श्रीमद्भगवद्गीता और छद्म धर्मनिरपेक्षवादी – चर्चा-१

विपिन किशोर सिन्हा

जबसे मध्य प्रदेश की सरकार ने गीता के अध्ययन की विद्यालयों में व्यवस्था की है, स्वयं को प्रगतिशील और धर्म निरपेक्ष कहने वाले खेमे में एक दहशत और बेचैनी व्याप्त हो गई है। उनके पेट में दर्द होने लगा है। उनको यह डर सताने लग गया है कि अगर इसकी स्वीकृति हिन्दू धर्म के इतर भी हो गई, तो वे अपनी दूकान कैसे चला पाएंगे? गीता को विवादास्पद ग्रंथ घोषित करने के लिए इनलोगों ने एक अभियान-सा चला दिया है। जब से मैंने कहो कौन्तेय का एक अंक प्रतिदिन प्रवक्ता में देना आरंभ किया, अन्य विषयों पर लिखना ही बंद कर दिया था। समयाभाव मुख्य कारण था लेकिन इधर मैंने देखा कि कुछ स्तंभकारों द्वारा अपने हिन्दुत्व पर गर्व का दावा करते हुए हिन्दू धर्म ग्रंथों, यथा वेद, पुराण, उपनिषद, मनुस्मृति, रामायण, महाभारत, गीता……..को आक्रमणकारी आर्यों की कृतियां बताकर, हिन्दुओं को इन्हें न मानने और आधुनिक समय के हिसाब से स्वयं को ढालने का परामर्श दिया जा रहा है। छद्म हिन्दुत्ववादियों से सावधान रहने की सलाह दी जा रही है। हिन्दू समाज को अगड़े, पिछड़े, अनुसूचित, आदिवासी आदि कई खेमों में तो हमारे संविधान और हमारे लोकतंत्र ने बांट ही रखा है, अब एक और खेमे में बांटने की तैयारी है – हिन्दू और आर्य अलग-अलग थे। इस देश के मूल निवासी हिन्दू थे और बाहर से आए आर्यों ने स्वयं को असली हिन्दू घोषित करके हिन्दुत्व का अपहरण कर लिया। बाद में इनलोगों ने (आर्यों ने) वेद, पुराण, गीता, रामायण आदि ग्रंथों की रचना करके, उनके माध्यम से अपने विचार और कर्मकाण्ड हिन्दू समाज पर इस तरह थोप दिया कि आज का हिन्दू इन्हें अपना ग्रंथ मानकर उनकी पूजा करने लगा। आर्यों को ये आक्रमणकारी और बाहर से से आया मानते हैं। इनके ज्ञान का आधार वही विदेशी लेखक हैं जिन्होंने सोची समझी रणनीति के तहत यह मिथ्या प्रचार किया। उद्देश्य था – एक झूठ को बार-बार कहकर सत्य के रूप में स्थापित करना। हिटलर की इस थ्योरी को हमारे देश के छद्म धर्म निरपेक्षवादियों ने आत्मसात कर लिया। इन्होंने सत्य का साक्षात्कार करने की कभी कोशिश ही नहीं की. इन्होंने डा. संपूर्णानंद (आर्यों का आदि देश), प्रो. राजबलि पाण्डेय को कभी पढ़ा ही नहीं। लोकमान्य तिलक और राहुल सांकृत्यायन को समझा ही नहीं। स्वातंत्र्यवीर सावरकर द्वारा लिखित भारतीय इतिहास के छ: स्वर्णिम पृष्ठ एवं पी. एन. ओक द्वारा लिखित इतिहास छूते ही इन्हें मलेरिया हो जाता है। इसके पीछे सोची समझी एक राजनीति है – भारत को एक सराय घोषित करना। भारत की सदियों पूर्व की राष्ट्रीयता को नकारना। आर्य बाहर से आए, मुसलमान भी बाहर से आए, यहूदी भी बाहर से आए, पारसी भी बाहर से आए, अंग्रेज भी बाहर से आए। इनके अनुसार भारत की अपनी कोई राष्ट्रीयता या पुरानी पहचान है ही नहीं। यहां रहने वाले सभी बाहरी हैं। इन पश्चिम परस्त तथाकथित प्रगतिशील लेखकों को यह पता ही नहीं है कि पश्चिम ने भी जब निष्पक्ष होकर अध्ययन किया तो पाया कि हिन्दू सभ्यता विश्व में सबसे पुरानी है। उनके अनुसार इसका अस्तित्व ५ लाख वर्ष पूर्व से है। लंदन के विश्वविख्यात ब्रिटिश म्युजियम के इंडियन गैलरी में एक शिलापट्ट पर यह सत्य स्वर्णाक्षरों में अंकित है। मैंने जुलाई, २००८ के अपने लंदन प्रवास के दौरान यह शिलापट्ट अपनी आंखों से देखा था। न चाहते हुए भी कहो कौन्तेय-११ के बाद कुछ दिनों के किए इसे विराम देना पड़ रहा है। श्रीमद्भगवद्गीता के विषय में सप्रयास फैलाई जा रही धारणाओं ने मुझे आहत किया है। इसलिए प्रथम मैं गीता पर ही चर्चा कर रहा हूँ ताकि विधर्मियों द्वारा फैलाई गई भ्रान्त धारणाओं का प्रभाव नष्ट किया जा सके।

इस समाज में कोई देवी-देवताओं की पूजा करता है, तो कोई भूत-प्रेत की। परिवार और संगी-साथी द्वारा की गई पूजा की अमिट छाप मस्तिष्क पर पड़ जाती है। देवी की पूजा मिली तो जीवन भर देवी-देवी रटता है, परिवार में भूत-पूजा मिली तो भूत-भूत रटता है। भूत-भूत रटते-रटते इन स्वघोषित प्रगतिशील लेखकों को हर तरफ भूत ही दिखाई देने लगा है। क्या कारण है कि ये समझ नहीं पाते या न समझने की दृढ़ प्रतिज्ञा कर रखी है? बाल की खाल निकालकर रटने पर भी क्यों वाक्य विन्यास ही इनके हाथ लगता है? क्यों ये सत्य से सप्रयास अपने को दूर रखते हैं? इनपर सिर्फ तरस खाया जा सकता है। ये दिग्भ्रान्त हैं। ऐसे भ्रान्त लोगों को गीता जैसा कल्याणकारी शास्त्र मिल भी जाय, तो वे उसे नहीं समझ सकते। पैतृक संपदा को कदाचित वे छोड़ भी सकते हैं, किन्तु दिल-दिमाग में अंकित मज़हबी पचड़ों को नहीं मिटा सकते। वे यथार्थ शास्त्र को भी अपनी ही रुढ़ियों, पूर्वाग्रहग्रस्त मानसिकता, मान्यता और साम्प्रदायिकता के चश्मे से देखने के लिए विवश हैं। यदि उनके अनुरूप बात ढलती है, तो ठीक; नहीं ढलती है, तो शास्त्र ही गलत। ऐसे पात्रों के लिए गीता-रहस्य, रहस्य ही बनके रह जाता है। इसके वास्तविक पारखी सन्त और सदगुरु हैं। वही बता सकते हैं कि गीता क्या कहती है। सब नहीं जान सकते। सबके लिए सुलभ उपाय यही है कि इसे किसी महापुरुष के सान्निध्य में समझें, जिसके लिए श्रीकृष्ण ने विशेष बल दिया है। गीता के अध्याय-१८ के ६७वें श्लोक में श्रीकृष्ण ने स्वयं कहा है –

इदं ते नातपस्काय नाभक्ताय कदाचन

न चाशुश्रूषवे वाच्यं न च मां योभ्यसूयति

हे अर्जुन! तेरे हित के लिए कहे हुए इस गीता रूप परम रहस्य को किसी काल में भी न तो तपरहित मनुष्य के प्रति कहना चाहिए और न भक्तिरहित के प्रति तथा सुनने की इच्छा न रखनेवाले के प्रति; उसके प्रति भी नहीं जो मेरी (ईश्वर) निन्दा करता है।

आज गीता पुस्तक के रूप में सर्वसुलभ है, इसलिए इन छद्म धर्मनिरपेक्षवादियों को भी मिल गई है। बन्दर के हाथ में उस्तरा। मनचाही व्याख्या कर पत्र-पत्रिकाओं में छपवा रहे हैं।

क्रमशः

7 COMMENTS

  1. सिन्हा जी, सारा विश्व (भारत को छोड़ कर) अपने अंत की तरफ जा रहा है और भारत अपने स्वर्णिम युग की तरफ. देश तोड़क शीघ्र है काल के गाल में समां जायेंगे

  2. अंग्रेजों ने अपने शासन कल में भारतीय समाज को परस्पर विरोधी टुकड़ों में बाँटने की जो योजना बनाई थी उसे स्वाधीन भारत के नेतागणों ने अत्यधिक शक्ति तथा वेग प्रदान किया है.इस कार्य में ईसाई पादरी, इस्लामी मौलाना, वामपंथी तथा उनके सहयात्री सहयोग कर रहे हैं सब से अधिक चिंता का विषय है मैकाले के मानस पुत्रों का भारतीय संस्कृति विरोधी अभियान. भारतमें इस समय सत्ता एक गुट के हाथ में है जिस में देश के उद्योग तथा व्यापार जगत के अधिनायक, राज नेता तथा उच्च पदों पर आसीन नौकरशाह सम्मिलित हैं और इनमें अधिकतर ने मैकाले की शिक्षा प्रणाली द्वारा वांछित मान्यताएं आत्मसात की हुई हैं. सूचना तंत्र पर इन का अधिपत्य है ,वैश्वीकरण , आधुनिकीकरण , उदारवाद इत्यादि नारों के द्वारा इन का उद्देश्य भारत की सांस्कृतिक धरोहर तथा पहचान को मिटाना है .जैसा की अनिल गुप्ता जी ने कहा इस सारे षड़यंत्र का भंडाफोड़ राजीव मल्होत्रा जी की शोध पर आधारित पुस्तक” ब्रेकिंग इंडिया” में किया गया है. प्रत्येक शिक्षित भारतवासी को यह पुस्तक पढ़ कर या अन्य स्रोतों से इस अभियान से अवगत हो कर इस का प्रतिकार करने की आवश्यकता है.नहीं तो “तुम्हारी दास्ताँ तक भी न होगी दस्तानों में”

  3. सिन्हा जी आपके इस सत्प्रयास के लिए आपका अभिनन्दन. विश्वास है की आपके लेखो के कारण बहुत से लोग गीता के प्रति आकर्षित होंगे और कल्याणकारी ( इस और उस लोक में) गीता को इससे पर्याप्त प्रचार मिलेगा. यदि गीता का थोड़ा सा भी अध्ययन कर लिया जाए तो फिर अन्य किसी सम्प्रदाय में रूचि नहीं रह जाती. शायद इसी बात से कई लोग भयभीत रहते है और गीता के विरुद्ध प्रचार करते हैं.

  4. श्री सिन्हा ने अच्छी बहस प्रारंभ की है. जो लोग कभी दलित शोषण का नाम लेकर तो कभी धर्मनिरपेक्षता का नाम लेकर हिन्दू धर्म ग्रंथो पर प्रहार कर रहे हैं वो वास्तव में विदेशी षड़यंत्र के तहत दलित सवर्ण, आर्य अनार्य, द्रविड़ वैदिक अदि काल्पनिक विषय उठाकर देश को तोड़ने का काम कर रहे हैं. इस अंतर्राष्ट्रीय षड़यंत्र का बड़ा विषद भंडाफोड़ राजीव मल्होत्रा की शोधपूर्ण पुस्तक “ब्रेकिंग इण्डिया” में किया गया है. कुछ वर्ष पूर्व मै लखनऊ में विश्व संवाद केंद्र में डॉ. गौरीनाथ रस्तोगी जी से मिला था. उन्होंने एक प्रसंग बताया. समाजशास्त्रियों के एक अंतर्राष्ट्रीय सम्मलेन में उन्होंने एक अमेरिकी विद्वान् से पूछा की आप भारत के बारे में केवल ऐसे विषयों पर ही क्यों जोर देते हैं जो भारत की विभिन्न समुदायों की भिन्नताओं को बढ़ावा देते हैं. तो उन अमेरिकी विद्वान् ने जवाब दिया की क्योंकि भारत में इतने अधिक मतभेद अव भिन्नताएं हैं की उनका अध्ययन होना आवश्यक है. इस पर डॉ.गौरीनाथ जी ने कहा की यदि ऐसा है तो इस प्रकार का अध्ययन करने के लिए अमेरिका ज्यादा उपयुक्त है क्योंकि अमेरिका में विभिन्न नस्लों के दुनिया भर के लोग आकर बसे हैं और अमेरिका को क्रुसिबिल ऑफ़ दिफ्फरेंट सिविलैजेशन कहा जाता है. लेकिन इसका कोई उत्तर उन अमरीकी सज्जन ने नहीं दिया. पुनः पूछने पर भी उत्तर नहीं दिया. थोड़ी देर बाद फिर वही सवाल पूछने पर उन्होंने झल्लाकर कहा की हम अम्रीका का बिखराव नहीं चाहते इसलिए इस प्रकार का अध्ययन नहीं करते. स्पष्ट हो गया की विदेशियों की रूचि भारत को तोड़ने की है इसी कारण से भेदभाव बढ़ाने वाले विषयों के अध्ययन पर जोर दिया जाता है. इस देश में गीता, रामायण आदि केवल धार्मिक ग्रन्थ नहीं हैं बल्कि ये नैतिक शिक्षा, मर्यादित जीवन की शिक्षा देने वाले ग्रन्थ हैं. कुछ वर्ष पूर्व जब दूरदर्शन पर रामायण व महाभारत सीरियल प्रसारित हुए तो बच्चों ने व नई पीढ़ी ने भी मम्मी, पापा की जगह माताश्री व पिताश्री कहना शुरू कर दिया था.जो इन देश तोदकों को पसंद नहीं है और रामायण व महाभारत के प्रसारण को सेकुलरिज्म विरोधी बताया जाने लगा. आवश्यकता इस बात की है की जिन को हिन्दू संस्कृति से प्यार है वो सत्ता में रहकर विरोध की परवाह किये बिना इस देश की प्राचीन संस्कृति और उससे जुड़े ग्रंथों को लागू करने में संकोच न करें.लोग भलीभांति जानते हैं की भाजपा हिंदूवादी पार्टी है और ये जानते हुए ही लोगों ने भाजपा को सत्ता सोंपी है अतः आलोचनाओं से घबराएँ नहीं और अपने निर्णय पर पूरी द्रढ़ता से डटे रहें.

  5. आदरणीय सिन्हा जी, आपके प्रयास सफल हों…इन सेक्युलरों ने गीता, रामायण जैसे पवित्र ग्रंथों को भी साम्प्रदायिक बना दिया है…
    हमे इन्हें पढने का मौका ही नहीं देते…आपके द्वारा हम इसका अध्ययन करेंगे…आप लिखते रहें…
    आभार…

  6. आदरणीय सिन्हा जी ! जो होता है अच्छा ही होता है. मूल भारतीय अनार्य मीणा जी द्वारा प्रारम्भ की गयी “आर्यानार्य” कथा अपूर्ण रह गयी थी ….आपके द्वारा इसका दोष परिमार्जन किया जा रहा है ….यह अत्यंत आवश्यक है …..आज इन्हीं हठी भ्रांतियों को दूर करने की अधिक आवश्यकता है. दुर्भाग्य से ऐसे लोगों की संख्या बढ़ती ही जा रही है. एक ही परिवार में जो सुसंस्कृत है वही आर्य ( श्रेष्ठ ) है शेष को तप की आवश्यकता है. हम तो मानते हैं कि आर्य-अनार्य सभी भारत के मूल निवासी हैं. इन्हीं आर्यों -अनार्यों में से कुछ लोग पूरे विश्व में समय समय पर विभिन्न कारणों से जा कर बसते रहे हैं. लोगों को आर्यत्व का विरोध करने की अपेक्षा इस गुण को पाने का प्रयास करना चाहिए. धर्म पाल जी द्वारा रचित पुस्तकें भारत का लुप्तप्राय पर वास्तविक इतिहास प्रस्तुत करती हैं. भारत के सभी लोगों को उनका अध्ययन करना ही चाहिए. हम आप जैसे डॉक्टर और इंजीनियर तो इसमें रूचि रखते हैं पर इतिहास के विद्यार्थियों को तो धर्मपाल जी का नाम तक पता नहीं.
    आपके स्तुत्य प्रयासों व लेखन हेतु मंगल कामनाएं.

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