राजनीति पहलगाम की गोलियाँ: धर्म पर नहीं, मानवता पर चली थीं April 25, 2025 / April 25, 2025 | Leave a Comment — प्रियंका सौरभ कश्मीर के पहलगाम में हाल ही में हुआ आतंकी हमला सिर्फ एक गोलीबारी नहीं थी—यह एक ऐसा खौफनाक संदेश था जिसमें गोलियों ने धर्म की पहचान पूछकर चलना शुरू किया। प्रत्यक्षदर्शियों की मानें तो आतंकियों ने पहले पर्यटकों से उनका धर्म पूछा, फिर उन्हें जबरन कलमा पढ़ने के लिए कहा, और इंकार […] Read more » पहलगाम की गोलियाँ
लेख कोई पानी डाल दे तो मैं भी चौंच भर पीलूं: चुपचाप मरते परिंदों की पुकार April 24, 2025 / April 24, 2025 | Leave a Comment तेज़ होती गर्मी, घटते जलस्रोत और बढ़ती कंक्रीट संरचनाओं के कारण पक्षियों के लिए पानी और छांव जैसी बुनियादी ज़रूरतें भी दुर्लभ होती जा रही हैं। परिंदे हमारे पारिस्थितिकी तंत्र का अभिन्न हिस्सा हैं, और अगर वे गायब हो गए तो यह धरती और भी सूनी हो जाएगी। आधुनिक समाज एसी चलाने में सक्षम है […] Read more » चौंच भर पीलूं
कविता अभी तो मेंहदी सूखी भी न थी April 23, 2025 / April 23, 2025 | Leave a Comment — पहलगाँव हमले पर एक कविता अभी तो हाथों से उसका मेंहदी का रंग भी नहीं छूटा था,कलाईयों में छनकती चूड़ियाँ नई थीं,सपनों की गठरी बाँध वो चल पड़ा था वादियों में,सोचा था — एक सफर होगा, यादों में बस जाने वाला। पर तुम आए —नाम पूछा, धर्म देखा, गोली चलाई!सर में…जहाँ शायद अभी भी […] Read more » terrorist attack in pahalgaon अभी तो मेंहदी सूखी भी न थी
कविता पहलगाम की चीख़ें April 23, 2025 / April 23, 2025 | Leave a Comment जब बर्फ़ीली घाटी में ख़ून बहा,तब दिल्ली में सिर्फ़ ट्वीट हुआ।गोलियाँ चलीं थी सरहद पार से,पर बहस चली—”गलती किसकी है सरकार से?” जो लड़ रहे थे जान पे खेलकर,उनकी कुर्बानी दब गई मेल में।और जो बैठे थे एयरकंडीशन रूम में,लिखने लगे बयान—”मोदी है क़सूरवार इसमें।” कब समझोगे, ये दुश्मन बाहर है,जो मज़हब की आड़ में […] Read more » पहलगाम की चीख़ें
राजनीति पहलगाम हमला: कब सीखेंगे सही दुश्मन पहचानना? April 23, 2025 / April 23, 2025 | Leave a Comment “पहलगाम का सच: दुश्मन बाहर है, लड़ाई घर के भीतर” पहलगाम हमला जिहादी मानसिकता का परिणाम है। मोदी सरकार ने हमेशा आतंकवाद का मुँहतोड़ जवाब दिया है। राजनीतिक आलोचना आतंकवाद के असली स्रोत से ध्यान भटकाती है। जातियों में बंटा समाज आतंक से निपटने में अक्षम होगा। हमें आतंकवाद के विरुद्ध एकजुट होकर खड़ा होना […] Read more » पहलगाम हमला
मीडिया लेख समाज अजमेर से इंस्टाग्राम तक: बेटियों की सुरक्षा पर सवाल April 22, 2025 / April 22, 2025 | Leave a Comment शिक्षा या शिकारी जाल? पढ़ी-लिखी लड़कियों को क्यों नहीं सिखा पाए हम सुरक्षित होना? अजमेर की छात्राएं पढ़ी-लिखी थीं, लेकिन वे सामाजिक चुप्पियों और डिजिटल खतरों से अनजान थीं। हमें यह स्वीकार करना होगा कि शिक्षा सिर्फ डिग्री नहीं, सुरक्षा भी सिखाए। और परवरिश सिर्फ आज्ञाकारी बनाने के लिए नहीं, संघर्षशील और सचेत नागरिक बनाने […] Read more » बेटियों की सुरक्षा पर सवाल
प्रवक्ता न्यूज़ विनाश के पाँच तोप: शिक्षा से तहसील तक April 22, 2025 / April 22, 2025 | Leave a Comment शिक्षा, स्वास्थ्य, चिकित्सा, थाना और तहसील जैसे पाँच संस्थानों की विफलता गंभीर चिंता का विषय है। शिक्षा अब ज्ञान नहीं, कोचिंग और फीस का बाजार बन चुकी है। स्वास्थ्य सेवाएँ निजीकरण की भेंट चढ़ चुकी हैं, जहाँ इलाज से ज्यादा पैकेज बिकते हैं। चिकित्सा व्यवस्था मुनाफाखोरी का अड्डा बन गई है। थाने न्याय की जगह […] Read more »
कविता ज्योतिबा फुले: क्रांति की मशाल April 11, 2025 / April 11, 2025 | Leave a Comment समर्पित—ज्योतिराव फूले, जिन्होंने समाज को आँखें दीं। -प्रियंका सौरभ धूप थी अज्ञान की, अंधकार था घना,उग आया फूले-सा एक सूर्य अनमना।ज्योति बनी वह वाणी, दीप बना विचार,टूटे पाखंडों के जाल, जागा हर परिवार। जन्मा वह खेतों में, पर मन था आकाश,शूद्र कहे गए जिन्हें, उनमें भर दी प्रकाश।पढ़ा स्वयं, फिर कहा – “सबको पढ़ना है”,न्याय […] Read more » ज्योतिबा फुले ज्योतिबा फुले: क्रांति की मशाल
लेख जाति की जंजीरें: आज़ादी के बाद भी मानसिक गुलामी April 10, 2025 / April 10, 2025 | Leave a Comment आस्था पेशाब तक पिला देती है, जाति पानी तक नहीं पीने देती। कैसे लोग अंधभक्ति में बाबा की पेशाब को “प्रसाद” मानकर पी सकते हैं, लेकिन जाति के नाम पर दलित व्यक्ति के छूने मात्र से पानी अपवित्र मान लिया जाता है। इन समस्याओं की जड़ें धर्म, राजनीति, शिक्षा और मीडिया की भूमिका में छिपी […] Read more » आज़ादी के बाद भी मानसिक गुलामी
लेख मोबाइल की कैद April 9, 2025 / April 9, 2025 | Leave a Comment मोबाइल ने छीन ली, हँसी-खुशी की बात।घर के भीतर भी नहीं, दिल से कोई साथ।। पिता लगे संदेश में, माँ का व्यस्त है फोन।बच्चा बोला ध्यान दो, मैं भी हूँ अब कौन? भाई-बहना पास हैं, फिर भी दूरी आज।मोबाइल की कैद में, रिश्तों का है राज।। बचपन भूला आँगना, खेल न छूता पाँव,बच्चे उलझे गेम […] Read more » मोबाइल की कैद
लेख जंगलों पर छाया इंसानों का आतंक: एक अनदेखा संकट April 7, 2025 / April 7, 2025 | Leave a Comment सवाल यह नहीं है कि जानवर शहरों में क्यों आ गए, बल्कि यह है कि वे जंगलों से क्यों चले आए? हम जिस “आतंक” की बात कर रहे हैं, वह वास्तव में प्रकृति का प्रतिवाद है—उस दोहरी मार का नतीजा जो हमने जंगलों और वन्यजीवों पर एक लंबे अरसे से चलाया है। विकास के नाम […] Read more » जंगलों पर छाया इंसानों का आतंक
कविता रिश्तों की चिता.. April 7, 2025 / April 7, 2025 | Leave a Comment कभी एक आँगन था…जहाँ माँ की साड़ी की ओट मेंदुनिया छुप जाया करती थी।अब उसी आँगन में,“सीमा रेखा” खींची गई है…जमीनी नक्शे से रिश्तों का नापा जा रहा है! कभी जो थाली में एक साथ खाते थे—अब “हिस्से” गिने जाते हैं…और थाली से ज़्यादा “बयान”महत्त्वपूर्ण हो गए हैं।भाई नहीं बोलते अब— वो वकील से बात […] Read more » रिश्तों की चिता..