परदे के पीछे – अमेरिकी लोकतंत्र का अल्पज्ञात पक्ष

हरिकृष्ण निगम

आज के युग में शायद ऐसी कोई चीज नहीं है जिसे निष्पक्ष सत्य कहा जा सके और उसको किसी न किसी संदर्भ में व्याख्यायित करना अनिवार्य बन जाता है। दुनियां के समक्ष जो भी तथ्य प्रस्तुत होता है, चाहे वह किसी पत्रकार, लेखक या शिक्षक हो उसकी व्याख्या में उसके परिवेश द्वारा कि या गया निर्णय छिपा होता है। यह निर्णय ऐसा भी होता है कि हमारे निर्णय में कौन-सा तथ्य महत्वपूर्ण बन जाता है या कौन महत्वहीन यह हमारी दृष्टि पर निर्भर होता है। इसीलिए बहुधा यह भी कहा जाता है कि विजेताओं का इतिहास विभिन्न जातियों के इतिहास से भिन्न होता हैं। इसीलिए पिछले घटनाक्रमों को चाहे इतिहासकार हों या निष्पक्ष कहलाने वाले पत्रकार अपने समय के रूझानों या वर्ग के हितों के चश्में से संपादित करने का लोभ संवरण नहीं कर पाते हैं और यहां के समग्र दलानियोजन या ‘मैनीपुलेशन’ की कला भी शुरू होती है।

हम बचपन से अमेरिकी जनतंत्र की जड़ों व विकास की परंपराओं के बारे में पढ़ते रहते हैं पर यदि स्वयं अमेरिकी इतिहासकारों व टिप्पणीकारों द्वारा अपने वैकल्पक इतिवृत्त की कड़वी सच्चाइयों के बारे में नहीं पढ़ते तो वहां के समग्र चित्र को भलीभांति नहीं समझ सकते हैं। स्वयं हमारे देश के अनेक बुध्दिजीवी भी उन अल्पज्ञात तथ्यों से हमारे देशवासियों को अवगत कराने की आवश्यकता नहीं महसूस करते हैं। पर एक बात यह भी सिध्द होती है कि आज भी अमेरिकी प्रशासन सर्वोच्च स्तर पर पहले की तरही ही किन्हीं थोथे आदर्शों की दुहाई नहीं देते हैं और राष्ट्रीय हित व सुरक्षा को सर्वोपरि रखते हैं जिसके लिए दूरगामी भू-राजनीति के मुद्दों को वे क्षण भर भी अनदेखा नहीं करते हैं। अमेरिका की धरती से दूर विश्व के किसी भी कोने में दशकों पहले भी वे किसी आक्रामक नीति के लिए कभी हीनता-ग्रंथि नहीं दिखाते रहे हैं। एक समय कोरिया में वूमेने ने सैनिक कार्यवाही में लाखों लोगों को मरवाया था। दूर-सुदूर इंडो-चायना या वियतनाम युध्द में लिंडन जॉनसन व रिचर्ड निक्सन ने कुल मिलाकर 3 मिलियन लोगों की बलि चढ़ा दी थी। रोनाल्ड रीगन ने ग्रेनाडा पर आक्रमण किया था। जार्ज बुश ने पले पनामा पर फिर इराक पर हमला करवाया था। क्विंटन ने ईराक पर बार-बार बमबारी करवाई थी।

अगर अमेरिका के पहले के इतिहास पर भी दृष्टिपात करें तो यही देखेंगे कि जब क्रिस्टोफर कोलंबस ने नई दुनिया खोजी थी तभी से हिस्पोनियोला की स्थानीय जनसंख्या के नरसंहार का सिलसिला शुरू हो गया था। रेड इंडियन जो वहां के मूलवासी थे आज वे सिर्फ अजायब घर जैसे आरक्षित स्थानों पर ही देखे जा सकते हैं। उनका हशियेपर आना अमेरिकी इतिहास की बड़ी त्रासदी रही है। अमेरिका के अनेक प्रांत के ंद्रीय सत्ता के हाथ में कैसे आए, इसका अपना इतिहास है। लूसियाना प्रांत खरीद कर मिलाया गया था। यही हाल फ्लोरिडा के अमेरिकी राज्य में जुड़ने का था अलास्का रूस से खरीद कर जोड़ा गया था। मेक्सिको के बड़े हिस्से व कौलरेडो को बलात् जोड़ा गया था। लैटिनी जनसंख्या वाले विशाल समूह जो कैलीफोर्निया व दक्षिण-पूर्व में रहते थे उनको हिंसा, युध्द तथा लंबे समय की जातीय घृणा के बाद अमेरिका का हिस्सा बनाया गया।

आज तो निक्सन और किसिंजर के वे सैकड़ों कुकृत्य सामने आ चुके हैं जिसमें उन्होंने एक और धर्मतंत्र, तानाशाहों और क्षेत्रीय सुरक्षा के नाम पर राजतंत्रों के शह देखकर जनसंहार के अनेक प्रकरणों को शह दी और अनेक उदाहरण ऐसे भी हैं जब उन्होंने धर्मांध शासकों को ‘जनोसाइड’ की पूर्व अनुमति दी तथा प्रजातांत्रिक शासनों के विरूध्द खुलकर घृणा भी प्रकट की। इंडोचीन की गुप्त, अवैध और व्यापक बमबारी सिर्फ निक्सन और किसिंगर के अपने राजनीतिक करियर को बढ़ाने के लिए एक विशेष नियत समय पर लाभ के लिए की गई थी। 1971 में इन्हीं दोनों ने पाकिस्तानी सेना को बंग्लादेश में नरसंहार के लिए जनरल यहिया खां को उकसाया था। विश्वविख्यात लेखक क्रिस्टोफर हिचिंस द्वारा उध्दृत हेनरी फिसिंजर के उस समय के कुटिल वक्तव्य को दोहरायें तो उसने यही कहा था – ‘यहिया को हिंदू नरसंहार के लिए हुए कॉफी समय बीत गए हैं उसे फिर से इसका आनंद मिलना चाहिए। चिली और आर्जेंटाईना के कातिल तानाशाहों से भी किसिंजर की इतनी दोस्ती थी कि उनके सत्ता में बने रहने के लिए किए गए हर नरसंहार को अनदेखा कर देते थे। अपने इंडोनेशियाई सत्तारूढ़ मित्रों को अपने पूर्वी तिमोर के संघर्ष के समय नरसंहार वे किसिंजर ने अप्रत्यक्ष मदद भी की थी। जोराल्ड फोर्ड जब राष्ट्रपति थे जब किसिंजर की सलाह पर ही सदृाम हुसेन को कुर्द विद्राहियों के जनसंहार की अनुमति दे गई थी। फोर्ड के समय ही तुर्की को साईंप्रस द्वीप पर हमला करने का अनुमोदन दिया गया था। अमेरिका जैसे आदर्श प्रजातंत्र किसी स्वतंत्र देश को तोड़ने या उसके प्रमुख की हत्या के विकल्प को भी अपना सकता है यह विस्मयजनक हैं एक समय वेनेजुएला के राष्ट्रपति ह्यूंगो चावेज की हत्या करवाने के लिए अमेरिकी हाथ की बात ने अंतराष्ट्रीय राजनीति में तूफान खड़ा कर दिया था।

प्रतिरोध की राजनीति अमेरिकी के आधुनिक इतिहास में काफी चर्चित रही है। लीबिया के राष्ट्रपति मुअम्मर गद्दाफी के त्रिपोली स्थित महल पर बमबारी भी उनको मारने की अमेरिकी साजिश कही जाती थी, जिसमें उनकी एक बच्ची की मृत्यु हुई थी। फिडेल कास्ट्रो की हत्या की अमेरिकी कोशिशें भी कई बार नाकाम रही थी। शीत युध्द के समय राष्ट्रसंघ के अध्यक्ष हैमरशोल्ड की वायु दुर्घटना में मृत्यु और चिल्ली के राष्ट्रपति आयडे की हत्या उनके अमेरिकी विरोध की अंतिम नियति कही जा सकती है।

जैसा ऊपर इंगित किया है साठ और सत्तर के दशक में तत्कालीन सेक्रेटरी ऑफ स्टेट हेनरी किसिंजर भारत के हितैषी होना तो दूर एक बड़े खलनायक के रूप में प्रकट हुए थे। यह हम जानते हैं कि सन् 1971 के बंग्लादेशी के स्वतंत्रता संग्राम के दौरान अमेरिका का झुकाव उसकी सेना के वहां पर दमन के बावजून पाकिस्तान की ओर ही था। वाशिंगटन स्थित जार्ज वाशिंगटन विश्वविद्यालय की राष्ट्रीय सुरक्षा अभिलेखागार संबंधी वेबसाइट पर यह रहस्य उजागर किया गया है कि जुलाई, 1971 में चीनी और अमेरिकी अधिकारियों की एक गुप्त मीटिंग में भारत के विरूध्द एक नया मोर्चा खोलने की साजिश हो रही थी। उसके बाद 10 सितंबर, 1971 में राष्ट्रसंघ स्थिति चीनी राजदूत हुआंग हुआ के साथ हुई एक अत्यंत गोपनीय मीटिंग में हेनरी किसिंजर उन्हें सुझाव दे रहे थे कि यदि चीन भारत के विरूध्द सैनिक कार्यवाही प्रारंभ करेगा तो अमेरिका बंग्लादेश न बनने देने के लिए पाकिस्तानी सेना को वहां हर सहायता देने को तैयार था। यहां तक कि पाकिस्तान पर लागू किए गए प्रतिबंधों का स्वयं उल्लंघन कर उसने उसे 5 एफ. ए. लड़ाकू विमान और आवश्यक कलपूर्जे मुहैया कराए। ‘किसिंजर ट्रान्सिक्रिप्ट्स’ नामक ग्रंथ में भी जब किसिंजर चीनी राष्ट्रपति माओ से 1 नवंबर, 1973 में मिले भारत के खिलाफ अमेरिकी दांव पेंचों का खुलकर वर्णन किया गया है। कहने का तात्पर्य यह है कि लोकतंत्र व खुले उदारवादी समाज की दुहाई के पीछे अमेरिका अपने देश के दूरगामी भूराजनीतिक स्वार्थों को ही सर्वोपरि मानता है और अपने आदर्शवादी ढोल को तभी पीता है जब वह उसके लिए सुविधाजनक होता है। इसके विपरीत या तो हमारे देश में बुध्दिजीवियों की स्मृति बहुत कच्ची है, हम सदैव अमेरिकी वर्चस्व से भयाक्रांत रहते है अथवा अपनी आदर्शवादी दुनियां में जीने के आदि हैं, नहीं तो इन अल्पज्ञात तथ्यों को जनसाधारण के समक्ष रखने में कभी नहीं हिचकिचाते।

* लेखक अंतर्राष्ट्रीय मामलों के विशेषज्ञ हैं।

3 COMMENTS

  1. प्रवक्ता पर पहली बार अमेरिका की असली सूरत दिखाने वाला एक उपयोगी लेख नज़र आया है. आज विश्व में अमेरिका का महत्व बहुत अधिक है, जिसके बारे में जाने बिना विश्व की राजनीती को समझने की बात कहना नासमझी की बात होगी.जिस प्रकार रामायण में रावण और महाभारत में कंस व दुर्योधन का महत्व है उसी प्रकार आज के युग में अमेरिका का महत्व है. यह कहना तो नितांत मुर्खता होगी कि कोई देश अपनी देश के विकास और सुरक्षा की योजना विश्व की परिस्थितियों को जाने बिना बना ससकता है. अतः यह पता होना चाहिए की विश्व में क्या चल रहा है. एक उदाहरण देखें. एक पुस्तक है ”इकोनोमिक हिट मैन ऑफ़ अमेरिका” इस पुस्तक के अनुसार अमेरिका अपने आर्थिक विशेषग्य दूसरे देशों पर यह कह कर थोंप देता है की हम आपके देश का आर्थिक विकास करेंगे. वह विशेषग्य अपनी नीतियों से उस देश को आर्थिक रूप से तबाह कर देता है. इसके बाद विश्व मुद्रा कोष और विश्व बैंक के ऋणों के दुश्चक्र में फंसा कर उस देश को अमेरिका का गुलाम बना दिया जाता है. एक कठपुतली सरकार उस देश में काम करती रहती है जो पूरी तरह अमेरिकी हितों का पोषण अपने देश में करते हुए देश की जनता को भुखमरी की और धकेल देती है. जनसंख्या का विनाश गुप-चुप चलता रहता है.
    * समझने की बात यह है कि जो देश आर्थिक हत्यारे तैयार कर सकता है तो क्या उसके स्वास्थ्य हत्यारे, सांस्कृतिक हत्यारे, राजनैतिक हत्यारे नहीं होंगे ? ज़रूर होंगे. दुनिया के देशों में फ़ैल रही भुखमरी, अराजकता, आतंक के पीछे अमेरिका के षड्यंत्रों के होने से इनकार नहीं किया जा सकता. अतः किसी भी देश के लिए ज़रूरी है कि वह अमेरिका की कार्यप्रणाली को देखे और समझे; उससे सावधान रहे, उससे बचने के उपाय करे.
    अमेरिका के सन्दर्भ में एक यह बात जानना भी उपयोगी और रोचक होगा कि वह खुद अपने देश वासियों के जीवन के मूल्य पर भी अपने देश की कार्पोरेशनों यानी व्यापारियों के हितों की रक्षा करता है. ऐसी दुर्दशा तो शायद ही किसी दूसरे देश के नागरिकों की हो. विश्वास न हो तो ज़रा mercola.com पर पढ़ कर देखें कि किस प्रकार लाखों अमेरिकियों की बलि देकर दवा कंपनियों के हितों की रक्षा की जाती है. जो देश अपने देशवासियों का वफादार नहीं वह अपने आर्थिक हितों के लिए कितना भी विनाश कर सकता है.
    * सच तो यह है की इन अतिवादी बाजारवादी नीतियों में अमेरिका की त्रासदी व विनाश के बीज छुपे हुए हैं. वह संसार के साथ अपने दुःख के बीज भी स्वयं बो रहा है. अवसर आने पर भारत की संत शक्ती ही भारत के साथ अमेरिका को भी सुख, समृधी का सही रास्ता दिखायेगी. कोई चाहे अभी विश्वास न भी करे पर इसके इलावा और कोई मार्ग अब बचा नहीं है और यही होना है.

  2. हम भारतीयों के लिए हमारा देश मुख्य होना चाहिए .अमरीका सारे देशो पर अदीकार चाहता हे.हम अमरीका के इतिहास को महत्व क्यों दे?

  3. भारत देश में कोई भी अमेरिका को पसंद नहीं करता है. केवल अमेरिका में नोकरी चाहने वाले और नेताओ को छोड़ कर.
    श्री निगम जी ने अमेरिका के इतिहास की बहुत अछि जानकारी दी है. किन्तु हमारा दुर्भाग्य है की हमारी जनता खुद हमारा सही इतिहास नहीं जानती है.

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