कुमार कृष्णन

कुमार कृष्णन

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विगत तीस वर्षो से स्वतंत्र प​त्रकारिता, देश विभिन्न समाचार पत्र और पत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशित

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लेखक - कुमार कृष्णन - के पोस्ट :

कला-संस्कृति धर्म-अध्यात्म

भक्तों के फौजदारी मामले की सुनवाई करते हैं बाबा बासुकीनाथ

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कुमार कृष्णन श्रावण माह भगवान शिव को समर्पित है। भगवान शिव तो ‘संहारक’ है, सृजन कर्ता और ‘नव निर्माण कर्ता’ भी है। ‘शिव’ अर्थात कल्याणकारी, सर्वसिद्धिदायक, सर्वश्रेयस्कर ‘कल्याणस्वरूप’ और ‘कल्याणप्रदाता’ है। जो हमेशा योगमुद्रा में विराजमान रहते है और हमें जीवन में योगस्थ, जीवंत और जागृत रहने की शिक्षा देते है। पुराणों में उल्लेख है कि समुद्र मंथन के दौरान निकले विष के विनाशकारी प्रभावों से इस धरा को सुरक्षित रखने के लिये भगवान शिव में उस हलाहल विष को अपने कंठ में धारण किया और पूरी पृथ्वी को विषाक्त होने से; प्रदूषित होने से बचा लिया। भगवान शिव ने विष शमन करने के लिये अपने सिर पर अर्धचंद्राकार चंद्रमा को धारण किया तथा सभी देवताओं ने माँ गंगा का पवित्र जल उनके मस्तक पर डाला ताकि उनका शरीर शीतल रहे तथा विष की उष्णता कम हो जाये। चूंकि ये घटना श्रावण मास के दौरान हुई थीं, इसलिए श्रावण में शिवजी को माँ गंगा का पवित्र जल अर्पित कर शिवाभिषेक किया जाता है, कांवड यात्रा इसी का प्रतीक है। शिवाभिषेक से तात्पर्य दिव्यता को आत्मसात कर आत्मा को प्रकाशित करना है। प्रतीकात्मक रूप से शिवलिंग पर पवित्र जल अर्पित करने का उद्देश्य है कि हमारे अन्दर की और वातावरण की नकारात्मकता दूर हो तथा सम्पूर्ण ब्रह्मण्ड में सकारात्मकता का समावेश हो।  तीर्थ नगरी देवधर स्थित द्वादश ज्योर्तिलिंग बाबा बैधनाथ और सुलतानगंज की उत्तर वाहिनी गंगा तट पर स्थित बाबा अजगैबीनाथ के साथ दुमका जिला में सुरभ्य वातावरण में स्थित बाबा बासुकीनाथ धाम की गणना बिहार और झारखंड ही नहीं, वरन् राष्ट्र और अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रमुख शैव-स्थल के रूप में होती है। देवघर-दुमका मुख्य मार्ग पर स्थित इस पावन धाम में श्रावणी- मेला के दौरान केसरिया वस्त्रधारी कांवरिया तीर्थयात्रियों की खास चहल-पहल रहती हैं। ऐसी मान्यता है कि बासुकीनाथ की पूजा के बिना बाबा बैद्यनाथ की पूजा अधूरी है। यही कारण है कि भक्तगण बाबा बैद्यनाथ की पूजा के साथ साथ यहां आकर नागेश ज्योतिर्लिंग के नाम से विख्यात बाबा बासुकीनाथ की आराधना करते हैं। सावन के महीने में तो हजारों लाखों भक्तगण सुलतानगंज-अजगैबीनाथ से उत्तरवाहिनी गंगा का पवित्र जल अपने कांवरों में भरते हैं। फिर एक सौ किलोमीटर से भी अधिक पहाड़ी जंगली रास्ते पैदल पारकर इसे देवघर में बैधनाथ ज्योतिर्लिंग पर चढ़ाते हैं। इसके बाद वे बासुकीनाथ आकर नागेश ज्योतिर्लिंग पर जल-अर्पण करते हैं। भगवान शिव औघड़दानी कहलाते हैं। भक्तों की भक्ति से प्रसन्न होकर तुरंत वरदान देनेवाले। तभी तो शिवभक्तों की नजरों में यहां भगवान शंकर की अदालत लगती है। शिव-भक्त मानते हैं कि जहां (बैद्यनाथ धाम) भगवान शंकर की दीवानी अदालत है, वही बासुकीनाथ धाम उनकी फौजदारी अदालत है। बाबा बासुकीनाथ के दरबार में मांगी गयी मुरादों की तुरंत सुनवाई होती है। यही कारण है कि साल के बारहों महीने यहां देश के कोने-कोने से भक्तों का आवागमन जारी रहता है। प्राचीन काल में बासुकीनाथ घने जंगलों से घिरा था। उन दिनों यह क्षेत्र दारूक-वन कहलाता था। पौराणिक कथा के अनुसार इसी दास्क-बन में द्वादश ज्योतिर्लिंग स्वरूप नागेश्वर ज्योतिर्लिंग का निवास था। शिव पुराण में वर्णित है कि दारूक-बन दारूक नाम के असुर के अधीन था। कहते हैं, इसी दारूक-बन के नाम पर संताल परगना प्रमंडल के मुख्यालय दुमका का नाम पड़ा है। बासुकीनाथ शिवर्लिंग के आविर्भाव की कथा अत्यंत निराली है। एक बार की बात है- बासु नाम का एक व्यक्ति कंद की खोज में भूमि खोद रहा था। उसके शस्त्र से शिवलिंग पर चोट पड़ी। बस क्या था- उससे रक्त की धार बह चली। बासु यह दृश्य देखकर भयभीत हो गया। उसी क्षण भगवान शंकर ने उसे आकाशवाणी के द्वारा धीरज दिया – डरो मत, यहां मेरा निवास है। भगवान भोलेनाथ की वाणी सुन बासु श्रद्धा-भक्ति से अभिभूत हो गया और उसी समय से उस लिंग की मूर्ति्-पूजन करने लगा। बासु द्वारा पूजित होने के कारण उनका नाम बासुकीनाथ पड़ गया। उसी समय से यहां शिव-पूजन की जो परम्परा शुरू हुई, वो आज तक विद्यमान है। आज यहां भगवान भोले शंकर और माता पार्वती का विशाल मंदिर है। मुख्य मंदिर के बगल में शिव गंगा है जहां भक्तगण स्नान कर अपने आराध्य को बेल-पत्र, पुष्प और गंगाजल समर्पित करते हैं तथा अपने कष्ट क्लेशों को दूर करने की प्रार्थना करते हैं। यह माना जाता है कि वर्तमान दृश्य मंदिर की स्थापना 16वीं शताब्दी के अंतिम वर्षों में हुई। हिंदुओं के कई ग्रंथों में सागर मंथन का वर्णन किया गया है, जब देवताओं और असुरों ने मिलकर सागर मंथन किया था। बासुकीनाथ मंदिर का इतिहास भी सागर मंथन से जुड़ा हुआ है। कहा जाता है कि सागर मंथन के दौरान पर्वत को मथने के लिए वासुकी नाग को माध्यम बनाया गया था। इन्हीं वासुकी नाग ने इस स्थान पर भगवान शिव की पूजा अर्चना की थी। यही कारण है कि यहाँ विराजमान भगवान शिव को बासुकीनाथ कहा जाता है इसके अलावा मंदिर के विषय में एक स्थानीय मान्यता भी है। कहा जाता है कि यह स्थान कभी एक हरे-भरे वन क्षेत्र से आच्छादित था जिसे दारुक वन कहा जाता था। कुछ समय के बाद यहाँ मनुष्य बस गए जो अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए दारुक वन पर निर्भर थे। ये मनुष्य कंदमूल की तलाश में वन क्षेत्र में आया करते थे। इसी क्रम में एक बार बासुकी नाम का एक व्यक्ति भी भोजन की तलाश में जंगल आया। उसने कंदमूल प्राप्त करने के लिए जमीन को खोदना शुरू किया। तभी अचानक एक स्थान से खून बहने लगा। बासुकी घबराकर वहाँ से जाने लगा तब आकाशवाणी हुई और बासुकी को यह आदेशित किया गया कि वह उस स्थान पर भगवान शिव की पूजा अर्चना प्रारंभ करे। बासुकी ने जमीन से प्रकट हुए भगवान शिव के प्रतीक शिवलिंग की पूजा अर्चना प्रारंभ कर दी, तब से यहाँ स्थित भगवान शिव बासुकीनाथ कहलाए। भगवान भोले शंकर की महिमा अपरंमपार है। वे देवों के देव महादेव कहलाते हैं। वे व्याघ्र चर्म धारण करते हैं, नंदी की सवारी करते हैं, शरीर में भूत-भभूत लगाते हैं, श्माशान में वास करते हैं, फिर भी औघड़दानी कहलाते हैं। दिल से जो कुछ भी मांगों, बाबा जरूर देगे। जैसे भगवान भोले शंकर, वैसे उनके भक्तगण! बाबा हैं कि उन्हें किसी प्रकार के साज-बाज से कोई मतलब नहीं, और भक्त हैं कि दुनिया के सारे आभूषण और अलंकार उनपर न्यौछावर करने के लिये तत्पर! अपने आराध्य को प्रसन्न करने के लिये! भक्त और भगवान की यह ठिठोली ही तो भारतीय धर्म और संस्कृति का वैशिष्ट्य है। श्रावण मास में शिव पूजन के अलावा यहां की महाश्रृगांरी भी अनुपम है। कहते हैं कि कलियुग में वसुधैव कुटुम्बकम तथा सर्वे भवंतु सुखिनः जैसी उक्तियों को प्रतिपादित करने के लिये शिव की उपासना से बढ़कर अन्य कोई मार्ग नहीं हैं! और, शिव की उपासना की सर्वोत्तम विधि है – महाश्रृगांर का आयोजन! गंगाजल घी, दूध दही, बेलपत्र आदि शिव की प्रिय वस्तुओं को अर्पित कर उन्हें प्रसन्न करने का सबसे उत्तम उपाय। तभी तो साल के मांगलिक अवसरों पर भक्तगण बाबा बासुकीनाथ की महाश्रृगांरी और महामस्तकाभिषेक का आयोजन करते हैं। महाश्रृंगार के दिन बासुकीनाथ की शिव-नगरी नयी-नवेली दुलहन की तरह सज उठती है-मानों स्वर्ग पृथ्वी पर उतर आया हो। लगता है देव -लोक के सभी देवी— देवता पृथ्वी-लोक पर अवतरित हो गये हैं- भगवान भूतनाथ की रूप-सज्जा देखने के लिये। आये भी क्यों नहीं। देवों के देव महादेव की महाश्रृगांरी जो है। शिव का स्वरूप विराट् है किंतु इनकी आराधना अत्यंत सरल भी है और कठिन भी। इनकी महाश्रृंगारी तो और भी कठिन। आखिर जगत के स्वामी के महाश्रृगांर की जो बात है। इस हेतु साधन जुटायें भी तो कैसे पर, भगवान की लीला की तरह भक्तों की भक्ति भी न्यारी होती है। शिव की आराधना में उनके श्रृंगार हेतु भक्त मानों अपनी सारी निष्ठा ही लगा देते हैं और, शिव की स्रष्टि की श्रेष्टतम् सामग्रियां लाकर शिव को ही समर्पित करतें हैं। श्रावण माह प्रकृति और पर्यावरण की समृद्धि, नैसर्गिक सौन्द्रर्य के संवर्धन और संतुलित जीवन का संदेश देता है। नैसर्गिक सौन्द्रर्य के संवर्द्धन के लिये शिवाभिषेक के साथ धराभिषेक; धरती अभिषेक नितांत आवश्यक है। वास्तव में देखे तो श्रावण मास प्रकृति को सुनने, समझने और प्रकृतिमय जीवन जीने का संदेश देता है। बासुकीनाथ मंदिर के पास ही एक तालाब स्थित है जिसे वन गंगा या शिवगंगा भी कहा जाता है। इसका जल श्रद्धालुओं के लिए दुमका स्थित बासुकीनाथ मंदिर का इलाका पूरे सावन में बोल-बम के नारों से गुंजायमान रहता है। बासुकीनाथ पहुँचने के लिए निकटतम हवाईअड्डा देवघर है। यहां से 54 किलोमीटर की दूरी है। राँची का बिरसा मुंडा एयरपोर्ट है जो मंदिर से लगभग 280-300 किमी की दूरी पर है। इसके अलावा कोलकाता का नेताजी सुभास चंद्र बोस हवाईअड्डा भी यहाँ से लगभग 320 किमी की दूरी पर है। बासुकीनाथ से सबसे नजदीकी रेलवे स्टेशन दुमका है जो लगभग 25 किमी है और बासुकीनाथ से जसीडीह रेलवे स्टेशन की दूरी लगभग 50 किमी है। बासुकीनाथ, दुमका-देवघर राज्य राजमार्ग पर स्थित है। झारखंड के कई शहरों से बासुकीनाथ पहुँचने के लिए बस की सुविधा उपलब्ध है। बासुकीनाथ, राँची से लगभग 294 किमी और धनबाद से लगभग 130 किमी की दूरी पर स्थित है।    कुमार कृष्णन

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धर्म-अध्यात्म

चंडिका स्थान: यहां गिरी थी सती की बांयीं आंख

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कुमार कृष्णन  देश में 52 शक्तिपीठ हैं, सभी शक्तिपीठों में देवी मां के शरीर का एक हिस्सा गिरा था। जिसके कारण यहां मंदिर स्थापित हुए। ऐसा ही एक शक्तिपीठ बिहार के मुंगेर जिले से करीब चार किलोमीटर दूर है। यहां देवी सती की बाईं आंख गिरी थी यह मंदिर को चंडिका स्थान और श्मशान चंडी के नाम से जाना जाता है। मान्यताओं के अनुसार मंदिर में आने वाले श्रृद्धालुओं की हर मुराद पूरी होती है। इस स्थान को लेकर लोगों का कहना है कि यहां आंखो से संबंधित हर रोग का इलाज होता है। जी हां, यहां खास काजल मिलता है जिसे आंखों में लगाने से व्यक्ति के आंख से संबंधित रोग दूर हो जाते हैं। वैसे तो यहां भारी संख्या में श्रृद्धालुओं का तांता लगा रहता है लेकिन नवरात्रि में यहां भक्तों का सैलाब आ पड़ता है। चूंकि मंदिर के पूर्व और पश्चिम में श्मशान है और मंदिर गंगा किनारे स्थित है। जिसके कारण यहां तांत्रिक तंत्र सिद्धियों के लिए आते हैं। नवरात्र को समय मंदिर का महत्व और भी अधिक हो जाता है। सुबह के समय मंदिर में तीन बजे देवी का पूजन शुरु होता है और शाम के समय भी श्रृंगार पूजन किया जाता है। इस कारण नवरात्र के दौरान कई विभिन्न जगहों से साधक तंत्र सिद्धि के लिए भी जमा होते हैं। चंडिका स्थान में नवरात्र के अष्टमी के दिन विशेष पूजा का आयोजन होता है। इस दिन सबसे अधिक संख्या में भक्तों का यहां जमावड़ा होता है।सिद्धि-पीठ होने के कारण, चंडिका स्थान को सबसे पवित्र और पवित्र मंदिरों में से एक माना जाता है। यह गुवाहाटी स्थित कामाख्या मंदिर जैसा ही  महत्वपूर्ण है। चंडिका स्थान के मुख्य पुजारी नंदन बाबा बताते हैं कि चंडिका स्थान एक प्रसिद्ध शक्ति पीठ है। नवरात्र के दौरान सुबह तीन बजे से माता की पूजा शुरू हो जाती है। संध्या में श्रृंगार पूजन होता है। अष्टमी के दिन यहां विशेष पूजा होती है। इस दिन माता का भव्य शृंगार होता है। यहां आने वाले लोगों की सभी मनोकामना पूर्ण होती है। श्रृद्धालुओं का मानना है कि यहां देवी के दरबार में हाजिरी लगाने से हर मनोकामना पूरी हो जाती है। मंदिर प्रांगण में काल भैरव, शिव परिवार और बहुत सारे हिंदू देवी- देवताओं के मंदिर हैं। भगवान शिव जब राजा दक्ष की पुत्री सती के जलते हुए शरीर को लेकर जब भ्रमण कर रहे थे, तब सती की बाईं आंख यहां गिरी थी। इस कारण यह 52 शक्तिपीठों में एक माना जाता है। इसके अलावा इस मंदिर को महाभारत काल से जोड़ा जाता है। कर्ण मां चंडिका के परम भक्त थे। वह हर रोज़ मां के सामने खौलते हुए तेल की कड़ाही में कूदकर अपनी जान देते थे और मां प्रसन्न होकर उन्हें जीवनदान दे देती थी और उसके साथ सवा मन सोना भी देती थी। कर्ण सारा सोना मुंगेर के कर्ण चौरा पर ले जाकर बांट देते। इस बात का पता जब उज्जैन के राजा विक्रमादित्य के पड़ा तब वे वहां पहुंचे और उन्होंने अपनी आंखों से पूरा दृश्य देखा। एक दिन वह कर्ण से पहले मंदिर गए ब्रह्म मुहूर्त में गंगा स्नान कर स्वयं खौलते हुए तेल की कड़ाही में कूद गए। मां ने उन्हें जीवित कर दिया। वह तीन बार कड़ाही में कूदे और तीन बार मां ने उन्हें जीवनदान दिया। जब वह चौथी बार कूदने लगे तो मां ने उन्हें रोक दिया और मनचाहा वरदान मांगने को कहा। राजा विक्रमादित्य ने मां से सोना देने वाला थैला और अमृत कलश मांग लिया। मां ने भक्त की इच्छा पूरी करने के बाद कड़ाही को उलटा दिया और स्वयं उसके अंदर अंतर्ध्यान हो गई। आज भी मंदिर में कड़ाही उलटी हुई है। उसके अंदर मां की उपासना होती है। मंदिर में पूजन से पहले विक्रमादित्य का नाम लिया जाता है, फिर मां चंडिका का। नवरात्र में श्रद्धालुओं की भीड़ अन्य दिनों की तुलना में कई गुना ज्यादा होता है।नवरात्र अष्टमी के दिन यहां खास पूजा होती है।यहां के पुजारी ने बताया कि मुंगेर-खगड़िया जिला का एप्रोच पथ जब से बना है तब से नवरात्र में गंगा पार खगड़िया, बेगूसराय जिला के श्रद्धालु भारी संख्या में पहुंच रहे हैं। श्रद्धालुओं ने बताया कि मां शक्तिपीठ चंडिका स्थान का बहुत बड़ा महत्व है और कई साल से मां की पूजा अर्चना करते आ रहे हैं। मां से जो भी मांगते हैं मां पूरी करती है। तंत्र साधना में इसका स्थान असम के कामाख्या मंदिर के जैसा है।  पहले इसे एक बहुत छोटा प्रवेश द्वार  था लेकिन 20 वीं शताब्दी में, इसका प्रवेश द्वार बड़े में बदल दिया गया था। चंडिका स्थान का विकास 40-50 साल पहले राय बहादुर केदार नाथ गोयनका ने किया था, फिर से वर्ष 1991 में श्याम सुंदर भंगड़ ने किया था। आईटीसी ने भी सामाजिक दायित्व के तहत मंदिर परिसर को विकसित किया। परमहंस स्वामी निरंजनानंद सरस्वती के  अनुसार नवरात्रि, माँ दुर्गा को समर्पित नौ रातों का पर्व है। यह आध्यात्मिक जागरूकता, भक्ति और आंतरिक परिवर्तन का दिव्य अवसर है। इन नौ दिनों में माँ दुर्गा के नौ स्वरूपों की पूजा की जाती है, जो विभिन्न गुणों और ब्रह्मांडीय ऊर्जाओं का प्रतिनिधित्व करते हैं और हमारे शरीर, मन और आत्मा को प्रभावित करते हैं। चंडी माता का आक्रामक पहलू है। चंडी तब अस्तित्व में आती है जब सभी मानवीय और दैवीय प्रयास विफल हो जाते हैं। मानव प्रयास की एक सीमा होती है और दैवीय प्रयास की भी एक सीमा होती है।  चंडी की कहानी दुर्गासप्तशती पुस्तक में वर्णित है , जिसमें ब्रह्मांडीय मां की महिमा का वर्णन किया गया है। कहानी देवताओं और राक्षसों के बीच युद्ध से शुरू होती है। देवताओं ने राक्षसों को कड़ी टक्कर दी और राक्षसों को स्वर्ग से निकाल दिया गया। ब्रह्मांड का पूरा संतुलन गड़बड़ा गया। शांति और सद्भाव के बजाय अराजकता और संघर्ष दिन का क्रम था। पूर्ण मनोबल की स्थिति में, देवता गए और त्रिदेवों को अपनी व्यथा सुनाई, जिनका प्रतिनिधित्व ब्रह्मा, निर्माता, विष्णु, संरक्षक और शिव, संहारक ने किया। जब तीनों देव देवों की पीड़ा सुन रहे थे, तो वे क्रोधित हो गए और उनके क्रोध से एक रूप, एक आकृति प्रकट हुई। वह चंडी थी, जिसे दुर्गा के नाम से भी जाना जाता है। दुर्गा का जन्म प्रत्येक देव के तेज से हुआ था और वह सभी ब्रह्मांडीय शक्तियों के संश्लेषण का प्रतिनिधित्व करती है।  सिद्ध शक्तिपीठ स्थल चंडिका स्थान के सौंदर्यीकरण की योजना  को सरकारी  मंजूरी मिल गयी है। पर्यटन विभाग  4.18 करोड़ की लागत से चंडिका स्थान का सौंदर्यीकरण करा रहा है। इसके तहत श्रद्धालुओं के ठहरने के धर्मशाला, मल्टीपरपस हॉल, मुख्यद्वार से गर्भगृह तक पाथ वे का निर्माण कराया जाना है। मुख्य  प्रवेश द्वार को बड़ा और आकर्षक बनाया जाएगा।  इसके अलावा मंदिर का चाहरदीवारी का भी निर्माण होगा।वहीं सुरक्षा के उद्देश्य से मंदिर परिसर में सीसीटीवी कैमरा लगाया जाएगा। मंदिर परिसर को पूरी तरह समतल बनाकर भक्तगण को बैठने के लिए पेड़ के नीचे बेंच लगाया जाएगा। इसके अलावा मंदिर परिसर में हाई मास्ट लाइट, पाथ वे, दवा के साथ फस्ट एड कक्ष तथा मंदिर से पानी की निकासी और वर्षा जल संरक्षित करने के लिए ड्रेनेज चैनल और रेन वाटर हार्वेस्टिंग सिस्टम बनाया जाएगा। कुमार कृष्णन 

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