हम कभी तो निकलेंगे
धर्म के जंजाल से
जातियों के मोहजाल से
कर्मकांडो के मायाजाल से
कि प्रगति सचमुच हमारी राह देखती है—
पहुंचेंगे उस तक कभी हम
जाने किस सूर्योदय के सुनहले पंख लिए
होकर विजित जाने किन अस्मिताओं की कैसी लड़ाइयों में
जो उभरती ही रहती हैं निरंतर
शान्ति के पटल पर
अकारण
और प्रतीक्षा में है
एक समूची विकास गाथा
प्रतीक्षा में जैसे रुकी हुई
कई सदियाँ
और जबकि न्यायोचित है उनका कहना
कि अस्मिता का नहीं
फिर किस प्रगति का झंडा बुलंद करें हम
किस युद्ध ध्वनि को दें अपनी आवाज़
कि अगर जीत भी लिए
हमने सब सप्तर्षि तारे सौर मंडल के
कि आकाश हमारा है
रौशनी हमारी अपनी
जीत लिए हमने सब उल्का पथ
राजगद्दियों तक जाने वाले
और तैनात किये
अपने लोग सब राजपथों पर
उनके बताये सब नुस्खों के मुताबिक़
आमूल बदल ली छवि अपनी
आकर विकास के नए आवरण के नीचे
जिसमे नई हिंसा थी, नया प्रतिशोध
नया प्रतिरोध
किसी दबे कुचले जन मानस का उदगार नहीं था जिसमें
एक खाम खाह की उठा पटक थी
जिसे बताया जा रहा था आवश्यक
एक स्वस्थ विकसित चेतना के लिए
और चुप के किसी ताले में
बंद किया जा रहा था सवाल
उस पहचान का
जिसके बिना होते अगर हम विजयी भी?
तो क्या होते?
कौन होते?
और होते भी कैसे विजयी
रहते प्रतीक्षा में सब प्रस्फुटन के
खेतों, जंगलों और उन सब बेनाम जगहों पर
जहाँ प्रकृति रचती है
अपनी सृष्टि का आखेट
और जहाँ चप्पे चप्पे की मिटटी पर
उनकी माफिआ है
बंदूकधारी
उनकी फाइलों और टेंडरों में कैद
लोगों के ढेर सारे विश्वास
आत्म विश्वास
पारम्परिक अधिकार
और प्रतीक्षा में
सबके हिस्से की प्रगति
बराबर बंटा न्याय
प्रतीक्षा में बहुत ढेर सारी मेधा, कला
गुण, निपुणता, सपने सहज, सजग
पीढ़ियों के ………….