हुए उनके हाथों बिल की प्रति फाड़े जाने तक के घटनाक्रम को पूरे देश के जागरूक लोगों ने $गौर से देखा है। इसी घटना के बाद संसद अनिश्चितकाल के लिए स्थगित कर दी गई। कहा यह भी जा रहा है कि राजनीति प्रसाद ने यह कार्य कांग्रेस पार्टी के इशारे पर किया था। बिल फाडऩे वाले इस सांसद को राज्यसभा के किसी एक भी सदस्य का समर्थन हासिल नहीं था। देश के संसदीय इतिहास में आज तक कोई भी बिल इतने लंबे समय अर्थात् लगभग 4 दशक तक संसद में लंबित नहीं रहा। कोई बिल इतना विवादित नहीं हुआ तथा किसी बिल को लेकर राजनैतिक दलों की इतनी कलाबाजि़यां व नौटंकियां कभी नहीं देखनी पड़ीं।
अब लोकपाल बिल के ताज़ा हश्र को देखने के बाद आ$िखर देश की जनता को यह सोचने से कौन रोक सकेगा कि हमारे संसदीय लोकतंत्र के रखवाले देश से भ्रष्टाचार मिटाने के लिए गंभीर $कतई नहीं हैं। उन्हें यह सोचने से कैसे रोका जा सकेगा कि कहीं इस संसदीय व्यवस्था से जुड़े लोग सख़्त व कारगर लोकपाल बिल से इसलिए तो नहीं कतरा रहे क्योंकि वे स्वयं को शिकंजे में फंसाना नहीं चाहते? यदि देश की जागरूक जनता ने अपने मन में देश के राजनीतिज्ञों के प्रति ऐसी धारणा बना ली फिर आ$िखर इन राजनैतिक दलों की व संसद में तमाशा करने वाले नेताओं की विश्वसनीयता का क्या होगा? आए दिन अधिक से अधिक मतदान करने के लिए जनता को जागरूक करने की मुहिम छेडऩे वाली सरकारें देश में मतदान के प्रति जनता के मोह भंग होने से कैसे रोक सकेंगी? और यदि भारतीय जनमानस ने अपनी नज़रों से देश के नेताओं को गिरा दिया तो भारतीय चुनाव व्यवस्था के साथ-साथ भारतीय लोकतंत्र की चूले भी हिल जाएंगी। लिहाज़ा वक्त का त$काज़ा यही है कि जिस प्रकार भारतीय संसद के प्रति जनता का यह विश्वास है कि यह मात्र एक विशाल भवन नहीं बल्कि देश के लोकतंत्र का सबसे बड़ा मंदिर है, वह विश्वास कायम रहे।
और जिस प्रकार संसद में लोकपाल विधेयक के पक्ष में ज़बानी तर्क देने का ‘तमाशा’ करते सभी राजनैतिक दल केवल ‘दिखाई’ देने की कोशिश कर रहे थे, उस खोखले प्रदर्शन के बजाए संसद को भ्रष्टाचार निवारण हेतु बनाए जाने वाले कानून के प्रति अत्यंत ईमानदार,पारदर्शी व गंभीर होने की आवश्यकता है। भारतीय संसद में वतन के रखवाले बने बैठे यह राजनेता इस बात का भी ध्यान रखें कि वे अपनी इन ढोंगपूर्ण कारगुज़ारियों से केवल देश की जनता के मध्य ही अपनी विश्वसनीयता नहीं खो रहे हैं बल्कि पूरी दुनिया की नज़रें भी इस समय भारत में छिड़ी भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम पर टिकी हुई हैं। ऐसे में मज़बूत लोकपाल विधेयक का देश की संसद में परित न हो पाना देश व दुनिया के लिए भारतीय राजनीतिज्ञों की कैसी साख बनाएगा, इस बात का स्वयं अंदाज़ा लगाया जा सकता है।
अपनी जड़े कौन और क्यों खोदेगा, कितने प्रतिशत नेता आज ब्र्हश्ताचार से विहीन हैं…. ये सभी नाटक ही चल रहा है असली इलाज क्रांति से ही संभव है….. जो कौम बलिदान देना नहीं जानती वो इसी तरह पिसती व् गुलाम रहती है ….आज हम सभी इन काले अंग्रेजों के गुलाम ही तो हैं ये बातों के बाजीगर हैं सच को झूठ बनाकर विरोधी को मार डालने से भी परहेज नहीं करते …..आज हमारा देश दुर्भाग्यशाली व् गुलाम ही है….
मनमोहन सिंह जी कह रहे हैं: “धैर्य रखें…सरकार ने भ्रष्टाचार पर उठाए कदमों के परिणाम का इंतज़ार करें…!”
क्या इतनी लाचार और मजबूर हो गयी है कांग्रेस कि उसे ऐसी अविश्वसनीय भाषा में प्रजा को संबोधन करना पड़ रहा है…
प्रधान मंत्री जी आपका इतना भर कह देने से प्रजा का विश्वास कभी अर्जित नहीं किया जा सकेगा…
प्रजा कि नब्ज़ पकड़ने में बहुत देर हो चुकी है, होती जा रही है…मजबूत लोकपान बिल को बिना विघ्न जल्दी ले आईये और पारित कीजिये … बेहद दुखद है ढूलमूल रवैया… लोकशाही में प्रजा के विश्वास को प्राप्त करने से बढ़कर कुछ भी नहीं… प्रजा की आत्मा की आवाज़ अनसुनी होती जा रही है…