राजनीति विश्ववार्ता अमेरिका की आतंकी घटनाएं लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता दोनों के लिए गम्भीर खतरा January 3, 2025 / January 3, 2025 | 1 Comment on अमेरिका की आतंकी घटनाएं लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता दोनों के लिए गम्भीर खतरा कमलेश पांडेय दुनिया का थानेदार बन चुके अमेरिका में नए वर्ष पर एक के बाद एक हुए तीन आतंकी हमलों से न केवल अमेरिकी नागरिक बल्कि पूरी दुनिया में लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता की चाह रखने वाले लोग भी स्तब्ध हैं क्योंकि ये घटनाएं लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता दोनों के लिए गम्भीर खतरा बन चुकी हैं। कहना […] Read more » Terrorist incidents in America are a serious threat to both democracy and secularism.
राजनीति लेख आखिर विदेशी आक्रांताओं से जुड़ी स्मृतियों को सहेजकर क्यों रखें भारतवासी? January 2, 2025 / January 2, 2025 | Leave a Comment कमलेश पांडेय आखिर विदेशी आक्रांताओं से जुड़ी स्मृतियों को सहेज कर, समेट कर और सँवार कर क्यों रखें भारतवासी, यह यक्ष प्रश्न यहां के विशाल जनमानस को अकसर कुरेदता रहता है जबकि जरूरत ‘थी, है और रहेगी’ समय रहते ही उन्हें मिटा देने की. अलबत्ता यह सकारात्मक पहल स्वतंत्र भारत की सरकारें अब तक क्यों […] Read more » why should Indians preserve the memories related to foreign invaders?
राजनीति प्रधानमंत्रियों के अंतिम संस्कार और स्मारक के लिए अपनाए गए दोहरे मापदंड पर खुद घिरी कांग्रेस January 2, 2025 / January 2, 2025 | Leave a Comment कमलेश पांडेय वरिष्ठ पत्रकार व राजनीतिक विश्लेषक पहले पूर्व प्रधानमंत्री पी वी नरसिम्हाराव और अब पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के अंतिम संस्कार और उनके स्मारक को लेकर जो घिनौनी राजनीति ‘कांग्रेस परिवार’ खासकर नेहरू-गांधी परिवार ने शुरू की है, वह बेहद लज्जाजनक और भारतीय राजनीति पर किसी काले धब्बे की मानिंद है। इससे देश का […] Read more » funeral and memorial of Prime Ministers प्रधानमंत्रियों के अंतिम संस्कार और स्मारक
राजनीति क्या कांग्रेस का ‘वामपंथीकरण’ ही राहुल गांधी की नई राजनीति होगी? December 26, 2024 / December 26, 2024 | Leave a Comment कमलेश पांडेय वरिष्ठ पत्रकार व राजनीतिक विश्लेषक पूर्व कांग्रेस अध्यक्ष और लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी ने कहा है कि यदि उनकी सरकार आई तो सिर्फ जाति जनगणना ही नहीं बल्कि आर्थिक सर्वेक्षण भी होगा। दरअसल, इसके जरिए वह पता लगाएंगे कि किसके पास कितनी संपत्ति है। फिर नई राजनीति शुरू होगी। इससे साफ […] Read more » Will 'Leftisation' of Congress be Rahul Gandhi's new politics? कांग्रेस का 'वामपंथीकरण'
राजनीति ‘आरएसएस-शिवसेना’ के हिन्दू दर्शन की ‘अकाल मौत’ के मायने December 23, 2024 / December 23, 2024 | Leave a Comment कमलेश पांडेय आखिर जब पूरी दुनिया में मुस्लिम कट्टरपंथी ताकतें हावी होती जा रही हैं और लोकतंत्र को चुनौती देते हुए एक के बाद दूसरी ‘आतंकी सरकारें गठित करती जा रही हैं, वैसी विडंबनात्मक परिस्थिति में भारत की हिंदूवादी ताकत के रूप में शुमार विश्व का सबसे बड़ा संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ यानी आरएसएस और […] Read more » Meaning of 'untimely death' of Hindu philosophy of 'RSS-Shiv Sena'
राजनीति संविधान निर्माता अम्बेडकर के अपमान पर मचे सियासी तूफान के पूंजीवादी एजेंडे को ऐसे समझिए December 23, 2024 / December 23, 2024 | Leave a Comment लीजिए, हमारे विपक्षी नेताओं को एक और अपमानजनक मुद्दा मिल गया ताकि संसद की जनहितकारी कार्यवाही को बाधित कर दिया जाए और सड़क से संसद तक हंगामा खड़ा करके लोगों को गोलबंद किया जाए। इससे मिशन आम चुनाव 2029 की विपक्षी राह आसान हो जाएगी। बताया जाता है कि एक संसदीय चर्चा के दौरान संसद में केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने यह कह दिया है कि आजकल आंबेडकर का नाम लेना सियासी फैशन हो गया है। इतना नाम भगवान का लेते तो सात जन्मों के लिए स्वर्ग मिल जाता। बकौल शाह, “आंबेडकर-आंबेडकर-आंबेडकर क्यों कह रहे हो? आप अगर भगवान-भगवान कहेंगे तो 7 पीढ़ियां आपकी स्वर्ग में जाएंगी।” बस इसी बयान को लेकर प्रमुख विपक्षी पार्टी कांग्रेस के लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी ने और राज्यसभा में नेता प्रतिपक्ष व कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने गृहमंत्री अमित शाह और बीजेपी का विरोध करना शुरू कर दिया है। इस प्रकार विभिन्न दलों के समर्थन-विरोध और बचाव की सियासत के बीच संसद में धक्कामुक्की तक की नौबत आई गई और लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी व उनके साथियों के विरुद्ध भाजपा नेताओं द्वारा एफआईआर तक दर्ज करवाना पड़ा। उधर, कांग्रेस ने भी भाजपा सांसदों के खिलाफ शिकायत दी है। इससे बिखरते इंडिया गठबंधन को थोड़ी सी राहत भी मिल गई, क्योंकि जो नेता राहुल गांधी का विरोध करते थे, वही अब उनकी भाषा पुनः बोलने लगे। चूंकि फरवरी 2025 में दिल्ली विधानसभा चुनाव और नवम्बर 2025 में ही बिहार विधानसभा चुनाव की सियासी वैतरणी पार करनी होगी, तो मुद्दा चाहिए। इसलिए कांग्रेस ने मनमाफिक मुद्दा ढूंढ लिया। भाजपा ने अपनी नीतियों से मुसलमानों को उसके लिए बुक ही कर दिया है और भाजपा से दलितों को हड़पने के लिए वह संविधान बदलने से लेकर अम्बेडकर के अपमान तक के मुद्दे को हवा दे चुकी है। ऐसा इसलिए कि कांग्रेस का ‘दम समीकरण’ दलित-मुस्लिम गठजोड़ मजबूत हो। बता दें कि इसी को मजबूत करते करते लोकजनशक्ति पार्टी के संस्थापक स्व. रामविलास पासवान और उनके पुत्र केंद्रीय मंत्री चिराग पासवान भाजपा की गोद में जा बैठे। वहीं, दम समीकरण की दूसरी प्रबल पैरोकार समझी गईं बसपा नेत्री और यूपी की पूर्व मुख्यमंत्री मायावती की सियासी दुर्गति आप लोग देख ही रहे हैं, जिनपर भाजपा की बी टीम होने के आरोप लगते आए हैं। इसलिए इसी दम समीकरण पर अपना दावा मजबूत करते करते कांग्रेस क्या गुल खिलाएगी, अभी कहना जल्दबाजी होगी क्योंकि इसी समीकरण ने लोकसभा चुनाव 2024 में उसे 10 वर्षों के सियासी दुर्दिन से मुक्ति दिलाई है। यह बात दीगर है कि कांग्रेस के नेता प्रतिपक्ष बनते ही उसकी सियासी सौतनों यानी इंडिया गठबंधन के साथी दलों की नींद उड़ चुकी है। इसलिए हरियाणा और महाराष्ट्र में दलितों के छिटकते ही विपक्षी आलोचना का केंद्रविन्दु बनी कांग्रेस ने अंबेडकर के अपमान को ऐसा तूल दिया और आक्रामक रणनीति अपनाई कि संसद में धक्कामुक्की कांड हो गया। इससे राहुल गांधी पुनः विपक्षी नेताओं के हीरो बनते प्रतीत हो रहे हैं। अब उम्मीद की जा रही है कि कांग्रेस इस मुद्दे से ही दिल्ली और बिहार के विधानसभा चुनावों के बाद 2027 में उत्तरप्रदेश विधानसभा चुनाव और फिर 2028 में मध्यप्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ के विधानसभा चुनावों को जीतने की रणनीति बनाएगी। चूंकि इसी बीच कर्नाटक, तमिलनाडु, गुजरात, पश्चिम बंगाल आदि विधानसभाओं के भी चुनाव इलेक्शन कैलेंडर के मुताबिक होंगे, इसलिए कांग्रेस जातिगत जनगणना के बाद अंबेडकर के अपमान को भी मुख्य मुद्दा बनाएगी क्योंकि भाजपा भी इन्हीं दोनों मुद्दों पर कांग्रेस के ऊपर तार्किक सवाल उठाती आई है। राजनीतिक टिप्पणीकारों की बातों पर गौर करें तो राष्ट्रपति महात्मा गांधी, प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू, महात्मा गांधी के ‘हत्यारोपी’ हिंदूवादी नेता वीर सावरकर, और अब संविधान निर्माता बाबा साहब डॉ भीमराम अम्बेडकर के ऊपर हुई सियासी टीका-टिप्पणी कोई नई बात नहीं है, बल्कि नई बात तो यह है कि गांधी-नेहरू का अपमान सहते रहने वाली कांग्रेस ने अम्बेडकर के अपमान को सियासी मुद्दा बनाकर एक तीर से दो शिकार कर रही है। पहला तो यह कि दलितवादी दलों और ओबीसी की राजनीति करने वाले दलों से वह मुद्दे लपक चुकी है और इसी को धार दे रही भाजपा को जन कठघरे में खड़ा करके अपना सियासी उल्लू सीधा करने की कवायद तेज कर चुकी है। अपने देखा होगा कि इंदिरा गांधी, राजीव गांधी, राममनोहर लोहिया, वीपी सिंह, लालूप्रसाद, मान्यवर कांशीराम, मायावती, रामविलास पासवान, लालकृष्ण आडवाणी, अटलबिहारी बाजपेयी आदि अनगिनत नेताओं के ऊपर सियासी टिपण्णी हुई, लेकिन बात का इतना बतंगड़ कभी नहीं बना। कभी आजादी, कभी आरक्षण, कभी समता, कभी समरसता, कभी वामपंथ, कभी समाजवाद और कभी राष्ट्रवाद के सवाल पर सियासत हुई। रोटी कपड़ा और मकान के बाद शिक्षा, स्वास्थ्य और सम्मान की सियासत भी हुई। जय जवान, जय किसान से लेकर जय विज्ञान तक के उदघोष हुए। सबका साथ, सबका विकास और सबका विश्वास तक की बातें हुईं। लेकिन जनता की माली हालत उबचुब करती रही। पिछले तीन दशकों में अमीरी और गरीबी की खाई हर रोज चौड़ी हो रही है। एक और कड़वी सच्चाई यह है कि निर्वाचित नेताओं की आय रॉकेट की गति से बढ़ रही है पर समतामूलक समाज स्थापित करने के संवैधानिक प्रयत्न नदारत रहे। क्योंकि जब भी सर्वहितकारी कुछ बात शुरू हुई तो दलित, आदिवासी, ओबीसी और अल्पसंख्यकों के संवैधानिक अधिकारों को कानूनी ढाल बना दिया गया। कुछ लोगों को आरक्षण दिया गया और उनका समर्थन हासिल करके कहीं पारिवारिक राजनीति को मजबूत किया गया तो कहीं राजकोषीय लूट मचाई गई। सबसे दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति तो यह कि कहीं कोई प्रशासनिक और न्यायिक संतुलन स्थापित करने की कोशिश नहीं की गई। या तो कानून स्वहित के अनुरूप बने या फिर परिभाषित किये गए। दुष्प्रभाव सबके सामने है। हिंसा-प्रतिहिंसा और असमानता हमारी नियति बन चुकी है। यह कड़वी सियासी सच्चाई यह है कि सन 1990 के दशक के पूर्वार्द्ध से देश में लागू ‘नई आर्थिक नीतियों’ के दुष्परिणाम स्वरूप भारतीय संसद जनहितकारी मुद्दों से अपना पिंड छुड़ाती हुई प्रतीत हो रही है और सिर्फ पूंजीवादी एजेंडों को पूरा करने की गरज से जनमानस के बीच भावनात्मक मुद्दों को हवा दे रही है। इन नीतियों को देश में लागू करने वाली कांग्रेस और फिर बाद में उसकी समर्थक बन चुकी भाजपा (स्वदेशी आंदोलन को भूलकर) ने पूंजीवादी राजनीति को इतनी हवा दी कि क्षेत्रीय सियासत ही हाशिए पर आ गई। इसलिए क्षेत्रीय दलों को भाजपा और कांग्रेस के इस सियासी पेंच को समझना चाहिए, लेकिन ये भी इन दोनों दलों के गठबंधन के मोहरे बन चुके हैं। ऐसा सिर्फ इसलिए कि सियासत के लिए जो जरूरी आर्थिक खाद-पानी चाहिए, वो सिर्फ पूंजीवादी कम्पनियां ही पूरी कर सकती हैं। आप गौर कीजिए कि 1990 के दशक से शुरू हुए कम्पनी राज के बाद जीवन चर्या कितनी महंगी होती जा रही है। मानवीय संवेदनाओं से परे सबकुछ को मौद्रिक पैमाने पर तौलने की बाजारू प्रवृत्ति ने खान-पान, दवा-दारू, रहन-सहन से लेकर परिवहन तक को महंगा कर दिया और गुणवत्ता के मामलों में भगवान भरोसे छोड़ दिया। वहीं, कभी कांग्रेस और कभी भाजपा के वर्चस्व वाली संसद मजबूत कानूनों को पूंजीपतियों के लिहाज से कमजोर करती रही जिससे शिक्षा, स्वास्थ्य, संचार, परिवहन आदि के क्षेत्रों में व्याप्त अराजकता बढ़ती चली गई। यह आज भी जारी है। समाज में रूपये के बढ़ते बोलबाले से प्रशासनिक तंत्र और अधिक भ्रष्ट हो गया। सियासत में ओबीसी, दलित व अल्पसंख्यक शब्दों के बढ़ते बोलबाले से जो जनप्रतिनिधियों की फौज संसद में आई, उन्होंने जाने-अनजाने सियासत को भ्रष्ट कर दिया। आलम यह है कि यथा राजा-तथा प्रजा और यथा प्रजा-तथा राजा का अंतर मिट चुका है। जनप्रतिनिधियों के विशेषाधिकार और न्यायाधीशों के न्यायिक अवमानना के अधिकारों ने मीडिया के मुंह सील दिए। देश में अब स्वस्थ राजनीतिक बहस की कोई गुंजाइश नहीं बची है क्योंकि पहले आजादी, फिर समाजवाद, उसके बाद हिंदूवाद की सियासत हुई, जिसमें अल्पसंख्यक तुष्टिकरण, जातीय तुष्टिकरण, सांप्रदायिक ध्रुवीकरण, दलित-पिछड़ा-आदिवासी गोलबंदी, फिर इनकी आपसी सिरफुटौव्वल के बीच पूंजीवादी राजनीतिक अपनी जड़ जमाती रही और लोगों के मूलभूत रोजगार से लेकर जीवन यापन तक की नीतियां हाशिए पर चली गईं। अब जो भी दिखावटी जनहितकारी नीतियां लागू की जा रही हैं, उसके पीछे कॉरपोरेट लूट का एजेंडा सर्वप्रथम है, जिसे समझने में हमारे अधिकांश नेता व उनकी समर्थक अशिक्षित या कम शिक्षित जनता नाकाम रही है। आधार कार्ड, मुफ्त आवास, मुफ्त या कम ब्याज दर ऋण, डीबीटी जैसे जितने भी नव आर्थिक उपाय किए गए, सबका मकसद कम्पनियों को लाभ पहुंचना है। लोगों के पास काम नहीं है और सरकार एआई पर जोर दे रही है। सत्ता में मशीनीकरण के घुसपैठ से सिर्फ पूंजीवादियों का ही भला होगा। सच कहूं तो एक देश, एक चुनाव भी उनका ही एजेंडा है ताकि छोटे छोटे दल समाप्त हो जाएं। छोटी-छोटी कम्पनियों को उनका ऑनलाइन बाजार लूट ही चुका है। इसलिए देश जनक्रांति की बाट जोह रहा है, क्योंकि वैश्विक पूंजीवादी ताकतों के इशारे पर थिरक रही भारतीय कम्पनियों से मुट्ठी भर लोगों का भला होगा, जबकि बहुत बड़ी आबादी भावनात्मक मुद्दों पर उलझी हुई है और किसी राष्ट्रीय अभिशाप से कम नहीं है। सवाल पुनः वही कि भावनाओं को भड़काकर सियासी रोटी सेंकने की कांग्रेस-भाजपा की चाल को आखिर कब तक समझेंगे हमारे क्षेत्रीय दल और जनहित की रक्षा के लिए उन पर दबाव बढ़ाएंगे, अन्यथा एक समय बाद वो भी लोगों के बीच अप्रासंगिक हो जाएंगे। कमलेश पांडेय Read more » अम्बेडकर के अपमान पर मचे सियासी तूफान
राजनीति तो क्या इंडिया गठबंधन के सियासी चक्रव्यूह में घिर जाएंगे नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी? December 20, 2024 / December 20, 2024 | Leave a Comment कमलेश पांडेय देश-दुनिया में हर रोज एक महाभारत शुरू होता है जो महज 18 दिन नहीं बल्कि महीनों – सालों चलता रहता है। दरअसल यह एक राजसी प्रवृत्ति है जो यत्र-तत्र-सर्वत्र अपनी इहलीला प्रदर्शित करती रहती है। यह कभी किसी के अंतरतम में चलता है तो कभी सियासी जगत में, कभी आर्थिक जगत के कार्पोरेट्स […] Read more » इंडिया गठबंधन के सियासी चक्रव्यूह
राजनीति पॉलिटिकल सेलिब्रिटी प्रियंका गांधी के ‘गांधीवादी थैले’ की सियासत December 18, 2024 / December 18, 2024 | Leave a Comment कमलेश पांडेय पॉलिटिकल सेलिब्रिटी, कांग्रेस महासचिव और वायनाड सांसद प्रियंका गांधी का ‘बौद्धिक गांधीवादी थैला’ अब एक नहीं बल्कि दो अंतरराष्ट्रीय विवादों की ओर लोगों का ध्यान बरबस खींच चुका है जिसमें इजरायल द्वारा फलस्तीनी सुन्नी मुसलमान उत्पीड़न और बंगलादेशी हिन्दू/ईसाई उत्पीड़न का मसला प्रमुख है। इस बीच सोशल मीडिया इंफ्लुएंसर्स के सवालों और जवाबों के बीच उत्तर प्रदेश के फायर ब्रांड मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की यूपी-इजराइल से जुड़ी रोजगारपरक टिप्पणी ने इस मामले पर देशी तड़का जड़ दिया है। इससे सोशल मीडिया पर शुरू हुईं सांप्रदायिक बहसों के साथ-साथ पापी पेट के सवाल को भी एक नया दूरदर्शी आयाम मिल चुका है, वहीं, यदि राजनीतिक नजरिए से देखें तो पहले सुन्नी मुस्लिम बहुल फलस्तीन से जुड़े सवालों पर गांधीवादी थैला संसद में जाते ववक्त प्रदर्शित करके और उस पर विवाद उत्पन्न होने के बाद दूसरे दिन बंगलादेशी हिंदुओं और ईसाइयों के उत्पीड़न से जुड़ा दूसरा थैला प्रदर्शित करके युवा सांसद प्रियंका गांधी ने अपने पूर्वज प्रधानमंत्रियों- जवाहरलाल नेहरू, इंदिरा गांधी और राजीव गांधी के कांग्रेसी मध्यम मार्ग पर पुनः लौटने का दूरदर्शिता पूर्ण संकेत दिया है। ऐसा करना इसलिए भी जरूरी है, क्योंकि जहां पूर्व प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हा राव ने कांग्रेस को दक्षिण मुखी बनाने के चक्कर में उत्तर भारतीयों को पार्टी से दूर कर दिया, वहीं पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने अल्पसंख्यक प्रथम की बात छेड़कर बहुसंख्यकों को नाराज कर दिया। जानकार बताते हैं कि ऐसा करके इन लोगों ने भले ही अपना-अपना गठबंधन कार्यकाल पूरा कर लिया, लेकिन कांग्रेस खोखली होती गई। हालांकि, उसके बाद पार्टी का जनाधार इतना लुढ़का कि 2014 और 2019 में उसे नेता प्रतिपक्ष का तमगा भी नहीं मिला। हां, राहुल गांधी के जुझारूपन ने 2024 में यह तमगा हासिल कर लिया और लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष बनने के बाद अपनी बहन प्रियंका गांधी को भी सेफ सियासी मोड में अपनी छोड़ी हुई सीट से लोकसभा ले आए। वहीं, लोकसभा में आते ही प्रियंका गांधी ने “लड़की हूँ, लड़ सकती हूँ” वाले तेवर दिखाने शुरू कर दिए। सर्वप्रथम उन्होंने भारतीय संविधान के 75 वर्ष पूरे होने के उपलक्ष्य में लोकसभा में आयोजित विशेष बहस पर प्रथम विपक्षी सम्बोधन देते हुए और उसके बाद बैग पॉलिटिक्स को हवा देकर जनमानस को यह संकेत दे दिया कि भाई-बहन की यह जोड़ी कोई न कोई नया सियासी गुल खिलाती रहेगी जो कि राजनीति की पहली शर्त समझी जाती है। वहीं बदलती राजनीतिक परिस्थितियों के बीच इंडिया गठबंधन के सहयोगियों को अपनी हद में रहने के परोक्ष संकेत देकर भाई-बहन की जोड़ी ने अपनी राजनीतिक प्राथमिकताओं को भी स्पष्ट कर दिया है क्योंकि उन्हें पता है कि राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा का विकल्प केवल कांग्रेस है जिसे जमीनी स्तर पर मजबूत करने के लिए चुनावी वैशाखियों को उनकी हद में रखना होगा ताकि कार्यकर्ताओं के मनोबल ऊंचे रहें। वहीं, पीएम मोदी के प्रबल विरोधों के बीच राहुल गांधी की अल्पसंख्यक समर्थक और उद्योगपति विरोधी छवि बनने से भी कांग्रेस भीतर ही भीतर चिंतित है। इसलिए उसने प्रियंका गांधी को आगे करके अपना मध्यम मार्ग वाला कांग्रेस कार्ड फिर फेंका है ताकि इंडिया गठबंधन में नेतृत्व के सवाल पर यदि कांग्रेस अलग थलग भी पड़ जाए तो उसका मध्यममार्गी स्वरूप जनमानस को रिझाए, जिसके दम पर वह लगभग 6 दशकों तक वामपंथियों और दक्षिणपंथियों को पछाड़ती रही है। यही वजह है कि राहुल गांधी के साथ साथ प्रियंका गांधी ने भी खुद को सियासी चर्चा का विषय बनाये रखने के लिए अपने नवप्रयोगों को हवा दी जिससे राजनीतिक चर्चाओं का कोर्स ही बदल गया। बताते चलें कि संसद के मौजूदा सत्र से अपनी संसदीय पारी की शुरुआत करने वाली कांग्रेस नेत्री प्रियंका गांधी के बैग इन दिनों खासी चर्चा और विवाद का केंद्र बन रहे हैं। इससे उनकी इंदिरा गांधी वाली छवि भी परिपुष्ट हुई है। कांग्रेस संसदीय दल की अध्यक्ष सोनिया गांधी की रणनीति है कि 2029 में मोदी-योगी के मुकाबले राहुल-प्रियंका के फेस को इतना मजबूत बना दिया जाए कि उन्हें इंडिया गठबंधन के सहयोगी मनमाफिक नचाने की जुर्रत ही नहीं कर सकें क्योंकि वह इस बात को समझती हैं कि पीएम फेस के लिए राहुल का मुकाबला मोदी, योगी, फडणवीस, सम्राट आदि से कम और अखिलेश यादव, तेजस्वी यादव, अरविंद केजरीवाल जैसों से ज्यादा होगी। इसलिए उन्होंने कांग्रेस को अपने बूते आगे बढ़ाने का निश्चय किया है और रणनीतिक रूप से गठबंधन सहयोगियों के लिए अपने दरवाजे खोल रखे हैं, लेकिन अपनी शर्तों पर ! यही वजह है कि कांग्रेस ने अदाणी मुद्दे पर विरोध करने के बाद इंडिया गठबंधन के सपा और टीएमसी जैसे सहयोगियों के साथ छोड़ते ही गत सोमवार को प्रियंका गांधी ने अपने बैग पॉलिटिक्स शुरू कर दी ताकि इंडिया गठबंधन के सहयोगियों पर भी नैतिक दबाव बढ़े। समझा जाता है कि अपने बैग को लेकर वह उस समय चर्चा का केंद्र बन गईं, जब उन्होंने फलस्तीन लिखा बैग अपने कंधे पर लटकाया हुआ था और संसद में प्रवेश कर रही थीं। हालांकि इस पर मचे बवाल के बाद भी प्रियंका रुकी नहीं, और वह मंगलवार को बांग्लादेश के मौजूदा हालात पर टिप्पणी करते बैग को कंधे पर लटकाकर सदन में नजर आईं। खादी के सफेद झोला नुमा बैग पर लिखा था- ‘बांग्लादेश के हिंदुओं और ईसाइयों के साथ खड़े हों। बताया जाता है कि इस बैग को अपने साथ टांगने वाली प्रियंका अकेली नहीं थीं बल्कि कई कांग्रेस सांसदों ने ऐसे ही बैग को अपने साथ लेकर बांग्लादेश में अल्पसंख्यक हिंदुओं व ईसाइयों पर हो रहे अत्याचार के विरोध में गत मंगलवार को ही संसद परिसर में प्रदर्शन किया। देखा गया कि कांग्रेस सांसदों ने सदन की बैठक शुरू होने से पहले मुख्य द्वार के पास अपना विरोध प्रदर्शन किया जहां प्रियंका सहित तमाम सांसदों ने अपने हाथ में थैला भी ले रखा था, जिस पर ‘बांग्लादेश के हिंदुओं और ईसाइयों के साथ खड़े हों’ लिखा हुआ था। यही वजह है कि प्रियंका गांधी के बैग पर गरमाती सियासत के बीच यूपी के सीएम योगी आदित्यनाथ ने भी उन पर निशाना साधा है क्योंकि वह एक असफल यूपी प्रभारी भी रह चुकी हैं। योगी का कहना था कि हम यूपी के युवाओं को कमाने के लिए इजराइल भेज रहे हैं और कांग्रेस सांसद फलस्तीन का बैग लेकर घूम रही हैं। हालांकि इस पर मचे विवाद के बाद प्रियंका गांधी ने भी प्रतिक्रिया देते हुए कहा कि मैं क्या पहनूंगी, यह कौन तय करेगा? यह पैतृक समाज ही है जो यह तय करता है कि महिलाएं क्या पहनेंगी? उनका कहना था कि मैं कई बार बता चुकी हूं कि इस बारे में मेरी क्या मान्यताएं हैं. अगर आप मेरा ट्विटर हैंडल देखेंगे तो वहां आपको मेरा बयान मिलेगा। वहीं, भाजपा नेताओं ने इस पर तल्ख टिप्पणी की कि एक्स (ट्वीटर), बैग और बयानों से वह लोगों का ध्यान चाहे जितना खींच लें, लेकिन अपनी पार्टी में कार्यकर्ताओं के अकाल को दूर करने के लिए उन्हें सड़कों की धूल फांकनी ही पड़ेगी। राष्ट्रवादी मुद्दों की ओर लौटना ही पड़ेगा अन्यथा विपक्षियों की नेत्री बनने की सियासत वो करती रहें, सत्ता की दिल्ली अभी उनके लिए बहुत दूर है ! कमलेश पांडेय Read more » Priyanka Gandhi's 'Gandhian bag' The politics of political celebrity Priyanka Gandhi's 'Gandhian bag' पॉलिटिकल सेलिब्रिटी प्रियंका गांधी के 'गांधीवादी थैले' की सियासत
राजनीति विश्ववार्ता जानिए, ग्रेटर इजरायल प्लान क्या है? इसको अमेरिकी समर्थन क्यों हासिल है? ग्रेटर इंडिया प्लान से इसका क्या रिश्ता है? December 13, 2024 / December 13, 2024 | Leave a Comment कमलेश पांडेय क्या आपको पता है कि19वीं सदी में यहूदीवाद (जायोनिज्म) आंदोलन की आधारशिला रखने वाले थियोडोर हर्जेल ने एक ऐसे यहूदी देश की अवधारणा रखी थी जो अरब के एक बड़े इलाके में फैला हुआ होगा। यदि नहीं तो आपके लिए यह जानना जरूरी है कि यहूदीवाद, यहूदियों का तथा यहूदी संस्कृति का राष्ट्रवादी […] Read more » Know what is Greater Israel Plan? what is Greater Israel Plan? Why does it have American support? What is its relation with Greater India Plan ग्रेटर इजरायल ग्रेटर इजरायल प्लान क्या है? इसको अमेरिकी समर्थन क्यों हासिल है? ग्रेटर इंडिया प्लान से इसका क्या रिश्ता है?
राजनीति विधि-कानून बहुमत की इच्छा से आखिर क्यों नहीं चलेगा देश? कोई समझाएगा जनमानस को! December 12, 2024 / December 12, 2024 | Leave a Comment कमलेश पांडेय कहते हैं कि जो राजा या शासन पद्धति जनभावनाओं को नहीं समझ पाते हैं, रणनीतिक रूप से अकस्मात गोलबंद किए हुए उग्र लोगों के द्वारा नष्ट कर दिए जाते हैं। मुगलिया सल्तनत से लेकर ब्रिटिश साम्राज्य का हश्र हमारे-आपके सामने है। वहीं, एक बार नहीं बल्कि कई दफे हुआ पारिवारिक लोकतांत्रिक सत्ता का पतन […] Read more » 'हिंदूवादी जज' जस्टिस शेखर कुमार यादव
राजनीति इंडिया गठबंधन की रार से कांग्रेस से ज्यादा क्षेत्रीय दलों को होगा नुकसान December 11, 2024 / December 11, 2024 | Leave a Comment कमलेश पांडेय/वरिष्ठ पत्रकार व राजनीतिक विश्लेषक कांग्रेस के नेतृत्व वाले ‘इंडिया गठबंधन’ में नेतृत्व के सवाल पर जो मौजूदा चिल्ल-पों मची हुई है और लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी के नेतृत्व पर एक बार फिर से जो सवाल उठाए जा रहे हैं, उससे न तो तृणमूल कांग्रेस नेत्री व पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी का राजनीतिक भला होने वाला है और न ही उनकी सुर में सुर मिलाने वाले एनसीपी शरद पवार के शरद पवार-सुप्रिया सुले, शिवसेना यूबीटी के उद्धव ठाकरे-आदित्य ठाकरे, समाजवादी पार्टी के अखिलेश यादव-रामगोपाल यादव या आप पार्टी के अरविंद केजरीवाल आदि जैसे नेताओं का। हां, इससे कांग्रेस आई की उस सियासी साख को धक्का अवश्य लगेगा, जो कि बमुश्किल उसने राहुल गांधी के नेतृत्व में लोकसभा चुनाव 2024 के बाद हासिल कर पाई है। राजनीतिक मामलों के जानकारों का स्पष्ट कहना है कि कांग्रेस जैसी राष्ट्रीय पार्टी के लिए हरियाणा और महाराष्ट्र विधानसभा की हार जरूर मायने रखती है क्योंकि यह जीती हुई बाजी हारने के जैसा है लेकिन सिर्फ इसको लेकर ही इंडिया गठबंधन का नेतृत्व कांग्रेस से छीन लेना कोई राजनीतिक बुद्धिमानी का काम प्रतीत नहीं होता है। शायद कांग्रेस भी इसे नहीं मानेगी और किसी भी राष्ट्रीय दल को क्षेत्रीय दलों के सामने घुटने भी नहीं टेकने चाहिए, यदि सत्ता प्राप्ति के लिए संख्या बल का खेल नहीं हो तो! बीजेपी भी यही करती है और अपने गठबंधन सहयोगियों को उनकी वाजिब औकात में रखती है। तीसरे-चौथे मोर्चे की विफलता के पीछे भी तो अनुशासनहीनता या अतिशय महत्वाकांक्षा का खेल ही तो था, जिसे बहुधा राजनीतिक रोग समझा जाता है। बता दें कि तृणमूल कांग्रेस नेता कल्याण बनर्जी ने महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव का परिणाम आने के बाद तुरंत कहा था कि कांग्रेस और इंडिया ब्लॉक को अपने अहंकार को अलग रखना चाहिए और ममता बनर्जी को विपक्षी गठबंधन के नेता के रूप में मान्यता देनी चाहिए। इसके बाद पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने भी हालिया हरियाणा और महाराष्ट्र चुनाव में इंडिया ब्लॉक के खराब प्रदर्शन पर असंतोष जाहिर किया और संकेत दिया कि अगर मौका मिला तो वह इंडिया ब्लॉक की कमान संभालने के लिए तैयार हैं। तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) सुप्रीमो ने यहां तक कहा कि वह बंगाल की मुख्यमंत्री के रूप में अपनी भूमिका जारी रखते हुए भी विपक्षी मोर्चे को चलाने की दोहरी जिम्मेदारी संभाल सकती हैं। एक टीवी चैनल से बात करते हुए ममता बनर्जी ने कहा, ‘मैंने इंडिया ब्लॉक का गठन किया था, अब मोर्चा का नेतृत्व करने वालों पर इसका प्रबंधन करने की जिम्मेदारी है। अगर वे इसे नहीं चला सकते तो मैं क्या कर सकती हूं? मैं सिर्फ इतना कहूंगी कि सभी को साथ लेकर चलना होगा।‘ वहीं, यह पूछे जाने पर कि एक मजबूत भाजपा विरोधी ताकत के रूप में अपनी साख के बावजूद वह इंडिया ब्लॉक की कमान क्यों नहीं संभाल रही हैं? तो इस पर बनर्जी ने कहा, “अगर मौका मिला तो मैं इसके सुचारू संचालन को सुनिश्चित करूंगी।” उन्होंने कहा, “मैं बंगाल से बाहर नहीं जाना चाहती लेकिन मैं इसे यहीं से चला सकती हूं।” बता दें कि बीजेपी का मुकाबला करने के लिए गठित इंडिया (INDIA) ब्लॉक में दो दर्जन से अधिक विपक्षी दल शामिल हैं हालांकि आंतरिक मतभेदों और आपसी तालमेल की कमी की वजह से इसकी कई बार आलोचना भी होती रही है। इसी वजह से इसके प्रमुख सूत्रधार रहे जदयू नेता और बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने अपना पाला बदल लिया और भाजपा के खेमे में चले गए। वो भी इंडिया गठबंधन के संयोजक का पद पाना चाहते थे जो लालू प्रसाद के परोक्ष विरोध के चलते सम्भव नहीं हो पाया। ऐसे में संभव है कि ममता भी एकबार फिर से तीसरे मोर्चे को मजबूत करने की पहल करें और नीतीश की तरह ही इंडिया गठबंधन को टा-टा, बाय-बाय कर दें। उल्लेखनीय है कि ममता बनर्जी का यह बयान उनकी पार्टी सांसद कल्याण बनर्जी द्वारा कांग्रेस और अन्य इंडिया ब्लॉक सहयोगियों को लेकर दिए बयान के बाद सामने आया है। तब कल्याण बनर्जी ने कहा था कि कांग्रेस और इंडिया ब्लॉक को अपने अहंकार को अलग रखना चाहिए और ममता बनर्जी को विपक्षी गठबंधन के नेता के रूप में मान्यता देनी चाहिए। आपको बता दें कि बीजेपी ने जहां महाराष्ट्र में शानदार प्रदर्शन करते हुए रिकॉर्ड संख्या में सीटें हासिल कीं तो वहीं कांग्रेस का प्रदर्शन बेहद खराब रहा। बीजेपी के नेतृत्व वाले सत्तारूढ़ महायुति गठबंधन को भारी जीत मिली जबकि इंडिया ब्लॉक ने सिर्फ झारखंड में जेएमएम के शानदार प्रदर्शन की बदौलत मजबूत वापसी की। कहने का तात्पर्य यह है कि कांग्रेस ने अपनी हार का सिलसिला जारी रखा और हरियाणा के बाद महाराष्ट्र में भी अपना सबसे खराब प्रदर्शन किया और झारखंड में सत्तारूढ़ जेएमएम के जूनियर पार्टनर के रूप में सामने आई और विपक्षी ब्लॉक में इसकी भूमिका और भी कम हो गई क्योंकि अन्य सहयोगियों ने इससे बेहतर प्रदर्शन किया। वहीं, दूसरी ओर हाल ही में हुए उपचुनावों में भाजपा को हराकर टीएमसी की जीत ने पश्चिम बंगाल में पार्टी के प्रभुत्व को मजबूत किया है, जबकि विपक्षी अभियान आरजी कर मेडिकल कॉलेज विरोध जैसे विवादों पर केंद्रित थे। सीपीआई (एम) के नेतृत्व वाले वाम मोर्चे, उसके सहयोगी सीपीआई (एमएल) लिबरेशन और कांग्रेस, जो इंडिया ब्लॉक में राष्ट्रीय स्तर पर टीएमसी के सहयोगी हैं, सभी को बड़ी असफलताओं का सामना करना पड़ा और उनके उम्मीदवारों की जमानत जब्त हो गई जबकि कांग्रेस इंडिया ब्लॉक की सबसे बड़ी पार्टी है जिसे अक्सर गठबंधन का वास्तविक नेता माना जाता है। यही वजह है कि टीएमसी ने लगातार ममता बनर्जी को गठबंधन की बागडोर संभालने की वकालत की है। यह ठीक है कि तृणमूल कांग्रेस नेत्री ममता बनर्जी पश्चिम बंगाल में लगातार भाजपा को सियासी चोट पहुंचा रही हैं और सदैव उस पर भारी प्रतीत हो रही हैं लेकिन इसका मतलब यह कतई नहीं है कि वह राष्ट्रीय नेत्री बन गईं और उनका चेहरा लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी के चेहरे से ज्यादा सर्वस्वीकार्य हो गया, वो भी अखिल भारतीय स्तर पर? चाहे राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (एनसीपी) शरद पवार के प्रमुख और महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री शरद पवार हों या उनकी सियासी वारिस सांसद सुप्रिया सुले, शिवसेना यूबीटी के प्रमुख और महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे हों या उनके राजनीतिक वारिस आदित्य ठाकरे, समाजवादी पार्टी के प्रमुख और उत्तरप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव हों या राज्यसभा सांसद रामगोपाल यादव या आप पार्टी के राष्ट्रीय संयोजक व दिल्ली के पूर्व मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल हों या उन जैसे इंडिया गठबंधन के कोई अन्य नेतागण, किसी का चेहरा राष्ट्रीय स्तर पर उतना सर्वस्वीकार्य नहीं हो सकता है जितना कि राज्यसभा सांसद सोनिया गांधी, लोकसभा सांसद प्रियंका गांधी या लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी का है, इसलिए समकालीन बयानबाजी से इंडिया गठबंधन और उसमें शामिल सभी दलों को ही क्षति होगी, यह उन्हें समझना होगा। वैसे भी भारतीय मतदाताओं के बीच कांग्रेस नीत यूपीए गठबंधन, राजद-सपा-झामुमो नीत महागठबंधन, शिवसेना यूबीटी-एनसीपी शरद पवार नीत महाविकास अघाड़ी के अलावा तीसरे या चौथे मोर्चे में शामिल रहे क्षेत्रीय दलों की साख अच्छी नहीं है। जनता पार्टी, जनता दल और संयुक्त मोर्चे की कई गठबंधन सरकारों को असमय गिराने का आरोप जहां कांग्रेस पर लगता आया है, वहीं तीसरे मोर्चे और चौथे मोर्चे के बारे में तो राजनीतिक अवधारणा यही है कि इन्हें केंद्र में सरकार चलाना ही नहीं आता और इसमें शामिल दल भले ही अपने-अपने राज्यों में सफल रहे हों लेकिन सुशासन स्थापित करने और भ्रष्टाचार रोकने में अकसर विफल रहे हैं जिससे ब्रेक के बाद मतदाता इन्हें खारिज कर देते हैं। इनकी इसी कमजोरी का राजनीतिक फायदा भाजपा को मिला जबकि ये लोग उसे राजनीतिक अछूत तक करार दे चुके हैं। बता दें कि 1990 के दशक में कोई भी दल पहले भाजपा से गठबंधन करने से सिर्फ इसलिए डरता था कि कहीं उसका मुस्लिम वोट छिटक न जाए लेकिन अपने राष्ट्रवादी और हिंदुत्व के अग्रगामी विचारों के साथ-साथ बीजेपी ने सुशासन, विकास और गठबंधन सरकार चलाने की योग्यता को साबित करके भारतीय मतदाताओं का दिल एक नहीं, बल्कि कई बार जीत लिया और कांग्रेस के अधिकांश पुराने सियासी रिकॉर्ड को मोदी 3.0 सरकार ने ध्वस्त कर दिया है जिसके बाद उसकी लोकप्रियता एक बार फिर से उफान पर है। वहीं, लोकसभा चुनाव 2024 में इंडिया गठबंधन खासकर कांग्रेस-सपा गठजोड़ से उसे जो धक्का लगा, उसकी भरपाई उसने हरियाणा-महाराष्ट्र के विधानसभा चुनावों से कर लिया है। लोकसभा चुनाव 2024 में भी भाजपा ने आरएसएस की उपेक्षा की कीमत चुकाई थी अन्यथा आज वह अपने गठबंधन सहयोगियों पर निर्भर नहीं रहती। लेकिन अब उसके इशारे पर जिस तरह से इंडिया गठबंधन में अंतर्कलह मची हुई है, उससे आम चुनाव 2029 में भी उसका निष्कंटक राज बरकरार रहने के आसार हैं। यदि ऐसा हुआ तो कांग्रेस बीजेपी से काफी पीछे चली जाएगी, जिसकी भरपाई वो शायद ही कभी कर पाए। वैसे भी भारतीय राजनीति में गठबंधन धर्म का पालन करने का रिकॉर्ड कांग्रेस और तीसरे-चौथे मोर्चा से बेहतर भाजपा का है। इसलिए वह दिन-प्रतिदिन मजबूत होती गई और कांग्रेस या तीसरे-चौथे मोर्चे के दल कमजोर दर कमजोर। बहरहाल, कांग्रेस नेतृत्व की बुद्धिमानी इसी में है कि वह तीसरे-चौथे मोर्चे में शामिल रहे क्षेत्रीय दलों, यूपीए या महागठबंधन और महाविकास अघाड़ी सहयोगियों को हर हाल में अपने साथ तब तक जोड़े रखे, जब तक कि लोकसभा में उसका आंकड़ा 300 के पार न चला जाए। राजनीतिक मामलों के जानकार बताते हैं कि तृणमूल कांग्रेस की नेत्री ममता बनर्जी हों, या एनसीपी शरद पवार के शरद पवार या शिवसेना यूबीटी के उद्धव ठाकरे, ये लोग कभी न कभी भाजपा नीत राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) के सदस्य या उसके परोक्ष शुभचिंतक रह चुके हैं, इसलिए कांग्रेस विरोधी इनकी बयानबाजी का मकसद भाजपा को खुश रखना है और इसी बहाने कांग्रेस पर दवाब बनाए रखना। वहीं, उत्तरप्रदेश में सपा नेता रामगोपाल यादव जो कांग्रेस नेता राहुल गांधी पर तंज कस रहे हैं, वह यूपी विधानसभा उपचुनाव 2024 में कांग्रेस की उपेक्षा के बाद मिली शर्मनाक हार की खुन्नस है। यदि अखिलेश यादव ने रामगोपाल यादव को काबू में नहीं किया तो 2022 की तरह 2027 में भी सपा के सपने नहीं पूरे होने वाले। रही बात इंडिया गठबंधन के नेतृत्व की तो ममता बनर्जी को आगे रखकर चाहे कांग्रेस पर जितना भी दबाव बना लिया जाए लेकिन राहुल की कांग्रेस अपनी मस्त सियासी चाल चलती है बिना सियासी नफा-नुकसान के। इसे इंडिया गठबंधन में शामिल दलों को समझना होगा अन्यथा पश्चिम बंगाल के अलावा कहीं उनका कोई भविष्य नहीं होगा। चाहे जम्मू कश्मीर हो या झारखंड, यदि क्रमशः नेशनल कांफ्रेंस और झारखंड मुक्ति मोर्चा नीत इंडिया गठबंधन सत्ता में आई है तो सिर्फ कांग्रेस व नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी की वजह से, अन्यथा लोकसभा चुनाव 2024 में यूपी की 80 में 37 सीट कांग्रेस के सहयोग से जीतने वाली सपा, कांग्रेस की कथित छत्रछाया से हटते ही यूपी विधानसभा चुनाव में 9 में से महज 2 सीट ही निकाल पाई। यदि उसने कांग्रेस का सम्मान किया होता तो इतनी फजीहत नहीं होती। कुछ यही हाल आप का होगा दिल्ली विधानसभा चुनाव 2025 में जो अभी कांग्रेस को हल्के में लेकर चल रही है। बिहार में कांग्रेस को कम तवज्जो देकर राजद नेता तेजस्वी यादव अपनी भद्द पिटवा ही रहे हैं। इसलिए किस नेता ने कांग्रेस या राहुल गांधी के खिलाफ क्या कहा, उनकी बातों को यहां पर मैं नहीं दुहराना चाहता बल्कि सिर्फ यह सलाह देना चाहता हूं कि भारतीय राजनीति में यदि क्षेत्रीय दलों को प्रासंगिक बने रहना है तो कांग्रेस या भाजपा को साधकर चलें अन्यथा सियासी दुर्भाग्य आपका पीछा नहीं छोड़ेगा। सब ममता बनर्जी या अरविंद केजरीवाल नहीं हो सकते! 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राजनीति आखिर ‘सम्राट चौधरी’ के सियासी उभार से हाशिए पर क्यों चले गए ‘तेजस्वी यादव’? December 10, 2024 / December 9, 2024 | Leave a Comment कमलेश पांडेय बिहार की प्रमुख विपक्षी पार्टी राष्ट्रीय जनता दल के नेता और पूर्व उपमुख्यमंत्री तेजस्वी यादव के लुढ़कते जनाधार से ‘सेक्यूलर सियासतदान’ परेशान हैं। उनकी चिंता है कि भाजपा ने बिहार के युवा नेता और मौजूदा उपमुख्यमंत्री सम्राट चौधरी पर दांव क्या लगाया, तेजस्वी यादव जितनी तेजी से उभरे थे, उससे भी तेज गति से हाशिए पर जाते प्रतीत हो रहे हैं ! कोई इसे कांग्रेस नेता व लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी और भाकपा माले की सियासी सोहबत का साइड इफेक्ट करार दे रहा है तो कोई इसे यूपी के पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव, राज्यसभा सांसद उपेंद्र कुशवाहा जैसे नेताओं से जारी सियासी लुकाछिपी का असर करार दे रहा है। राजनीतिक प्रेक्षकों का मानना है कि लालू प्रसाद की तरह ही तेजस्वी यादव की मुस्लिम परस्त वाली राजनीतिक छवि एक ओर जहां मुस्लिम-यादव (एमवाई) समीकरण को उनसे जोड़े हुए है, इसकी प्रतिक्रिया में वो सवर्ण वोट भी उनसे छिटक गया जो कभी मुख्यमंत्री और जदयू नेता नीतीश कुमार को राजनीतिक सबक सिखाने के लिए राजद और तेजस्वी यादव से जुड़ने की कोशिश किया था लेकिन जैसे ही तेजस्वी यादव, नीतीश कुमार के आशीर्वाद से एक नहीं बल्कि दो-दो बार बिहार के उपमुख्यमंत्री बने तो वो युवा जनाधार भी उनसे छिटक गया। इस बात का खुलासा तब हुआ जब लोकसभा चुनाव 2024 और बिहार विधानसभा उपचुनाव 2024 में ‘इंडिया गठबंधन’ का बिहार में सूबाई इंजन बने रहने के बावजूद राजद प्रमुख तेजस्वी यादव अपनी वह राजनीतिक सफलता नहीं दोहरा पाए जैसा कि उन्होंने बिहार विधानसभा चुनाव 2020 में या उससे पहले प्रदर्शित किया था। बता दें कि बिहार की 40 लोकसभा सीटों में से महज 9 सीट ही इंडिया गठबंधन जीत सकी जिसमें राजद को 4, कांग्रेस को तीन और भाकपा माले को दो सीटें मिलीं थीं। यह लोकसभा चुनाव 2019 के मुकाबले राजद का बेहतर परफॉर्मेंस है लेकिन बिहार विधानसभा चुनाव 2020 के मुकाबले काफी निराशाजनक, क्योंकि तब राजद राज्य की सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी के तौर पर उभरी थी। वहीं, बिहार विधानसभा उपचुनाव 2024 में 4 सीटों में से एक भी सीट राजद या उसके इंडिया गठबंधन को नहीं मिली जबकि पड़ोसी राज्य यूपी में इंडिया गठबंधन की सूबाई इंजन सपा ने 80 में से 43 (सपा- 37 और कांग्रेस- 6) सीटें जीतकर बीजेपी को 50 प्रतिशत से अधिक सीटों पर जबरदस्त मात दी थी और यूपी विधानसभा उपचुनाव 2024 में भी 9 में से 2 सीटें जीतने में कामयाब रही। इससे तेजस्वी यादव का बिहार में चिंतित होना स्वाभाविक है क्योंकि अब इंडिया गठबंधन की हवा निकल चुकी है और उसमें कांग्रेस के नेतृत्व पर भी सवाल उठ रहे हैं। इसलिए बिहार विधानसभा चुनाव 2025 के दौरान तेजस्वी यादव को अपनी सियासी साख बचाने के लिए न केवल कड़ी राजनीतिक मशक्कत करनी पड़ेगी बल्कि सियासी सूझबूझ भी नए सिरे से दिखानी होगी जिसके आसार बहुत कम हैं। इसलिए अब यह कहा जाने लगा है कि भाजपा के सम्राट चौधरी दांव पर तेजस्वी यादव चारो खाने चित्त हो गए हैं। जहां लोकसभा चुनाव 2024 में यूपी वाले ‘इंडिया गठबंधन’ यानी समाजवादी पार्टी-कांग्रेस गठजोड़ को हासिल उपलब्धि की तरह बिहार में कुछ खास नहीं कर पाए, वहीं बिहार विधानसभा उपचुनाव 2024 में उससे भी बुरा सियासी प्रदर्शन किया जिससे अब उनके नेतृत्व पर ही सवाल उठने लगे हैं। कुछ लोगों का कहना है कि लालू प्रसाद यादव जैसे रघुवंश प्रसाद सिंह या जगतानंद सिंह जैसे कद्दावर नेताओं की दूसरी कतार की तरह राजद में अपने मुकाबले कोई दूसरी कतार बनने ही नहीं दिया, जिसका अब उन्हें राजनीतिक नुकसान उठाना पड़ रहा है। इतना ही नहीं, लालू प्रसाद जैसे भाजपा में सुशील मोदी जैसा बैकडोर शुभचिंतक रखते थे, कोई वैसा दूसरा हमउम्र शुभचिंतक पैदा करने में भी तेजस्वी यादव सर्वथा विफल रहे हैं! कहना न होगा कि आज ‘तेजस्वी यादव’ और ‘सम्राट चौधरी’ महज व्यक्ति नहीं बल्कि विचार बन चुके हैं। तेजस्वी यादव जहां ‘सेक्यूलर जमात’ की तरफदारी कर रहे हैं, वहीं सम्राट चौधरी अपने धर्मनिरपेक्ष मिजाज के बावजूद ‘प्रबल हिंदुत्व’ के समर्थकों की एकमात्र उम्मीद बनकर उभरे हैं और केंद्रीय मंत्री गिरिराज सिंह की तरह दबंगई पूर्वक अपनी बात रखते हैं। यही वजह है कि पहले उन्हें बीजेपी ने मंत्री बनाया, फिर प्रदेश अध्यक्ष बनने का मौका दिया और उसके बाद सीधे उपमुख्यमंत्री बना दिया। वहीं, सम्राट चौधरी के बढ़ते सियासी ग्राफ का सेंसेक्स इस बात का संकेत दे रहा है कि भविष्य में तीसरी पीढ़ी के भाजपा नेताओं से जब प्रदेश में ओबीसी मुख्यमंत्री या फिर देश में ओबीसी प्रधानमंत्री बनाने की बात छिड़ेगी तो सम्राट चौधरी के नाम को खारिज करना इसलिए भी कठिन हो जाएगा, क्योंकि पूर्वी भारत में वो एकमात्र ऐसे भाजपा नेता हैं जिन्हें न केवल पीएम नरेंद्र मोदी और एचएम अमित शाह पसंद करते हैं बल्कि यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस भी उनके सियासी अंदाज को तवज्जो देते हैं। यह बात मैं इसलिए बता रहा हूँ ताकि बिहारवासी यह समझ सकें कि सियासत एक चक्रव्यूह है जिसे अमूमन किसी अभिमन्यु की तलाश रहती है लेकिन समकालीन अर्जुन वह गलतियां नहीं दुहराता, जो महाभारत काल में दुहराई जा चुकी हैं। आज लालू प्रसाद और शकुनी चौधरी जैसे सियासी धुरंधर पग-पग पर अपने पुत्रों का मार्गदर्शन कर रहे हैं। आपको पता होगा कि बिहार की राजनीति को लगभग 15 वर्षों तक (1990-2005) अपने हिसाब से हांकने वाले पूर्व मुख्यमंत्री और राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद के तेजस्वी पुत्र तेजस्वी यादव हैं जबकि उस दौर में भी लालू प्रसाद को कड़ी सियासी चुनौती देने वाले उनकी ही सरकार के पूर्व स्वास्थ्य मंत्री शकुनी चौधरी के यशस्वी पुत्र सम्राट चौधरी हैं, जो बिहार के सबसे कम उम्र के मंत्री बनने का रिकॉर्ड स्थापित कर चुके हैं। यह उनके राजनीतिक सूझबूझ का ही तकाजा है कि आज वो कुशवाहा नेता उपेंद्र कुशवाहा को काफी पीछे छोड़ चुके हैं जो उनके पिता शकुनी चौधरी के प्रबल राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी समझे जाते थे। बिहार की राजनीति में सम्राट चौधरी जितना फूंक-फूंक कर सियासी कदम उठा रहे हैं. उससे साफ पता चलता है कि अपने स्वर्णिम राजनीतिक भविष्य के लिए वह कोई जोखिम मोल लेना नहीं चाहते हैं । वहीं, पटना से लेकर दिल्ली तक जिस तरह से अपने शुभचिंतकों से जुड़े दिखाई प्रतीत होते हैं, उससे उनके प्रतिस्पर्धी नेता भी खुन्नस खा रहे हैं। हाल ही में महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस के शपथ ग्रहण समारोह में बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के साथ उनकी असरदार मौजूदगी भी दिल्ली के राजनीतिक गलियारे में चर्चा का विषय बनी हुई है। राजनीतिक लोग बता रहे हैं कि कभी नीतीश कुमार को सियासी आईना दिखाने वाले सम्राट चौधरी अब परिस्थितिवश जितना बेहतर तालमेल प्रदर्शित कर रहे हैं, उसका इशारा भी साफ है कि नीतीश कुमार का राजनीतिक सूर्य अस्त होते ही सम्राट चौधरी उस सियासी शून्य को भरकर बिहार भाजपा को वह राजनीतिक ऊर्जा प्रदान करेंगे जो उसे इन दिनों यूपी से महाराष्ट्र तक मिल रही है। ऐसा तभी संभव होगा, जब तेजस्वी यादव को बिहार विधान सभा चुनाव 2025 में एक और शिकस्त मिलेगी। टीम भाजपा अभी अपने इसी मिशन में जुटी हुई है। उधर, बिहार विधानसभा चुनाव से पहले आरजेडी नेता तेजस्वी यादव पूरी तरह से सक्रिय दिखाई दे रहे हैं। हाल ही में अपनी शेखपुरा यात्रा के दौरान उन्होंने राष्ट्रीय लोक मोर्चा के नेता देवेंद्र कुशवाहा से मुलाकात कर सियासी पारा हाई कर दिया है। इस मुलाकात के बाद जिले की सियासत गर्म हो गई है, क्योंकि कुशवाहा ने कहा कि उन्होंने पंचायत की समस्याओं को लेकर तेजस्वी से मुलाकात की जबकि सियासी हल्के में यह चर्चा है कि राज्यसभा सांसद उपेंद्र कुशवाहा अपनी लोकसभा चुनाव 2024 की हार से भाजपा से भीतर ही भीतर चिढ़े हुए हैं और अपने नेताओं को तेजस्वी यादव के पीछे लगा दिया है, ताकि समय आने पर अपने साथ हुए सियासी छल का बदला ले सकें। आपको पता होगा कि जब-जब भाजपा नीतीश कुमार के करीब जाती है तो लाचारीवश उसे उपेंद्र कुशवाहा की पार्टी से दूरी बनानी पड़ती है। वहीं, लोजपा नेता चिराग पासवान और हम नेता जीतनराम मांझी जैसे नीतीश विरोधी नेताओं की पूछ भी घट जाती है हालांकि, दलित नेता होने के चलते चिराग को उपेंद्र से ज्यादा तवज्जो मिलती है। नीतीश कुमार के ही चक्कर में कभी भाजपा जॉइन किये आरसीपी सिंह भी आज सियासी नेपथ्य में चले गए हैं। ऐसे में नीतीश के धुर विरोधी रहे सम्राट चौधरी जिन्होंने कभी उन्हें पद से हटाने के लिए पगड़ी तक बांध रखी थी, को यदि भाजपा तवज्जो दे रही है तो यह उनके नेतृत्व कौशल, राजनीतिक प्रबंधन और व्यक्तिगत सम्पर्क का ही तकाजा है। इससे नीतीश व तेजस्वी दोनों परेशान हैं और खुद को उस सियासी चक्रव्यूह में घिरा महसूस कर रहे हैं, जहां सम्राट के महीन सियासी वार की कोई राजनीतिक काट तक उन्हें नहीं सूझ रही है। वहीं, बिहार की राजनीति के चाणक्य समझे जाने वाले मुख्यमंत्री नीतीश कुमार (2005-से अब तक बीच में अपने शागिर्द जीतनराम मांझी के संक्षिप्त कार्यकाल को छोड़कर) ने बिहार के अधिकांश रिकॉर्ड को ध्वस्त करते हुए जिस तरह से अपनी सूबाई बादशाहत बनाए हुए हैं, उसे भी यदि सम्राट चौधरी निकट भविष्य में विनम्रता पूर्वक तोड़ दें तो किसी को हैरत नहीं होगी क्योंकि भले ही वह आरएसएस बैकग्राउंड से नहीं हैं लेकिन संघ और भाजपा की एक-एक राजनीतिक कड़ी को बखूबी जोड़ते जा रहे हैं ताकि भाजपा के नेतृत्व वाली सरकार जल्द ही बिहार में बन सके। उनके इस उद्देश्य की पूर्ति में केंद्रीय मंत्री नित्यानंद राय और भूपेंद्र यादव का सक्रिय सहयोग भी उन्हें मिल रहा है, ऐसा पार्टी सूत्र बताते हैं। कमलेश पांडेय Read more » why was Tejashwi Yadav marginalized due to the political rise of Samrat Chaudhary?