समाज

अयोध्या: इतिहास माफ नहीं करेगा इन लोगों को

-पंकज झा

भारत के बारे में हमेशा यह कहा जाता है कि यहां की जनता काफी परिपक्व एवं झगडों से दूर रहने वाली है. यह तो नेता लोग हैं जो अपने फायदे के लिए अवाम को लड़ा अपना उल्लू सीधा करते रहते हैं. हालाकि हर मामले में यह दृष्टिकोण सही नहीं है. नताओं द्वारा शुरू किये गए कई आंदोलन भविष्य में मील के पत्थर भी साबित हुए हैं. जनता को जगा कर रखना, उनको मुद्दों के बारे में जागरूक करते रहना भी अगुओं का दायित्व है. लेकिन बहुधा ऐसा लगता है कि हमारे नेताओं के लिए उनका व्यक्तिगत हित ही सबसे अहम होता है.

अभी राम-जन्मभूमि विवाद का उदाहरण देखें. जब नब्बे के शुरुआती दशक में लाल कृष्ण आडवानी ने सोमनाथ से अयोध्या तक की यात्रा कर इस आंदोलन को हवा दी थी तो मोटे तौर पर उसके सकारात्मक परिणाम भी हुए थे. निश्चय ही उस आंदोलन का यह साफल्य था कि दशकों बाद देश, सांस्कृतिक एक्य महसूस करने लगा था. लोगों में अपनी सनातन परंपरा के प्रति आदर का भाव पैदा हुआ था.

लेकिन अफ़सोस….आज फ़िर से इस आंदोलन को हवा दे कर, इसकी आग से अपनी रोटी सेंकने वाले नुमाइंदों के बारे में वैसा नहीं कहा जा सकता है. अयोध्या मामले पर ईलाहाबाद हाईकोर्ट का हालिया फैसला इस मायने में भी ऐतिहासिक कहा जा सकता है कि इसने देश में शांति और सद्भाव की बहार ला दी थी. विशेषज्ञों द्वारा यह फैसला कानूनी कम लेकिन पंचायती अधिक घोषित किये जाने के बावजूद इसे लोगों ने सर आँखों पर लिया था. ईमानदार प्रेक्षकों का मत था कि भले ही न्याय की देवी ने गांधारी की तरह इस बार अपने आँख की पट्टी खोल कर फैसला दी हो, लेकिन इस फैसले के सरोकार व्यापक थे. अंततः प्रणाली कोई भी हो अंतिम लक्ष्य किसी भी पालिका का जिस सद्भाव की रक्षा करना होता है उसमें वह सफल रहा था.

लेकिन अफ़सोस यह कि दोनों में से किसी भी पक्ष के ठेकेदारों को यह रास नहीं आ रहा है. शायद ये लोग अपनी दूकान बंद हो जाने की आशंका से मामले को लटकाना, उलझा कर रखना चाह रहे हैं. पता नहीं इन दुकानदारों को यह सामान्य चीज़ समझ क्यू नहीं आती कि जनता अब इनके बहकावे में नहीं आने वाली है. काठ की हांडी कभी भी एक से अधिक बार चढ़ने के लिए नहीं होती. हालिया खबर यह है कि अब इस मामले में सुलह की संभावना खत्म हो गयी है. जहां आल इंडिया मुस्लिम पर्सनल ला बोर्ड ने पन्द्रह दिनों के भीतर सुप्रीम कोर्ट जाने का फैसला किया है वही हिंदू महासभा ने ने भी यह फतवा दे दिया है कि फैसला अब सुप्रीम कोर्ट में ही होगा.

तो माचिस ले कर खड़े विनय कटियार आखिर कैसे पीछे रहने वाले थे. उन्होंने भी मौके को गवाना उचित नहीं समझा और तुरत उकसाने वाला बयान दे कर, ये कह कर कि पहले मुस्लिम पक्ष ज़मीन पर से अपना दावा छोड़े अपनी डूबती राजनीतिक नैया को पार लगाने की आखिरी कोशिश जैसे कर ली. गोया मुस्लिम समाज उनका जर-खरीद गुलाम हो कि इधर इन्होने आदेश दिया और उधर मुस्लिम शरणागत.

आखिर जब असली पक्षकारगण अपने-अपने हिसाब से सुलह में लगे ही हैं, आम जन का मत भी सद्भाव के पक्ष में दिख ही रहा है तो इन्हे इस फटे में टांग अड़ाने की क्या ज़रूरत थी. बल्कि यूं कहें कि टांग अडाने के लिए मामले को फाड़ने की क्या ज़रूरत थी? नेताओं को जनता के नब्ज़ का इतना पता होना चाहिए कि वह जान पाएं कि कम से कम अब आग लगाने वाले किसी भी तत्व को अपनी दुर्गति के ही लिए तैयार रहना होगा. ऐसे ही एक मुल्ला साहब हैं. एक पत्रकार द्वारा पूछे गए माकूल सवाल पर ही इतना तैस खा गए कि उन्होंने रिपोर्टर के गला दबा, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को अपने बाप की जायदाद समझ उसका गला घोटने पर उतारू हो गए.

लेकिन इन सभी उचक्कों की फौज के बावजूद कुछ लोग ऐसे हैं जो जनमत को पहचानते हैं, उसका आदर भी करना चाहते हैं और अधिकतम संभाव्य इमानदारी का परिचय दे कर मसले का हल बातचीत द्वारा कर, इतिहास द्वारा प्रदत्त इस अवसर का लाभ उठाना चाहते हैं. ऐसे लोगों में आप महंत ज्ञान दास और मुस्लिम पक्षकार हाशिम भाई का नाम ले सकते हैं. थोडा बहुत इस लेखक को भी जितना ज्ञान दास के बारे में जानने का अवसर मिला था, उस बिना पर यह लेखक यह कहने की स्थिति में हैं कि उन दोनों का प्रयास वास्तव में मसले के हल की दिशा में सार्थक कदम हो सकता है अगर राजनेताओं को, और मज़हब के ठेकेदारों को इसमें नाक घुसेड़ने की इजाज़त अड़ाने की इजाज़त न दी जाय तो.

अभी तक जैसे संकेत मिल रहे थे उसमें यह उम्मीद कर लेना कोई बड़ी बात नहीं थी कि शायद मुस्लिम समाज प्यार से अपना तीसरा हिस्सा वहां पर छोड़ देंगे और अयोध्या में ही कहीं या सरयू से उत्तर किसी अच्छी जगह पर अपने हिंदू भाइयों के सहयोग से एक भव्य मस्जिद के निर्माण की दिशा में आगे बढ़ेंगे. अगर ऐसा होना संभव होता तो ऐसा कहा जा सकता है कि 1857 के बाद से ही अंग्रेजों द्वारा जिस तरह संप्रदायों के मध्य विभेद पैदा कर देश को गुलाम रखने की चाल चली गयी थी, जिस तरह उसके पश्चातवर्ती शासकों द्वारा भी उन्ही का अनुकरण कर विभेद को और बढ़ाया गया वह एक झटके में खतम क़र देश वास्तव में एक नए युग में प्रवेश कर सकता था. केवल हाई कोर्ट के फैसले के बाद ही देश ने जिस तरह से भाईचारे का रस चखा है वह यह भरोसा करने का पर्याप्त कारण है कि अब लड़ाई कोई नही चाहता सिवा कुछ टुच्चे नेताओं, मुट्ठी भर कठमुल्लाओं और वामपंथियों के.

बस इन दुकानदारों से आग्रह कि जितनी जल्दी वे यह समझ लें उतना बेहतर होगा कि देश की वर्तमान पीढ़ी, अपने पहले की पीढ़ी से पीढ़ियों आगे है. देश ने पिछले बीस सालों में सदियों का सफर तय कर लिया है. अब के नए लोग, नए ज़रूर हैं लेकिन सावधान हैं. इनको बहकाना अब आसां नहीं है. सभी तत्वों से विनम्र निवेदन की इमानदारी को अपनी सबसे अच्छी नीति बनाए-मानें. मसले में ज्यादा टांग भी न अड़ाए और हर उस समूह या व्यक्ति का उत्साहवर्द्धन करें जो अयोध्या को अब अयोध्या ही बने रहने देने में प्रयासरत है. वास्तव में अयोध्या को लंका बना दिया जाना तो रामलला को भी नागवार ही गुजरेगा.