प्रचार के भूखे हैं बाबा रामदेव

विनोद उपाध्याय

आज-कल बाबा रामदेव की तुलना राष्ट्रपिता महात्मा गांधी से की जा रही है। लेकिन दोनों के व्यक्तित्व और कृतित्व में जमीन-आसमान का अंतर है। महात्मा गांधी राजनेता थे और संत बनने की कोशिश में लगे रहे जबकि बाबा रामदेव संत है, लेकिन राजनेता बनने का प्रयास कर रहे हैं। संत हमेशा लोक प्रचार से अपने को अलग रखता है,जबकि राजनेता पग-पग पर अपना प्रचार चाहता है और बाबा रामदेव तो प्रचार के भूखे नजर आ रहे हैं।

हिंदू धर्म हो या फिर ईसाई, बौद्ध, जैन और सूफी सभी की परंपराओं में साधु-संत,फकीर का एकांत से गहरा संबंध बताया गया है। बाबा रामदेव हो या फिर उनके जैसे अन्य आधुनिक संत,सन्यासी,बाबा,फकीर सभी के सभी अध्यात्मिक परंपराओं के विपरीत प्रचार का माध्यम ढूंढ रहे हैं। ऐसे में प्रचार की चकाचौंध के लिए अपना आश्रम छोड़कर जाना रामदेव के लिए नितांत स्वाभाविक है, क्योंकि वे आध्यात्मिकता के इतिहास के बजाय प्रचार के इतिहास में एक महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं। वास्तव में यही बात टीवी या अखबार में नजर आने वाले अन्य बाबाओं और गुरुओं के बारे में भी कही जा सकती है।

अगर हम पिछले कुछ हफ्तों की खबरों पर नजर डाले तो हम देखते हैं कि बाबा रामदेव सबसे अधिक समाचार पत्रों और चैनलों में बने हुए हैं। बाबा को नजदीक से जानने वालों की माने तो बाबा रामदेव अपनी सवारी बदलते रहे हैं और सफल भी रहे हैं। एक दशक पहले साइकिल पर सवार होकर भजन-कीर्तन गाने वाले बाबा ने योग की सवारी की। वे देश-दुनिया के योग गुरु हो गए। अब वे एक बार फिर नई सवारी की ओर व्यग्रतापूर्ण ढंग से मुखातिब हैं। इस बार वे राजनीति की सवारी कर सत्ता तक पहुंचना चाहते हैं। लेकिन बाबा की अब तक की यात्रा में कुछ ऐसे पड़ाव भी हैं जो उनकी ख्यातिप्राप्त छवि को कठघ्रे में खड़ा करते हैं।

निदा फाजली के अंदाज में कहें तो-हर आदमी के भीतर होते हैं दो-चार आदमी। एक वो चेहरा जो दिखाई देता है यानी योग गुरु का-संन्यासी के लिबास में। लेकिन यह अधूरा सच है। पूरा सच यह है कि बाबा के भीतर वो तत्व भी छिपा है जिसका वे निरंतर विरोध करते हैं। मसलन भ्रष्टाचार के खिलाफ राष्ट्रीय स्तर पर अलख जगाने और अब आमरण अनशन करने वाले बाबा और उनके सहयोगियों ने ऐसे कई कारनामों को अंजाम दिया है जो भ्रष्टाचार की परिधि में ही आते हैं। मजदूरों का शोषण, दवाओं में मिलावट, अपनी सुरक्षा के लिए गलत बयानी और रेवेन्यू चोरी तो पुरानी बात हो गई है। नई बात यह है कि भ्रष्टाचार के खिलाफ जंग-ए-ऐलान करते हुए अनशन बैठे नहीं अब तो सोए बाबा ने हरिद्वार के निकट एक ग्राम सभा की जमीन पर कब्जा जमाया है। स्कॉटलैंड में टापू खरीदने वाले एक संन्यासी को ग्रामसभा की जमीन कब्जाने की जरूरत क्यों पड़ गई यह एक बड़ा सवाल है। लेकिन यह बात उनके भ्रष्टाचार के खिलाफ छेड़ी जा रही जंग में दब कर रह गईं। इस पर कहीं कोई चर्चा नहीं है।

रामदेव अब सिर्फ योग गुरु नहीं रह गये हैं। आयुर्वेदिक औषधि से लेकर सत्तू तक बाबा द्वारा स्थापित फैक्ट्रियों में बनाया जाता है। जो बाजार में अच्छे दामों में बेचा जाता है। हाल ही में बाबा ने एक अंग्रेजी अखबार को दिये गये साक्षात्कार में बताया कि वर्ष 1995 से स्थापित उनके ट्रस्ट के पास वर्तमान में लगभग एक हजार एक सौ करोड़ की संपत्ति है। करोड़ों की संपत्ति के मालिक होने के बाद भी जब बाबा और उनका ट्रस्ट सरकार को चूना लगाने से पीछे नहीं हटता तो ये समझना आम इंसान की सोच से परे है कि वही बाबा बार-बार किस भ्रष्टाचार को खत्म करने के लिए विश्व का सबसे बड़ा सत्याग्रह आंदोलन करने का दावा कर रहे हैं।

उनकी नई जंग की तह में जाएं तो जो संकेत उभरते हैं उसका सार तत्व यही है कि संन्यासी के परिधान को धारण किये काया के भीतर सियासी महत्वाकांक्षाएं उछाल मारती हैं। सियासत माने सत्ता मोह। वह सत्ता पाने का ही मोह है जो उनको राजनीति की राह पर चलने के लिए बाध्य करता है। वे राष्ट्रीय स्वाभिमान पार्टी बनाते हैं। 2014 में लोकसभा चुनाव लडऩे का ऐलान भी करते हैं। यहां तक कि जंतर-मंतर से भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई शुरू कर नायक बनने वाले अन्ना हजारे उनको रास नहीं आते उनको लगता है कि अन्ना ने उनके मुद्दों को हाईजेक कर लिया। और अन्ना को मिली लोकप्रियता से खार खाकर बाबा ने भी रामलीला मैदान में हाईटेक सत्याग्रह का ऐसा स्वांग रचाया की उनमें आस्था रखने वालों को लाठियां खानी पड़ी।

क्या यह महज संयोग है कि जिन चीजों को मुद्दा बनाकर बाबा रामदेव विरोध करते हैं, व्यक्तिगत जीवन में वे उसके पोषक हैं। मसलन बाबा शोषण के खिलाफ हैं। मानवीयता की बात करते हैं। मगर अपने दिव्य फार्मेसी से मजदूरों को इसलिए निकाल देते हैं क्योंकि वो वाजिब हक की मांग कर रहे थे। वे कोका कोला में मिलावट की बात करते हैं। लेकिन उनकी दवाइयों में भी आपत्तिजनक मिलावट है। जानवरों की हड्डियों से लेकर मानव खोपड़ी तक मिलायी जाती। कांग्रेस में परिवारवाद का विरोध करते हैं मगर उन्होंने अपने आश्रम में भाई-भतीजावाद का ऐसा माहौल रचा कि उनके सहयोगी आचार्य कर्मवीर आजिज आकर पलायन कर गए। गुरु-शिष्य परंपरा पर ढेरों प्रवचन दिए। लेकिन खुद अपने गुरु-स्वामी शंकरदेव का दुख नहीं दूर कर पाए। उनको इलाज तक के लिए पैसे नहीं दिए।

हम इसके लिए बाबा रामदेव के सिर पर दोष मढ़ कर इतिश्री करना नहीं चाहते क्योंकि जिन स्थानों पर आध्यात्मिकता और राजनीति का मेल होता है, वे नैतिक और वित्तीय भ्रष्टाचार के दिशासूचक होते हैं। इस परिपाटी में गांधी और दलाई लामा अपवाद हैं। अपने देश से निर्वासित होने के बाद तिब्बती धर्मगुरु को अपने लोगों के सम्मान की रक्षा करने के लिए एक राजनीतिक भूमिका अख्तियार करने के लिए विवश होना पड़ा था। वे पिछले पांच दशकों से यह कर रहे हैं, लेकिन इस दौरान उन्होंने चीनी कम्युनिस्टों के प्रति आक्रोश की प्रत्यक्ष अभिव्यक्ति नहीं की और न ही उन्होंने कभी किसी महत्वाकांक्षा का प्रदर्शन किया। उन्हें जो सम्मान मिले हैं, उनके लिए उन्होंने स्वयं कोई प्रयास नहीं किए थे। महात्मा गांधी अपने सत्याग्रह आंदोलनों के बीच की अवधि में साबरमती या सेवाग्राम आश्रम में महीनों चिंतन, मनन और आत्म अन्वेषण में लीन रहते थे। लेकिन हमारे समकालीन गुरु एक दिन के लिए भी आत्मस्थ नहीं हो सकते। जब पुलिस ने रामदेव को दिल्ली छोडऩे को विवश कर दिया तो उन्होंने कहा कि वे हरिद्वार स्थित अपने आश्रम में ‘सत्याग्रहÓ जारी रखेंगे। लेकिन बीस घंटे के भीतर ही उन्होंने मीडिया में मौजूद अपने बंधुओं का सामीप्य प्राप्त करने के लिए हरिद्वार छोड़ दिया। रामदेव जानते थे कि कई टीवी चैनलों के मुख्यालय नोएडा में हैं। वे यह भी जानते थे कि चैनल वाले अपने एंकर्स को तो दूर, रिपोर्टरों को भी उत्तराखंड नहीं भेजेंगे। वे नोएडा रवाना हो गए, लेकिन उत्तरप्रदेश की मुख्यमंत्री के आदेश पर उन्हें रास्ते में ही मुजफ्फरनगर में रोक लिया गया। लेकिन अपने प्रभाव,धन-बल और राजनीतिक पकड़ के सहारे अब बाबा ने अपने आश्रम में भी मीडिया का मजमा जमा लिया है। जो एक साधु-संत के गुण से मेल नहीं खा रहा है।

जिस भ्रष्टाचार की पूंछ पकड़कर वे सत्ता तक पहुंचना चाहते हैं, उससे अछूते वह खुद भी नहीं हैं। पहले रेवन्यू की चोरी और अब ग्रामसभा की जमीन पर कब्जा। ये सब बाबा का अंतर्विरोध नहीं अलबत्ता वह सच है जो यह साबित करता है कि बाबा के रंग हजार हैं और इनमें सबसे गहरा रंग उसका है जिसे राजनीति कहते हैं। अब पाठक ही तय करें कि बाबा की बहुत सारी छवियों में कौन सी छवि सच है।

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विनोद उपाध्याय
भगवान श्री राम की तपोभूमि और शेरशाह शूरी की कर्मभूमि ब्याघ्रसर यानी बक्सर (बिहार) के पास गंगा मैया की गोद में बसे गांव मझरिया की गलियों से निकलकर रोजगार की तलाश में जब मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल आया था तब मैंने सोचा भी नहीं था कि पत्रकारिता मेरी रणभूमि बनेगी। वर्ष 2002 में भोपाल में एक व्यवसायी जानकार की सिफारिश पर मैंने दैनिक राष्ट्रीय हिन्दी मेल से पत्रकारिता जगत में प्रवेश किया। वर्ष 2005 में जब सांध्य अग्रिबाण भोपाल से शुरू हुआ तो मैं उससे जुड़ गया तब से आज भी वहीं जमा हुआ हूं।

10 COMMENTS

  1. बहुत ही सटीक विश्लेषण है उपाध्याय जी मेरा भी यही मानना है रामदेव के बारे में.

  2. भाई आप का लेख पढ़ा जो भी आप ने लिखा है उससे ऐसा लगता है आप न बाबा के बारे में पता है और न ही अपने बारे में अगर बाबा ने इतने अपराध किये होते तो आप के जेसी सोच वाली सरकार ने न जाने क्या कर लिया होता

  3. बाबा राम देव के ऊपर लिखा हुआ लेख मुझे बहुत ही पसंद आया है , कई दिनों से में बाबा रामदेव के ऊपर कई लेख पढ़ रहा था , मुझे लगता था की जिन लेखकों ने वोह लेख लेखे थे जा तो बाबा के समर्थक थे जा फिर राजनीती से प्रेरित थे , सीके का सिर्फ एक ही पहलु नज़र आ रहा था , आप ने efficient criticism किया है जिस के लीये आप बधाई के पात्र हैं , सच चाहे सरकार का हो जा फिर बाबा राम देव का हो जनता के सामने आना ही चाहिए

  4. अरे विनोद जी स्वामी जी की तुलना कम से कम गाँधी जी से तो न करे कहाँ गाँधी जी जिन्होंने ब्रह्मचर्य का प्रयोग करने के लिए कितनी कुंवारी लड़कियों और पतिव्रता स्त्रियों को नंगा कर दिया
    https://www.scribd.com/doc/24393812/Rangila-Gandhi

  5. विनोद जी आपने अपने लेख का शीर्षक दिया है की ‘प्रचार के भूखे हैं बाबा रामदेव’ तो इसमें* तो गलत कुछ भी नहीं है,क्योंकि एक आदमी जब राजनीति में आना चाहता है तो उसे प्रचार का सहारा लेना ही पड़ेगा. दूसरी बात जो आपने सामने रखी है ,वह है किसी संत का राजनीति में प्रवेश ,तो मुझे तो इसमें भी कोई विरोधाभास नहीं नजर आता..अगर कोई दार्शनिक या संत राजनीति में आता है तो न केवल राजनीति की महत्ता बढती है,बल्कि संत का प्रभाव (अगर वह वास्तव मेंसंत हो तो) राजनीति को एक ऐसा मोड़ दे सकता है,जहां केवल सचरित्रता ही सार्वजनिक में आगे बढने का मापदंड हो जायेगा.किसी भी दुश्चरित्र व्यक्ति के लिए सार्वजनिक समर्थन असम्भव हो जाएगा.पर असल प्रश्न चिह्न यहीं लगता है,,की क्या बावा रामदेव इस मापदंड पर खरे उतरत हैं? यहाँ आकर मैं आपके साथ सहमत हो जाता हूँ ,अबतक की बावा रामदेव की जो पृष्ठ भूमि है उससे यह कतई प्रमाणित नहीं होता की रामदेव जी संत कहे जा सकते हैं.उनके अवैध कब्जे वाली बात को अलग भी कर दें तो भी मजदूरों की साथ उनके वर्ताव की कहानियां उनको संतों की श्रेणी से अलग कर देती है.उनके कारखाने से निर्मित औषधियों के गुणवता पर भी प्रश्न उठाये गये हैं और वे प्रश्न एक तरह से दबा दिए गएहैं,उनका समुचित उत्तर नहीं दिया गया है.दूसरी बात जो सामने आती है,वह यह की इन औषधियों के जरिये प्रतिश्पर्धा के अभाव में अनाप सनाप मुनाफे कमाए गये हैं. अगर ऐसा नहीं होता तो इतने कम समय में इतना बड़ा साम्राज्य नहीं कायम होता..मजदूरों का वेतन काटकर और खरीददारों से अत्यधिक मुनाफा लेकर साम्राज्य स्थापित करने वाला संत तो नहीं ही कहा जा सकता.पर इसमें भी मतभेद नहीं ही है की बावा रामदेव एक अच्छे योग गुरु हैं और उन्होंने योग और स्वास्थ्य के प्रति जागरूकता भी फैलाई है.चरित्र निर्माण की दुहाई देने वालों को खुद चरित्रवान होना आवश्यक है और उस मापदंड पर रामदेव जी खरे उतरते नहीं दिखाई देते.

  6. अनिमेष जैन जी, आप जो परिभाषा से रहे हैं वो सन्यासी या योगी की नहीं स्वार्थी कायर की है..
    भगवन श्री कृष्ण योगीश्वर हैं… जिन्होंने तत्कालीन कांग्रेस (दुर्योधन) सरकार के कुकर्मों एवं भ्रष्टाचार के अंत के लिए महाभारत करवाया

  7. मोनू भाई
    सन्यास लेने का मतलब ही यह होता है की सन्यास लेने वाले को सांसारिक लोगो व उनकी अच्छे व बुर्राई से कोई नाता नहीं रह गया है . सन्यास लेने वाला स्वयं के आत्म कल्याण की भावना से सन्यास लेता है फिर उसे दुनिया वालों के लिए कुछ करने न करने का प्रश्न ही नहीं होता. सन्यास लेने के साथ ही उसने अपनी आत्मा की तरफ अपने आप को केंद्रित कर दिया है. सही मायने में सन्यासी या साधू वह है जो ज्ञान ध्यान और ताप में लिन रहे .

  8. desh sabse vada hai, uski bat jo imandari aur nidarta se kare unko hum apnate hai. aap jaise behude desh ko bechane me lage hai.

  9. प्रिय विनोद उपाध्याय,

    ये आप से किसने कहा की यदि कोई इन्सान सन्यासी बन गया हा तो वो देश या समाज क लिए कुछ न नारे और बस जप ताप ही करता रहे. किसी क सन्यास लेने से उसके नागरिक अधिकार नहीं छीन जाते. आपकी बैटन से तो आप संकुचित मानसिकता वाले कोई व्यक्ति लगते है.

    कृप्या अपने दिमाग से काम लीजिये और बेकार क तर्क देना बंद करें.

    आशा करता हूँ आपका अगला लेख कोरी हवाई बातें न हो कर कोई तर्क सांगत लेख होगा.

    धन्यवाद 😛

  10. ? प्रश्न क्रांती और प्रतिक्रान्ती का है. कौन किस भूमिका में है यह तो समय ही बताएगा .

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