बाबा हँस रहे थे…

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ambedkar अमित राजपूत

बाबा साहेब डॉ. भीमराव अंबेडकर के पैदाईश की 125वीं सालगिरह पर मैं दिल्ली में ही था। अन्य लोगों की तरह मेरे लिए भी आज यह एक भरपूर छुट्टी का ही दिन है। लेकिन आज भी मुझे आकाशवाणी की शक्ल देखनी ही पड़ी। ख़ुदा का ख़ैर है कि आज रिपोर्ट बनाने से बचा वरना इस रूपक की जगह मैं रेडियो रिपोर्ट लिख रहा होता। इसमें तो मैं बाबा  की ही कृपा मानता हूं। दरअसल डॉ. भीमराव अंबेडकर को मुझे दो नामों से ही बुलाना अच्छा लगता है। पहला, या तो मैं उन्हे दुलार में सिर्फ बाबा कहकर काम चला लेता हूं। दूसरा, या तो उनकी शान में मैं उन्हें साहेब कहता हूं।

ख़ैर, बाबा की जयंती पर यहां मेरे दफ्तर के सामने एक विशाल मेले सा माहौल है, पटेल चौक से संसद तक भीड़ की एक लंबी कतार और भोजन-पंडालों की झड़ी। यहां उत्साह है, खाना-पीना है, बड़े-बड़े ढोल और नंगाड़े हैं। मस्ती में नाज-गा रहे लोग मदमस्त हैं। खिलौनों और गुब्बारों की जगह पुस्तकों की बिक्री है और उन्हें खरीदने वालों की आंखो में उनके प्रति लालसा। दिल्ली से सटे हुए गांवों से गाड़ियां भरकर लोग यहां आए हैं। कुछ को पिछली रात को ही आकर यहां भोर से ही संसद भ्रमण के लिए लाईन में जमें हुए हैं। मालूम हो कि आज के दिन संसद के कपाट आम जनता के लिए खोल दिए जाते हैं और बाबा  की आज़ाद पीढ़ी उनकी थाती के अवलोकन से स्वयं में सुखद महसूस करती है।

कहीं-कहीं बाबा के प्यार की राब में लोग ज्यादा ही गुड़ मिला दे रहे थे। एक नारा सुनाई दिया ‘बाबा  ने पुकारा है-पूरा देश हमारा है।’ वास्तव में मैं इस नारे का ठीक-ठीक अर्थ नहीं निकाल पाया, साथ ही मुझे ये भी नहीं पता कि वो ये नारा क्यूं लगा रहे थे। हद तो तब हो गई जब एक मंच से भक्ति भरी धुन में अंबेडकर के गीत भी बड़ी तीव्र ध्वनि में बज रहे थे जो मेरे शरीर के चक्रों के द्वार खोलने का प्रयास कर रहे थे। वास्तव में ये संगीत की शक्ति थी। लेकिन मैने मंच पर रखी बाबा की तेजस्वी प्रतिमा को देखकर उनसे बतियाने लगा कि बाबा तुम्हारे बड़े रंग हैं। अब क्या, अब तो आप मन्दिरों में विराजे जाओगे।

मेरी बातें सुनकर बाबा हँस रहे थे.. बोले, ‘मुझे जितनी चिन्ता इस बात की है कि समाज में समता और भाईचारा रहे उससे भयानक ये समरसता से युक्त उन्माद मुझे साँई के जिन्दा रहते तो उसे किसी ने लोटा भर पानी न पूछा। ठीक वैसे ही मेरा पूरा जीवन संघर्षों में बीता और लोग उससे प्रेरणा लेकर जीने के बजाए मात्र मेरी ही जय-जयकार में लगे हैं। कुछ तो इस जय-जयकार से अपना उल्लू सीधा भी कर रहे हैं।’

मैने बाबा से कहा डरो मत लोग आपको साँई नहीं बनने देंगे। बाबा हँस रहे थे.. बोले, ‘यार शादी-कार्डों में गणेश जी को रिप्लेस कर दिया है। कैलेण्डर बनाकर घरों में टांगकर रोज़ाना अगरबत्तियाँ सुंघाते हैं और तुम…!’

मैं हाथ जोड़कर बाबा की मूर्ति के सामने खड़ा हो गया और पूछा- ‘बाबा आप आज भी इतने व्यथित हो?’

मेरी बातों को नज़रअंदाज कर अपनी तस्वीर की ओर मेरी झुकी हुई मुद्रा को देख बाबा हँस रहे थे…

मैं एक अन्य पंडाल पर पहुँचा जहां एक युवा साती लोगों के हाथ में बंधे हुए रक्षा-सूत्र और काले धागे को कैंची से काट कर अपने पास जमा कर रहा था। सिर्फ इतना ही नहीं कलाई में पड़े मंहगे धातु के कड़े और छल्ले  भी वह उतरवा रहा था। वहीं एक सज्जन ने उत्सुकतावश उस युवा से पूछा- ‘भाई ये लोगों से कड़े-छल्ले और रक्षा-सूत्र क्यूं उतरवा रहे हो?’

‘ये ब्राह्मणवाद की निशानी है। हम बाबा साहेब के अरमानों को ज़िदा रखना चाहते हैं।’ युवा जोश में बोल गया।

‘अंबेडकर की लड़ाई ब्राह्मणवाद की लड़ाई नहीं थी।’ पलटकर सज्जन बोले और दोबारा पूछे- ‘क्या आप इन धातुओं के महत्व से परिचित हैं या फिर आप पत्थरों और रत्नों के बारे में कुछ बता सकते हैं कि उनके गुण या अवगुण क्या हैं?’

‘नहीं..। वैसे भी मैं पत्थरों को नहीं मानता।’ युवा ने कहा।

सज्जन ने समझाया ‘पत्थरों को नहीं मानता का क्या मतलब है। अलग-अलग मिट्टियों, पत्थरों और धातुओं इन सबका अपना अलग-अलग महत्व है।’

‘मैं नहीं मानता।’ युवा तनकर अड़ा ही रहा।

‘तो फिर आप लकड़ी, मिट्टी, ईंट और कंकरीट से बने घरों में भी कोई असमानताएं नहीं देखते होंगे। आपको पता है कि सबमे रेडिएशन का भारी अन्तर है?’

‘देखिए आपको कलावा नही कटवाना है तो मत कटवाओ लेकिन ये जान लो बाबा भीम इन सबके खिलाफ थे। वो ये सब नहीं मानते थे। साधु-सन्त, पूजा-पाठ, रक्षा-सूत्र, माले और रत्न आदि कुछ भी नहीं।’ युवा झल्ला रहा था।

इत्तेफाकन मैं भी वहां खड़ा ये सब सुन रहा था। मैने उस पंडाल में लगी बाबा साहेब की तस्वीर को निहारा। देखा तो बाबा हँस रहे थे.. बोले, ‘यार मैं तो बड़ा परेशान हूं आजकल।’

मैने कहा ‘वो सब तो ठीक है पर साहेब माजरा क्या है?’

वो बोले ‘ये मुझे वैसे ही आस्था विरोधी बना रहे हैं जैसे इन लोगों ने भगत सिंह को नास्तिक बनाया है। पर ये बुड़बक समझ काहे नहीं रहा है कि यदि मैं आस्थावान न होता तो राष्ट्र के लिए संविधान क्यूं लिखता और बौद्ध-दर्शन को कैसे अंगीकृत कर लेता। इनसे कहो कि मेरे चरित्र से तो साफ-साफ न्याय करें। .. कपार खा रहा है उत्ती देर से।’

मैं हँसा- ‘बाबा ये बिहारी टोन?’

मेरे चेहरे के भाव देख बाबा हँस रहे थे.. बोले, ‘ये तो अपनी-अपनी आस्था है। जबान है लपक गई।’

मैं बाबा को फिर से हैपी बर्थ-डे बोलकर वापस चला गया। लेकिन सुबह से शाम तक उस संसद मार्ग के हर पंडाल पर कभी उन पर तो कभी खुद पर बाबा हँस रहे थे…

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