भारत शायद विश्व का सबसे विचित्र देश !

सुमंत विद्वांस

खबर है कि ड्रग्स बेचने के आरोप में कल इरान में 11 लोगों को फांसी दे दी गई.वहीं दूसरी ओरआज से ठीक तीन वर्षों पूर्व 26 नवंबर 2011 को मुंबई हमले में मारे गए सैकड़ों निरपराध नागरिकों का हत्यारा भारत में आज भी न सिर्फ जीवित है, बल्कि देश के लाखों करदाताओं की कमाई के करोड़ों रूपये उसकी सुरक्षा पर खर्च किए जा रहे हैं. इससे ज्यादा शर्मनाक औरदुखद क्या हो सकता है?

इस मामले में भारत शायद विश्व का सबसे विचित्र देश है. एक ऐसा देश, जिसके बारे में पूरी दुनिया ये स्वीकार करती है कि आतंकवाद का सबसे ज्यादा दंश भारत ने ही झेला है. एक ऐसा देश, जो पिछले बीस वर्षों से लगातार आतंकवाद का सामना कर रहा है और जिसने इस संघर्ष में अपने लाखों नागरिकों और हज़ारों जवानों को खोया है. लेकिन साथ ही एक ऐसा देश, जिसकी आतंकवाद के खिलाफ कोई मज़बूत, निर्णायक और स्पष्ट नीति नहीं दिखाई देती. स्वयं को स्वतन्त्र कहनेवाला एक ऐसा देश, जहाँ किसी नागरिक की सुरक्षा की कोई गारंटी नहीं है, लेकिन उन नागरिकों कि ह्त्या करनेवाले आतंकियों की सुरक्षा का पूरा इंतजाम है. एक ऐसा देश, जहाँ कोई आम नागरिक अपने ही देश में सुरक्षा-जाँच के बिना किसी मंदिर, रेलवे स्टेशन या एयरपोर्ट से नहीं गुजर सकता, लेकिन सीमा पार से घुसपैठ करनेवाला आतंकी बेरोक-टोक देश में आ सकता है.

मुंबई पर हमला करनेवालों ने भी इसी तरह समुद्री-मार्ग से इस देश में कदम रखा था और कुछ ही घंटों के भीतर सैकड़ों नागरिकों को मौत के घात उतार दिया.हालाँकि इसमें कोई संदेह नहीं कि मुंबई पुलिस और एनएसजी के जवानों ने अद्भुत साहस का परिचय देते हुए उस हमले को कुचल दिया और शहीद स्व. तुकाराम ओम्बले के अतुलनीय बलिदान के कारण आतंकी अजमल कसाब को जीवित पकड़ने में भी सफलता मिली.

लेकिन अफसोस है कि लगातार हो रहे इन आतंकी हमलों के बावजूद भारत सरकार आतंकवाद के खिलाफ युद्ध में अपनी कोई ठोस रणनीति स्पष्ट कर पाने में और कोई कड़ा कदम उठाने में असफल रही है. सारी न्यायिक प्रक्रियाओं के पालन के बाद संसद पर हमले के दोषी अफजल गुरु को सुप्रीम कोर्ट द्वारा सुनाई गई फांसी की सजा पर अभी तक अमल नहीं हो सका है. दूसरी ओर अजमल कसाब को भी मुंबई हाईकोर्ट द्वारा फांसी की सज़ा सुनाई गई है, लेकिन चूंकि मामला अभी ऊपरी अदालत में है, इसलिए ये स्पष्ट है कि उसकी फांसी पर अमल होने में भी अभी समय लगेगा.

वैसे आतंकवाद के प्रति भारत का ये कमज़ोर रवैया कोई नई बात नहीं है. इतिहास गवाह है कि 1947 बाद से ही ये परंपरा बनी हुई है कि सेना अपने पराक्रम से देश को जीत दिलाती है और राजनेता युद्ध के मैदान में मिली इस जीत को वार्ता की मेज पर हार में बदल देते हैं. आज़ादी के तुरंत बाद कश्मीर में पाकिस्तानी सेना ने घुसपैठ की, जिसका करारा जवाब देते हुए जब भारतीय सेना आगे बढ़ रही थी, तभी अचानक नेहरू जी ने युद्ध-विराम की घोषणा कर दी और कश्मीर विवाद संयुक्त राष्ट्र संघ में ले गए. नतीजा ये हुआ कि आज कश्मीर की समस्या विकराल रूप धारण कर चुकी है. हजारों सैनिक मारे जा चुके हैं, लाखों कश्मीरी पंडित अपने ही देश में शरणार्थी का जीवन जी रहे हैं, अनगिनत नागरिकों को अपनी जान गंवानी पड़ी है और पृथ्वी का स्वर्ग कहा जाने वाला कश्मीर का नंदनवन आज हिंसा, अलगाव और आतंक की लपटों में जल रहा है. 1965 के युद्ध में भी हमारी जीत हुई, लेकिन ताशकंद समझौते के बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री लाल बहादुर शास्त्री की रहस्यमय परिस्थितियों में हुई मृत्यु के कारण देश ने अपना एक सपूत खो दिया. 1971 में भारतीय सेना के हाथों एक बार फिर पाकिस्तान की ऐतिहासिक पराजय हुई, लेकिन शिमला समझौते से हम ज्यादा कुछ हासिल नहीं कर सके. न कश्मीर का कोई हल निकला, न पाकिस्तान की भारत विरोधी नीति में कोई फर्क आया.

इसलिए यह कोई आश्चर्य की बात नहीं कि वर्त्तमान यूपीए सरकार भी इसी परंपरा का पालन कर रही है. भारत वर्षों से विश्व-मंच पर लगातार ये मुद्दा उठाता रहा है कि ये सारी आतंकी गतिविधियाँ पाकिस्तान की भूमि से ही चल रही हैं. लेकिन पाकिस्तान ने आज तक ऐसा कोई कदम नहीं उठाया है, जिससे ये दिखाई दे कि वह भारत के साथ संबंध सुधारने का इच्छुक है. न तो पाकिस्तान में चल रहे आतंकी शिविर बंद हुए हैं, न ही वहाँ से होने वाली भारत-विरोधी गतिविधियाँ. लेकिन इसके बावजूद हाल ही में सार्क सम्मलेन के दौरान जब प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने पाकिस्तानी प्रधानमंत्री गिलानी को ‘शांति-पुरुष’ कह दिया, तो स्वाभाविक रूप से देश स्तब्धरह गया. मेरे जैसे अनेक युवाओं के मन में ये प्रश्न है कि यदि गिलानी शांति-पुरुष हैं, तो क्या अफजल और कसाब को शांति-दूत माना जाए?

पाकिस्तान के साथ अपने संबंधों को सामान्य करने,समस्याओं को सुलझाने और तनाव खत्म करने के भारत के अब तक के सभी प्रयास विफल रहे हैं. साथ ही, ऐसा कोई ठोस कारण भी नहीं दिखाई देता कि परिस्थितियों में बदलाव की उम्मीद की जा सके. आतंकी घटनाएँ लगातार जारी हैं और हर बार की तरह आतंक से लडने के बयानों और कुछ लोगों की गिरफ्तारी के बाद मामला ठंडा हो जाता है. मृतकों के परिजन न्याय की आस में भटकते रहते हैं और मानवाधिकारों के नाम पर कुछ संगठन आतंकियों की फांसी के विरोध में आवाज़ उठाते रहते हैं. नागरिक भी केवल आतंकी घटनाओं की वर्षगाँठ पर किसी आयोजन में सम्मिलित होकर मृतकों के प्रति अपनी श्रद्धांजलि व्यक्त करते हैं और देश फिर अपनी पुरानी चाल पर लौट जाता है. आज भी हम सभी मुंबई के शहीदों के प्रति अपनी श्रद्धांजलि अर्पित कर रहे हैं. लेकिन उन मृतकों की याद में एक मोमबत्ती जलाकर हम एक राष्ट्र के रूप मेंउन्हें सच्ची श्रद्धांजलि नहीं दे सकते.आवश्यकता इस बात की है कि सरकार आतंकवाद को कुचलने के प्रति गंभीर हो और इस सन्दर्भ में न सिर्फ न्यायालयीन निर्णयों के तुरंत पालन को सुनिश्चित किया जाए, बल्कि साथ ही आतंकवाद से निपटने के लिए कड़े क़ानून बनाए जाएँ और सैन्य-बलों के अधिकार कम करने के बजाए उन्हें आतंकवाद से लडने के लिए सभी आवश्यक अधिकार प्रदान किए जाएँ. आम नागरिकों के रूप में हमारा ये कर्त्तव्य है कि हम सजग रहकर पुलिस और सेना की सहायता करें और साथ ही सरकार पर लगातार ये दबाव बनाएँ कि वह आतंकवाद विरोधी अभियान को किसी भी स्थिति में कमजोर न पडने दे. यही आतंक के शिकार हुए लोगों के प्रति हमारी सच्ची श्रद्धांजलि होगी.

1 COMMENT

  1. भारत दुनिया के सबसे विचित्र देश है. ठीक ही कह रहे है श्री सुमंत जी.

    ऐसे लोग जिन्हें गुड और तेल का भाव पता नहीं होता है. यह भी पता नहीं होता है की गुड और तेल में से क्या पन्नी में मिलेगा और क्या बोतल में, वे इस देश के नियम, काननों, नीतिया बनाते है निर्धारित करते है.

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