अयोध्या का हल सिर्फ बातचीत से ही होगा

डाॅ. वेदप्रताप वैदिक

अयोध्या-विवाद बातचीत से सुलझाया जाए, यह बात सर्वोच्च न्यायालय ने क्यों कही है? यदि हम मंदिर-मस्जिद के झगड़े को निपटाना चाहते हैं तो सबसे पहले हमें इसी पहेली को हल करना चाहिए। सबसे बड़ी अदालत ने कोई फैसला नहीं दिया लेकिन 2010 में इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने फैसला दे दिया था। 61 साल से चल रहे मुकदमे का जो फैसला अदालत ने दिया, क्या उसे तीनों पार्टियां ने मान लिया? नहीं माना। इसके बावजूद नहीं माना कि सुन्नी वक्फ बोर्ड, निर्मोही अखाड़ा और रामलला- तीनों को अदालत ने विवादास्पद जमीन बांट दी थी। तीनों संतुष्ट हो सकते थे लेकिन उनमें से एक भी संतुष्ट नहीं हुआ। न हिंदू संतुष्ट हुए और न ही मुसलमान! न विश्व हिंदू परिषद और न ही बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी। अब बताइए कि सर्वोच्च न्यायालय क्या करता? यदि वह उच्च न्यायालय के फैसले को सही ठहराता तो उसे लागू कौन करता? उसे तीनों दावेदार रद्द कर देते। सर्वोच्च न्यायालय की इज्जत भी जाती रहती और देश में सांप्रदायिक तनाव भी बढ़ जाता। अमेरिका की सुप्रीम कोर्ट तो भारत की सुप्रीम कोर्ट से कहीं ज्यादा ताकतवर है लेकिन 1930 के दशक में राष्ट्रपति रुजवेल्ट ने कह दिया था कि यह ठीक है कि अदालत सर्वोच्च है लेकिन उसे कह दीजिए कि जो फैसले वह कर रही है, उन्हें लागू भी वही कर ले। क्या हम भारत में भी हमारी सरकार से यही वाक्य सुनना चाहते हैं?

यदि सर्वोच्च न्यायालय वाकई कानूनी आधार पर कोई फैसला करना चाहे तो क्या वह कर सकता है? मुझे तो असंभव लगता है। इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने भी अपने फैसले में साफ-साफ कहा है कि जहां तक राम के जन्म-स्थान का प्रश्न है, यह तो मात्र ‘आस्था की उड़ान’ है। जहां बाबरी मस्जिद बनी थी, उसके नीचे मंदिर होने के प्रमाण तो आप जुटा सकते हैं। आप यह भी सिद्ध कर सकते हैं कि बाबरी मस्जिद ही नहीं, ऐसी सैकड़ों मस्जिदें भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश, अफगानिस्तान और मध्य एशिया के राष्ट्रों में हैं, जिन्हें हिंदू, बौद्ध और जैन मंदिर तोड़कर बनाया गया है। ये मस्जिदें और ये मंदिर कोई हजारों साल पुराने नहीं हैं। ये ज्यादा से ज्यादा 1100-1200 साल पुराना मामला है। इसीलिए दुनिया की कोई भी अदालत यह कैसे सिद्ध करेगी कि राम का या कृष्ण का या बुद्ध का या महावीर का जन्म ठीक-ठीक किस स्थल पर हुआ था। यह बाबरी मस्जिद की जगह ही राम का जन्म स्थल है, ऐसी हिंदुओं की आस्था बन गई है। आप कह सकते हैं कि आस्था, आस्था है, तथ्य नहीं है। अदालत तथ्यों के आधार पर फैसला करती है लेकिन अदालत को पता है कि आस्था तो तथ्य से भी ज्यादा ताकतवर होती है। तथ्य को प्रमाण की जरुरत होती है और आस्था को विश्वास की! इसीलिए सर्वोच्च न्यायालय ने बातचीत का मार्ग सुझाया है।

इसके अलावा रामजन्म भूमि के बारे में हजारों दस्तावेज ऐसे हैं, जिनका अभी तक अनुवाद नहीं हुआ है। अरबी, फारसी, संस्कृत और हिंदी के अलावा कुछ यूरोपीय भाषाओं में भी तत्कालीन दस्तावेज उपलब्ध हैं। पिछले 60 साल में यह काम नहीं हुआ तो अब अदालत का फैसला क्या अगले 60 या 100 साल तक रुका रहे? यदि आप कानूनी फैसला ही सुनना चाहते हैं तो रुके रहिए। लेकिन बातचीत के फैसले के लिए किसी दस्तावेज की जरुरत नहीं है। उसके लिए जरुरत हैं, प्रेम की, सद्भावना की, दरियादिली की और भारत को मजबूत बनाने की इच्छा की। जो सवाल 70 साल से अधर में लटका हुआ है, उसे आप चाहें तो बातचीत के जरिए 70 घंटे में ही हल कर सकते हैं।

अधिकतर प्रभावशाली मुस्लिम नेताओं और संगठनों ने बातचीत के रास्ते को बिल्कुल रद्द कर दिया है। कुछ ने स्वागत भी किया है। जिन्होंने रद्द किया है, उनका तर्क है कि बातचीत कई बार नाकाम हुई है। अब इस खोटे सिक्के को आप फिर क्यों चलाना चाहते हैं। उनसे मैं कहना चाहता हूं कि आप बातचीत से बच नहीं सकते। अदालत के फैसले के बाद भी आपको बातचीत करनी पड़ेगी। क्या आपको पता नहीं कि जो चीन और अमेरिका एक-दूसरे को परमाणु बमों से उड़ा देने की तैयारी कर रहे थे, वे दो दुश्मन राष्ट्र भी 16 साल तक पोलैंड की राजधानी में बैठकर गुप्त वार्ता चलाते रहे थे? महाभारत में कौरव और पांडव भी युद्ध के साथ-साथ बातचीत चलाते रहे। हजरत मुहम्मद ने अपने विरोधियों के साथ भी हमेशा पहले बातचीत चलाना ही पसंद किया। बातचीत के रास्ते को रद्द करनेवाले मुस्लिम नेता यह मानकर चल रहे हों कि अदालत का कानूनी फैसला बाबरी मस्जिद के पक्ष में ही आएगा तो मैं कहूंगा कि किसी भी पक्ष का इस तरह सोचना स्वप्न-लोक में विचरण करना ही है। मान लें कि फैसला ऐसा ही हो तो जरा उसके नतीजों पर आपने कभी सोचा कि वे क्या होंगे? बातचीत से तो ऐसा फैसला निकल सकता है, जो इस्लाम की इज्जत-आफजाई भी करेगा और मुसलमानों का आत्म-विश्वास भी बढ़ाएगा।

बातचीत का रास्ता तीन प्रधानमंत्रियों के दौरान जमकर अपनाया गया था। चंद्रशेखरजी, नरसिंहरावजी और अटलजी के जमाने में इन तीनों प्रधानमंत्रियों के दौर में मैं दोनों पक्षों के साथ संवाद चलाने में सक्रिय था। दोनों पक्षों के दावेदार सभाओं में जैसे भी तेवर रखते थे और जैसे भी बयान देते थे, वे आपसी बातचीत में सदा अपनी गरिमा और मर्यादा बनाए रखते थे। वे ऐसे सुझाव भी गुपचुप देते थे, जिनसे मामला हल हो जाता लेकिन उनके सिर दोष नहीं मढ़ा जाता। 1992 में कार सेवा तीन माह पहले होनी थी। उसकी घोषणा भी हो चुकी थी लेकिन मेरे आग्रह पर वह 6 दिसंबर 1992 को हुई। उस दिन रविवार था। मुझे मंदिरवादी सभी नेताओं ने आश्वस्त किया था कि कार-सेवा शांतिपूर्ण ढंग से होगी लेकिन भड़की हुई भीड़ ने बाबरी मस्जिद भी गिरा दी और उसके साथ-साथ विवाद के हल के लिए चल रही बातचीत भी ढहा दी। मुझे इसका अंदेशा पहले से था। मैंने दोनों पक्षों को सतर्क भी कर दिया था लेकिन सबको भरोसा था कि कार-सेवा के बाद मामला बातचीत से हल हो जाएगा।

मेरा अभी भी पक्का विश्वास है कि अयोध्या का यह विवाद बातचीत से हल हो सकता है। लेकिन सबसे बड़ा प्रश्न यह है कि बातचीत कौन करेगा? क्या वे लोग करेंगे जो पिछले कई दशकों से एक-दूसरे पर खुले-आम प्रहार करते आ रहे हैं? या सिर्फ वे ही लोग करेंगे जो इस मुकदमे में पार्टी बने हुए हैं? या सर्वोच्च न्यायाल तय करेगा कि इस पंचायत में पंच कौन-कौन होंगे? इसके अलावा बातचीत अपने मुकाम तक पहुंचे, इसके लिए जरुरी यह भी है कि पहले से ही बातचीत के कुछ आधार, कुछ सिद्धांत, कुछ मर्यादाएं तय हों। सबसे महत्वपूर्ण बात तो यह है कि गड़े मुर्दे न उखाड़े जाएं। भविष्य की सोची जाए। अयोध्या-विवाद का समाधान कुछ ऐसा हो कि जो भारत के अन्य इसी तरह के दर्जनों विवादों का भी हमेशा के लिए शांत कर दे। दोनों संप्रदायों में प्रेम और सदभाव बढ़ाए। करोड़ों हिंदू और मुसलमानों को ऐसा लगे कि हमारी भावनाओं का सम्मान हुआ है। किसी के साथ कोई ज्यादती नहीं हुई है। ऐसे समाधान की जरुरत सिर्फ भारत को ही नहीं है, पाकिस्तान को है, अफगानिस्तान को है, ईरान को है, एराक को है, तुर्की को है और स्पेन जेसे यूरोपीय देशों को भी हैं, जहां मस्जिदों और गिरजों को लेकर भयंकर नर-संहार हुआ है। हम भारत को जगत्गुरु कहते हैं। वह अपने अयोध्या-विवाद का ऐसा हल क्यों नहीं निकालता, जो सारे जगत के लिए आदर्श बन जाए?

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