व्यंग्य

केले.. ले लो, संतरे.. ले लो!

-अशोक गौतम-

vyangya

वह इक्कीसवीं सदी के दूसरे दशक का मजनू फिर अपनी प्रेमिका के कूचे से आहत हो आते ही मेरे गले लग फूट- फूट कर रोता हुए बोला,‘ दोस्त! मैं  इस  गली से ऊब गया हूं। इस गली में मेरा अब कोई नहीं। मैं  बस अब  आत्महत्या करना चाहता हूं। बिना दर्द का कोई आत्महत्या का तरीका हो तो फौरन बताओ,’ मैंने उसे मरने के लिए इतना व्यग्र देख अपने रूमाल से उसके आंसू पोंछते कहा,‘ यार! रोते नहीं। कम से कम प्रेमिका द्वारा ठुकराए जाने  पर  तो बिलकुल भी नहीं रोते।   प्रेम के मामले में अब हम वैस्टर्न जो हुए जा रहे  हैं।’

‘ पर ये चौथी छोड़ कर चली गई गुरू!’ उसने और भी जोर से रोते हुए कहा तो मैंने उसको इस हादसे से उबारने के लिए चलाऊ सा आइडिया दे उसकी पीठ थपथपाते कहा,‘ कोई बात नहीं। इस देश  में हर चीज की कमी है पर प्रेमिकाओं की नहीं। टीवी सीरियल नहीं देखते क्या?’

‘टीवी सीरियल देखने से बेहतर तो आत्महत्या है गुरू? जीव का मरने के बाद  पुनर्जन्म भी हो जाता है पर टीवी सीरियल खत्म ही नहीं हुआ होता।’

‘  तो जो  आत्महत्या करनी  ही है तो क्यों न अपने प्रेम के अधकचरे अनुभवों पर कुछ लिखकर मरा जाए मेरे दोस्त! हर देश का साहित्य गवाह है कि  प्रेम में हारों को जो शरण मिलती है तो बस कलम की गोद में ही। प्रेमिका के लिए रो- रो कर ऐसे मरने से कुछ नहीं मिलेगा मेरे दोस्त! इसलिए किसी अच्छे से बिकाऊ लेखक के कलम में सफल होने के दो चार नुस्खों पर हाथ आजमा और…. प्रेमिकाओं का दुलारा हो जा,’ मैंने उसपर लेखन की  महिमा की अमृतवर्शा की तो वह अमरत्व प्राप्त करने के बजाय गुस्साते बोला, ‘अपने से कम्बख्त सबकुछ होता है, पर बस पैदाइशी एक ही बीमारी है कि  लिखा नहीं जाता। इसीलिए मेरे स्कूल का होम वर्क तक मेरी मां ही किया करती थीं। मैं अब बस आत्महत्या करना चाहता हूं। ’

‘ डरो मत! असल में हिंदी में लेखन करना और  प्रेमिकाओं से तंग आ आत्महत्या करना एक जैसा ही है मेरे दोस्त।’

‘तो तुम  क्यों नहीं लिखते -विखते कुछ ऐसा वैसा ? लेखक बना मुझे कलम की बलि क्यों चढ़ा रहे हो मेरे गुरु होकर भी?’

‘  फिलहाल अभी गृहस्थी में रहते मुझे  आत्महत्या  बनाम कलम घिसने के  आसार  दूर- दूर तक नहीं दिख रहे,’ मैंने कहा तो मुझे  अपने आसपास कुछ जलने की बास सी आई।

‘ मतलब, सब ठीक चल रहा है?’ देखो प्रेम के मारे की गृहस्थी में दिलचस्पी!! ‘तो क्या लिखूं?’ कह वह मेरा मुंह ताकने लगा।

‘मेरे हिसाब से तुम व्यंग्य लिखो। वह तुम्हारी  असफल प्रेम कहानियों  के हिसाब से तुम्हारी कलम पर बिलकुल फिट बैठेगा।’

‘ पोइम, सोइम, स्टोरी स्टारी क्यों न लिखूं?’

‘क्या है न कि कहानी, कविता मन की बीमारी है। और आज के समाज के पास मन है ही कहां जो उसमें ऐसी बीमारी हो? दूसरे, तुम्हारा रोना कोई दूसरा कोई क्यों रोए? यहां लोगांे के पास अपने रोने पर रोने से ही फुर्सत नहीं।’

‘तो?’

‘तो व्यंग्य मंे हाथ आजमाओ और दूसरे दिन ही षरद जोषी , हरिशंकर परसाई हो जाओ।’

‘षरद जोषी बोले तो? हरिशंकर परसाई बोले तो?? तुम्हारे क्या लगते हैं ये??’

‘ये ऐसे बंदे हैं कि बरसों मरे हो गए इनको, पर हर कहीं हर किसीको दिमाग की अलर्जी की दवाई अपने पैसों से खरीद मुफ्त में देते आज भी मिल जाते हैं।’

‘ दिमाग को भी अलर्जी होती है क्या गुरु? मैंने तो  सुना था कि चमड़ी को ही अलर्जी होती है।’

‘अरे पागल! आज चमड़ी इतनी मोटी हो गई है कि चमड़ी को नहीं, दिमाग को अलर्जी हो रही है। ’

‘तो इस गड़बड़झाले़ का मतलब दिमाग की अलर्जी है? पर मैं तो समझा था कि…’

‘असल में दोस्त! माफ करना! जब बंदा बिन सोचे सोचता है न तो तुम्हारी तरह ही सोचता है !’  ‘तो?’

‘  तो लिख मारो व्यंग्य- स्यंग, और हो………’

‘पर मैंने तो कभी लैटर टु एडिटर तक नहीं लिखा।’

‘उन कंबख्त प्रेमिकाओं को खत तो हजारों लिखे होंगे?’

‘नहीं ,मैसेज ही किए हैं,’ वह सात्विक प्रेमिका की तरह  शर्माते बोला।

‘कोई बात नहीं। यह प्रेम के इजहार की लेटेस्ट तकनीक है।’

‘तो….’

‘तो क्या…शाम को मेरे घर आना, हरिषंकर परसाई की दो किताबें ले तीसरी अपनी लिखनी शुरू न कर दो मेरी मूंछें अपने दादा के वक्त के उस्तरे से काट देना,’ जब मैंने अपनी मूंछें दाव पर लगा दीं तो मजनू  को मुझ पर पूरा विश्वाश हो गया कि मैं  उसे   आत्महत्या करने का  सही रास्ता बता रहा हूं। नालायक से नालायक बंदा तक यों ही तो अपनी मूंछें दाव पर नहीं लगा देता।

हफ्ते बाद मजनू मिला तो सोचा था कि क्रांंितकारी के गले मिल जिंदा जी ही अमर हो जाऊंगा पर आते ही वह मेरे पांव पर गिड़गिड़ाते बोला,‘ गुरू, अपने हरिशंकर परसाई ले लो ।’

‘क्यो,ं क्या हो गया??’

‘ होना क्या? परसों मुहल्ले के अर्ल्जीले दिमागों पर साहब ने हाथ पकड़ जबरदस्ती  लिखवा दिया।  मैंने बहुत कहा,  हे परसाई! लिखवाना है तो कंबख्त प्रेमिका पर लिखवाओ।  भड़ास भी निकल जाएगी और पांच- सात सौ भी आ जाएंगे। पर नहीं माने, तो नहीं माने। बोले, छि! दुनिया इक्कीसवीं सदी में जा रही है और तुम सदियों पुरानी प्रेमिकाओं पर लेखन की परिपाटी पर ही चलने की सोच रह हो? लानत है हिंदी के ऐसे तालियां बटोरू लेखकों पर। अपना आप दिमाग से साफ नहीं रह सकते तो कम से कम कुछ समाज की सफाई के बारे में तो सोचो। …….फिर कहते हो नोबेल नहीं मिलता। हे मेरे दोस्त! प्रेमिकाओं पर लिखने से नोबेल मिलता न तो आज को हिंदी का हर  गुरू- चेला नो बॉल हुआ होता प्यारे।’

‘ तो?’ उसके साथ उसकी बगल में खड़े परसाई मुंह पर हाथ रखे मंद- मंद मुस्करा रहे थे।  ‘देखो गुरू! जिस तालाब में रहना है उसमें रहते मच्छरों  तक से बैर कम से कम मैं नहीं ले सकता। ये उटपटांग लिखना अपने बस का नहीं । बसों में घूम- घूम केले , संतरे बेच ही पेट भर लूंगा, पर…..’

‘देख ले मजनू , कहीं  फिर आत्महत्या करने की सोचनी  पड़ी तो… तुम्हारा सुसाइडल नोट लिखने वाला मैं नहीं!’

‘यार, लिखने को गोली मार! पर गुरु एक बात तो बताना? ये परसाई, जोशी किस मिट्टी के बने थे यार?’