गजल

बेज़ार मैं रोती रही, वो बे-इन्तेहाँ हँसता रहा

life-is-good-peak-districtबेज़ार मैं रोती रही, वो बे-इन्तेहाँ हँसता रहा।

वक़्त का हर एक कदम, राहे ज़ुल्म पर बढ़ता रहा।

ये सोच के कि आँच से प्यार की पिघलेगा कभी,

मैं मोमदिल कहती रही, वो पत्थर बना ठगता रहा।

उसको खबर नहीं थी कि मैं बेखबर नहीं,

मैं अमृत समझ पीती रही, वो जब भी ज़हर देता रहा।

मैं बारहा कहती रही, ए सब्र मेरे सब्र कर,

वो बारहा इस सब्र कि, हद नयी गढ़ता रहा।

था कहाँ आसाँ यूँ रखना, कायम वजूद परदेस में,

पानी मुझे गंगा का लेकिन, हिम्मत बहुत देता रहा।

बन्ध कितने ढंग के, लगवा दिए उसने मगर,

‘मशाल’ तेरा प्रेम मुझको, हौसला देता रहा।