कमलेश पांडेय

कमलेश पांडेय

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वरिष्ठ पत्रकार व राजनीतिक विश्लेषक

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राजनीति

भारत को मजबूत बनाने के लिए नरेंद्र मोदी की कीप एंड बैलेंस थ्योरी को ऐसे समझिए

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कमलेश पांडेय 21वीं सदी के एशियाई बिस्मार्क समझे जाने वाले भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की ‘कीप एंड बैलेंस’ थ्योरी से जहां विकसित देश अमेरिका, रूस, चीन हैरान-परेशान हैं, वहीं भारत ग्लोबल साउथ यानी तीसरी दुनिया के देशों के दूरगामी हितों की हिफाजत करते हुए तेजी से आगे बढ़ता जा रहा है। यह बात मैं नहीं कह रहा हूँ बल्कि अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंफ, रूसी राष्ट्रपति ब्लादिमीर पुतिन और चीनी राष्ट्रपति शी चिनफिंग द्वारा वक्त-वक्त पर की हुई बयानबाजियां इस बात की चुगली करती हैं। इसके अलावा भी बहुतेरे राष्ट्राध्यक्ष हैं जो कुछ ऐसी ही बातें छेड़ चुके हैं, जो गलत भी नहीं है। समझा जाता है कि जैसे भारतीय सियासत में उन्होंने अटलबिहारी बाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी और मुरली मनोहर जोशी जैसे कद्दावर नेताओं को साधते हुए नरेंद्र मोदी ने खुद को एक आदमकद चेहरे के रूप में स्थापित करते हुए पहले मुख्यमंत्री, फिर प्रधानमंत्री बने। ठीक वैसे ही अब अमेरिका, रूस और चीन को साधते हुए वो भारत के नेतृत्वकर्ता के तौर पर अपने राष्ट्र को एक अग्रणी विकसित देश की कतार में खड़ा करके ही दम लेंगे। उनके द्वारा पिछले 10-11 साल में जो युगान्तकारी निर्णय लिए गए हैं, वह भी इसी ओर इशारा करते हैं। इसे मोदी भारत का अमृतकाल भी करार देते आए हैं। अपनी हालिया अमेरिकी यात्रा (12-13 फरवरी 2025) के दौरान एक बार फिर से उन्होंने जिस द्विपक्षीय सूझबूझ कूटनीतिक चतुराई का परिचय दिया है, यह उसी का नतीजा है कि अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंफ को भी यहां तक कहना पड़ा कि “भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी एक टफ निगोशिएटर हैं। वह मुझसे कहीं ज्यादा सख्त वार्ताकार हैं और मुझसे कहीं अच्छे वार्ताकार भी हैं। इसमें उनका कोई मुकाबला ही नहीं है।”  जाहिर है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी एक दोस्त के रूप में दिलेर होने के साथ-साथ बेहद प्रोफेशनल भी हैं। यही वजह है कि पिछले एक दशक में वैश्विक दुनियादारी में भारत का कद और पद बहुत ऊंचा उठा है। कई मामलों में वो देश के पहले प्रधानमंत्री और आधुनिक भारत के निर्माता जवाहरलाल नेहरू के रिकॉर्ड की बराबरी कर चुके हैं या फिर उसे तोड़ चुके हैं, जो साधारण बात नहीं है। उनके नेतृत्व में भाजपा और उनके संरक्षक के रूप में आरएसएस की भी देशव्यापी साख बढ़ी है। अंतर्राष्ट्रीय कुटनीतिज्ञ बताते हैं कि जिस तरह से उन्होंने अमेरिकी नेतृत्व वाले ‘नाटो’ और रूसी (सोवियत संघ) नेतृत्व वाले ‘सीटो’ से जुड़े देशों को एक साथ साधा है, कुछ को अपने पाले में कर लिया है, वह काबिलेतारीफ है। वहीं, चीनी नेतृत्व वाले ब्रिक्स में रूसी सलाह पर बने रहने के साथ-साथ अमेरिकी नेतृत्व वाले क्वाड में भी सम्मान जनक रूप से जमे रहना कोई साधारण कूटनीतिक गेम नहीं है।  वहीं, खास बात यह कि अमेरिका के मुकाबले रूस-चीन-भारत गठजोड़ खड़ा करने का वैश्विक भय पैदा करने वाले चीन को, अब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी उसी के मुकाबले अमेरिका-रूस-भारत गठजोड़ का नया वैश्विक भय एहसास करवाना चाहते हैं। क्योंकि अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंफ भी कुछ ऐसा ही करना चाहते हैं, ताकि दुनियादारी के मामले में अतिशय महत्वाकांक्षी देश चीन को काबू में रखा जा सके। बता दें कि ट्रंफ के पुतिन और मोदी से मित्रवत और व्यक्तिगत सम्बन्ध भी हैं। आपको यह जानकार हैरत होगी कि पीएम मोदी सबकुछ कर-करवा रहे हैं, लेकिन अमेरिका, रूस, चीन यानी तीनों के खिलाफ कहीं भी खुलेआम सामने नजर नहीं आ रहे हैं। क्योंकि तीनों बड़े देशों की राष्ट्रीय/व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं को संतुलित रखना कोई साधारण बात नहीं है, जबकि इसी में भारत का दूरगामी हित निहित है। यह सब कुछ करते हुए भी मोदी, पुतिन के प्रति सॉफ्ट हैं, क्योंकि रूस भारत का भरोसेमंद अंतर्राष्ट्रीय पार्टनर समझा जाता है।  वहीं कभी पाकिस्तान-चीन परस्त रहे अमेरिका, भारत विरोधी चीन और भारत-चीन के सवाल पर तटस्थ रुख रखने वाले रूस को इस करीने से साध रहे हैं कि तीनों भारत के हितबर्धक बने रहें, जबकि भारत उनके किसी भी अंतर्राष्ट्रीय या द्विपक्षीय ‘पाप’ से दूर रहे। मतलब कि गुटनिरपेक्ष बना रहे। भारत के पड़ोसी देश चीन को नियंत्रित रखने के लिए मोदी की यह नीति अंतर्राष्ट्रीय कूटनीतिज्ञों के बीच शोध का विषय है और इसलिए उन्हें 21वीं सदी का एशियाई बिस्मार्क करार दिया जाता है। लोग परस्पर यही सवाल पूछते हैं कि आखिर यह सबकुछ करते हुए मोदी क्या चाहते हैं? भारत को इन सबकी जरूरत क्या है? तो यह जान लीजिए कि कभी सोने की चिड़ियां और विश्व गुरु रहे भारत को मोदी पुनः वही दर्जा दिलाना चाहते हैं। वह भारत को हिन्दू राष्ट्र बनाने के साथ-साथ पूरी दुनिया में हिंदुत्व के प्रति एक नया आकर्षण पैदा करना चाहते हैं। वह अखण्ड भारत के सपने को पूरा करके उन क्षेत्रीय विडंबनाओं को समाप्त करना चाहते हैं जिनको लेकर अबतक अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर सवाल उठता आया है।  महत्वपूर्ण बात यह कि यह सबकुछ करते हुए मोदी इन विषयों पर बोलते कम हैं, जबकि उनके काम दहाड़ते हैं। वह दुनियावी देशों के निरंतर यात्रा पर रहते हैं या फिर अपने प्रतिनिधियों को भेजते रहते हैं तो इसका मतलब भी यही है कि वह सबसे व्यक्तिगत और भरोसेमंद सम्बंध चाहते हैं। चाहे फ्रांस हो या जापान, ऑस्ट्रेलिया हो या दक्षिण कोरिया, ब्राजील हो या दक्षिण अफ्रीका, सऊदी अरब हो या ईरान, इंग्लैंड हो या जर्मनी, प्रधानमंत्री दुनिया के दूसरी पंक्ति वाले देशों को भी भारत के हित में साधते जा रहे हैं।  वहीं, ग्लोबल साउथ यानी तीसरी दुनिया के देशों की जब वे बात करते हैं तो इससे भारत को मिलने वाले एक बड़े बाजार का भी।पता चलता है। स्वाभाविक है कि यह सबकुछ प्रधानमंत्री मोदी की जैसे को तैसा वाली नीतियों से ही संभव हो पा रहा है। भारत का दूरगामी हित इसी में निहित है। वहीं, यह भी समझा जा रहा है कि दुनियावी कूटनीति के लिए एक अबूझ पहेली बन चुके भारत के पीएम नरेंद्र मोदी को समझना सबके बूते की बात भी नहीं है। क्योंकि यह भारतीयों के पुनर्जागरण का काल है।इसलिए इंतजार कीजिए और अमृतकाल के दौर को समझिए। कमलेश पांडेय

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राजनीति

दिल्ली में भाजपा की जीत और आप की हार के सियासी मायने

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कमलेश पांडेय दिल्ली विधानसभा चुनाव 2025 में विगत 12 वर्षों से सत्तारूढ़ आम आदमी पार्टी यानी ‘आप’ की हार और  प्रमुख विपक्षी पार्टी भाजपा की अप्रत्याशित जीत के सियासी मायने दिलचस्प हैं। इसके राजनीतिक असर भी दूरगामी होंगे क्योंकि एक तरफ जहां भाजपा की जीत से केंद्र में सत्तारूढ़ ‘एनडीए’ की एकजुटता मजबूत होगी, वहीं देश की प्रमुख विपक्षी पार्टी कांग्रेस के नेतृत्व वाले इंडिया गठबंधन में बिखराव को बढ़ावा मिलेगा।  ऐसा इसलिए कि इंडिया गठबंधन की अगुवा पार्टी कांग्रेस ने दिल्ली में अपने पूर्व गठबंधन सहयोगी ‘आप’, जो दिल्ली में लंबे समय से सत्तारूढ़ थी, को हराने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। इससे कांग्रेस ने आप से जहां अपना पुराना सियासी हिसाब-किताब बराबर कर लिया है, वहीं अपनी खोई राजनीतिक जमीन हासिल करने का शिलान्यास भी कर चुकी है। वहीं, अब उसमें इस बात की भी नई उम्मीद जगी है कि 2030 के दिल्ली विधानसभा चुनाव में जब भाजपा से उसका सीधा मुकाबला होगा तो उसकी स्थिति और मजबूत होगी और उसका खोया जनाधार पुनः वापस लौट जाएगा। बता दें कि 2010 के दशक के शुरुआती सालों में पूर्व नौकरशाह अरविंद केजरीवाल समेत ‘आप’ के कतिपय प्रमुख नेताओं के द्वारा लोकप्रिय समाजसेवी अन्ना हजारे को आगे करके ‘इंडिया अगेंस्ट करप्शन’ नामक एनजीओ के तत्वावधान में कांग्रेस की तत्कालीन डबल इंजन सरकार यानी मनमोहन सिंह सरकार और शीला दीक्षित सरकार के खिलाफ जो भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम चलाई गई, उससे 2013 में दिल्ली में 15 वर्षों से सत्तारूढ़ शीला दीक्षित सरकार और 2014 में केंद्र में 10 वर्षों से सत्तारूढ़ मनमोहन सिंह सरकार का सफाया हो गया था। राजनीतिक मामलों के जानकार बताते हैं कि चूंकि इस भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भाजपा का भी गुप्त समर्थन हासिल था, इसलिए यह आंदोलन काफी सफल रहा। हालांकि एनजीओ के बैनर तले शुरू हुए इस आंदोलन की देशव्यापी लोकप्रियता से उत्साहित समाजसेवियों ने जब आम आदमी पार्टी यानी ‘आप’ का गठन करके दिल्ली विधानसभा चुनाव में अपनी भागीदारी जताई तो आरएसएस और भाजपा ने इससे दूरी बना ली। लेकिन तब तक अन्ना हजारे की आड़ में अरविंद केजरीवाल ने अपनी सामाजिक आभा इतनी चमका ली थी कि उनकी नवगठित पार्टी ‘आप’ ने कांग्रेस की पूरी और बीजेपी की कुछ कुछ राजनीतिक जमीन हड़प ली। यदि गौर किया जाए तो 2013 में जब आप ने धर्मनिरपेक्षता की आड़ में उसी कांग्रेस के सहयोग से भाजपा विरोधी गठबंधन सरकार का गठन किया, जिसका विरोध करके वह चुनाव जीती थी और त्रिशंकु विधानसभा की नौबत आई थी। कांग्रेस की इस एक मात्र भूल ने 2015 के मध्यावधि चुनाव में जहां उसका सफाया कर दिया, वहीं आप की ओर मुस्लिम मतदाताओं के बढ़े रुझान से उसे रिकॉर्ड जीत मिली। क्योंकि भ्रष्टाचार मुक्त राजनीति देने के नाम पर दलितों, पिछड़ों और सवर्णों के अलावा पूर्वांचलियों और पहाड़ियों के साथ-साथ दिल्ली के पंजाबियों-बनियों ने भी आप का साथ दिया। इससे भाजपा भी भौंचक्की रह गई  क्योंकि 2014 में ही उसने पीएम मोदी के नेतृत्व में देश फतह किया था। हालांकि, उसके बाद से ही तत्कालीन गृहमंत्री राजनाथ सिंह को संतुलित करने की जो भाजपा के गुजराती-मराठी लॉबी की अंदरूनी राजनीति शुरू हुई, उससे पूर्वांचलियों में भाजपा की साख गिरी और आप को मजबूती मिली। वहीं, 2020 के दिल्ली विधानसभा चुनाव में भी आप की लोकप्रियता थोड़ी कम हुई, लेकिन भाजपा और कांग्रेस के मुकाबले काफी ज्यादा रही। इसके बाद जब आप ने पंजाब में कांग्रेस को, दिल्ली नगर निगम चुनाव में भाजपा को जबरदस्त शिकस्त दी तो कांग्रेस किंकर्तव्यविमूढ़, लेकिन भाजपा चौकन्नी हो गई। क्योंकि अरविंद केजरीवाल ने यूपी, गोवा, गुजरात, हिमाचल प्रदेश, हरियाणा समेत अन्य राज्यों में भी अपने पांव पसारने शुरू कर दिए। उन्होंने 2023 में आप को राष्ट्रीय पार्टी का तमगा भी दिलवा दिया। कांग्रेस, भाजपा और जनता पार्टी/जनता दल जैसी राष्ट्रीय पार्टियों के बाद आप एक ऐसी पहली क्षेत्रीय पार्टी बनी जिसने एक के बाद दूसरे राज्य यानी दिल्ली के बाद पंजाब में भी अपनी पूर्ण बहुमत वाली सरकार बना ली। इससे दूरदर्शी भाजपा नेतृत्व सजग हो गया और उसने दिल्ली के उपराज्यपाल के माध्यम से आप सरकार को घेरने की रणनीति बनाई, क्योंकि अरविंद केजरीवाल हर बात में उपराज्यपाल और प्रधानमंत्री को ही निशाना बनाते रहते थे। इस बीच लोकसभा चुनाव 2024 के पहले कांग्रेस के नेतृत्व में बने देशव्यापी इंडिया गठबंधन से जब आप की आंखमिचौली शुरू हुई, तो दिल्ली में कांग्रेस-आप में 4:3 का समझौता हो गया, जबकि पंजाब में दोनों में दोस्ताना मुकाबला हुआ। इसमें कांग्रेस ने आप को धो दिया और पंजाब में आप से दोगुनी सीट जीत ली। तभी यह तय हो  गया कि आप को यदि अपनी राजनीतिक जमीन बचानी है तो कांग्रेस से दूर जाना होगा। दिल्ली विधानसभा चुनाव में यह हुआ तो जरूर, लेकिन यहां भी आप का दांव उलटा पड़ गया। दरअसल, आप एक ऐसी पार्टी के रूप में उभर रही थी, जो भाजपा और कांग्रेस से इतर सभी व्यवहारिक मुद्दों में स्पष्ट नजरिया रख रही थी। लेकिन जब से वह भाजपा के निशाने पर आई, उसकी भी रीति-नीति बदल गई। उससे टक्कर लेने के लिए वह जिन थैलीशाहों की शरण में गई, वही आप को ले डूबे। शराब घोटाला इसका सबसे बड़ा उदाहरण है। जब तक आप बिजली-पानी फ्री देने, स्कूल-अस्पताल को सुधारने आदि पर फोकस किया, तबतक लोकप्रिय बनी रही। लेकिन कोरोना काल की अवैध वसूली और अपनी कतिपय क्षेत्रवादी व अभद्र नीति से जहां वह जनता में अलोकप्रिय हुई, वहीं नीतिगत शराब घोटाले ने उसकी सरकार को ही जेल में डाल दिया। आप सरकार के मुख्यमंत्री की जेल यात्रा और पूर्व उपमुख्यमंत्री की जेल यात्रा तो महज एक बानगी रही, उसके अन्य मंत्री व सांसद भी भ्रष्टाचार के आरोप में जेल गए और बमुश्किल जमानत पर रिहा हुए।  उधर भाजपा ने अरविंद केजरीवाल के शीशमहल, वायु प्रदूषण, यमुना जल प्रदूषण, दिल्ली के कुछ इलाकों के नारकीय हालात आदि पर इतना फोकस किया कि लोगों को यह महसूस हुआ कि दिल्ली में आप की सरकार के रहते दिल्ली का अब और विकास नहीं हो सकता। इससे पहले भी दिल्ली के विकास का सारा श्रेय शीला दीक्षित सरकार को जाता है। वहीं, जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने आप को दिल्ली के लिए ‘आपदा’ (आप-दा) करार दे दिया, क्योंकि यह सरकार विभिन्न महत्वपूर्ण केंद्रीय योजनाओं को दिल्ली में लागू ही नहीं होने देती थी। वहीं, कानून-व्यवस्था पर केंद्र सरकार को घेरती रहती थी, क्योंकि दिल्ली पुलिस गृह मंत्रालय के अंतर्गत होता है। हालांकि, जब भाजपा ने आरएसएस के सहयोग से आप को दिल्ली की गली-कूची में घेरना शुरू किया, तब स्थिति बदलती। छठ पूजा के खिलाफ अरविंद केजरीवाल की सोच भी उनपर भारी पड़ी। कांग्रेस के खिलाफ सपा, तृणमूल कांग्रेस, शिवसेना यूटीबी आदि का समर्थन भी आप को भारी पड़ा, क्योंकि इनकी पहचान मुस्लिम परस्त और देशद्रोही पार्टी की बनती जा रही है। वहीं, दिल्ली के दंगों को, शाहीन बाग जैसे धरनों और किसान आंदोलन जैसे महानगर विरोधी आंदोलनों को प्रत्यक्ष-परोक्ष समर्थन देना भी अरविंद केजरीवाल की राजनीति को भारी पड़ी। सच कहूं तो सियासी शिल्पकार भाजपा ने दिल्ली के राजनीतिक दंश को दूर करने के लिए एक सुनियोजित रणनीति अपनाई, जिसमें हरियाणा से लेकर महाराष्ट्र तक के अनुभवों को पिरोया। किसी भी व्यक्ति को मुख्यमंत्री का चेहरा बनाने की जगह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नाम पर चुनाव लड़ना, वोट करना लोगों को अपील कर गया। वहीं, आप और कांग्रेस की तरह ही फ्रीबीज की बौछार करना भाजपा के लिए शुभ कारक रहा। क्योंकि लोगों ने मोदी की गारंटी को अहमियत दी। वहीं, बजट 2025-26 में मध्यम वर्ग को जो भारी कर राहत मिली, उससे बीजेपी के पक्ष में एक नई लहर पैदा हो गई। हालांकि, इस चुनाव में मध्यम वर्ग के मुद्दों पर प्रारम्भिक फोकस अरविंद केजरीवाल ने ही किया, लेकिन मतदान के ऐन मौके पर केंद्रीय बजट बाजीगरी दिखलाकर मोदी मैदान मार ले गए और आप हाथ मलती रह गई। दिल्ली की इस अप्रत्याशित जीत का फायदा एनडीए गठबंधन को बिहार विधानसभा चुनाव 2025 में भी मिलेगा। वहीं, कांग्रेस यदि समझदारी दिखाकर इंडिया गठबंधन को पुनः मजबूत बनाती है तो वहां भी कांटे की टक्कर होगी, अन्यथा नहीं। क्योंकि वहां पर भी नवगठित जनसुराज पार्टी के मुखिया प्रशांत किशोर के रुख पर यह निर्भर करेगा कि एनडीए या इंडिया गठबंधन में किसका पलड़ा भारी होगा। 

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