विविधा

रामदेव या भिंडरवाले का नया संस्करण?

अनिल त्यागी

स्वामी रामदेव के अनशन से उत्पन्न बवाल ने देश में एक बहस छेड़ दी है कि केन्द्र सरकार और स्वामी में कौन गलत है और कौन सही है? सब अपने अपने तरीके से दुराग्रही विश्लेषण में व्यस्त हैं, नतीजा कुछ नहीं निकलेगा यह तय है। युद्ध नीति है कि चार कदम आगे जाने के लिये दो कदम पीछे भी हटना पडे तो गलत नहीं है। रामदेव अपने समर्थकों की सेना सहित बहुत आगे तक बढे अब यदि उन्हें दो कदम पीछे हटना भी पड़ा तो उनमें इतनी निराशा क्यों व्यापत है कभी प्रेस कांफ्रेस में रोते है कभी स्त्री बेश में मीडिया के सामने आते है इससे तो उनका डिप्रेशन में होना साफ होता है। क्या उन्हे दिल्ली से देहरादून फिर उसके बाद अपनी योग पीठ तक पहुंचने के बाद भी इतना समय नहीं मिला कि अपने वस्त्र बदल सके लेकिन उन्हें तो सहानुभूति बटोरनी थी चाहे इसके लिये कोई भी प्रपंच रचना पडे़।

चार जून की रात दिल्ली के रामलीला मैदान में पुलिस ने जो किया उसका समर्थन नहीं किया जा सकता लेकिन बाबा ने जो दादागिरी दिखाने के प्रयास किये उन्हें भी उचित नहीं कहा जा सकता। जब बाबा रामदेव ने देख लिया था कि इतनी भारी संख्या में पुलिस बल है और कार्यवाही का पूरा इंतजाम कर आया है तो उन्हें चुपचाप गिरफतारी दे देनी चाहिये थी जिससे की कुछ अप्रिय न हो लेकिन उस समय बाबा की उछल कूद मंच पर दौडते फंलागते आना और फिर अपने समर्थकों के कन्धों पर चढ़ कर पुलिस को चेतावनी देना कि पुलिस आगे न बढे, फिर अपने समर्थको की आड में पुलिस को रोकना ऐसे कृत्य है जिन्हें किसी भी दशा में संन्यासी को शोभा का सामान नहीं कहा जा सकता।

और फिर दो घण्टे के लिये गायब हो जाना, ऐसा स्वार्थ, अपने समर्थको को आखिर किस के सहारे छोड़ कर बाबा मैदान से खिसक गये थे। ये तो दिल्ली पुलिस के अधिकारियों कें संयम की सराहना करनी होगी कि बाबा और उनके समर्थकों की उत्तेजना के बाद भी उन्होंने संयम नहीं खोया,।

स्वामी जी के क्या मुद्दे थे और वे क्या चाहते थे ये अलग प्रश्न है लेकिन देश की जनता को समझ लेना चाहिये कि भावनात्मक मुद्दे किसी वर्ग समूह को संगठित कर संघर्ष के लिये मिटने के लिये झोंक तो सकते है पर परिणाम नहीं निकाल सकते। जनता का भावनात्मक मुददों पर वैचारिक रूप से वशीकरण करना कोई नई बात नहीं है, किसी जमाने में भाषाई आन्दोलनों के कारण आज तक राज्यों मे आपसी भाईचारे का अभाव है इसी से उपजे क्षेत्रवाद की उपज क्षेत्रीय राजनैतिक दल है जिनकी नीयत और नीति सिर्फ अपना भला करने की है, गरीबी इंदिरा गांधी की हत्या और राम मन्दिर जैसे भावनात्मक मुद्दो ने राजनीति में अपना प्रभाव बनाया है और तो और भावनात्मक हरण का सफल उदाहरण नरेन्द्र मोदी है जो नगरपालिकाओं के चुनाव जेल में बन्द अमितशाह जैसे अपराधियों को हीरो बना कर जीतते है।

यदि खुलेपन से सोचे तो जाने कि आखिर रामदेव है क्या? संत या मंहत? संत को काम तो संतई कर साधना करना है और मंहत का काम संतों को आश्रय के लिये आश्रम का प्रबन्धन है जिसमें मंहत जी सर्वेसर्वा होते है उनके स्रोत दान व भिक्षा होते है चाहे जन से हो या शासन से, उसे प्रबन्धन के लिये किसी ट्रस्ट या व्यापार की आवश्यकता अथवा अनुमति नहीं होती। योगपीठ के योगाचार्य या योगगुरू? इस पर देखें तो योगी तो चिन्तक, विचारक, दिशा निर्धारक होता है वो तो सिर्फ सारथी बन कर अपने पार्थ को कर्तव्य पालन का उपदेश देता है स्वयं सेनापति नहीं बनता। योगी तो योग साधना और योग चक्रो की स्थापना करता है किसी भोली जनता को योग के नाम पर पहलवान नहीं बनाता, तो फिर रामदेव हैं क्या एक शब्द बचता है संन्यासी ? संन्यासी देखने में बाबा रामदेव लगते भी है पर सिर्फ अपने बाप का घर छोडकर हवाई जहाज में उडने वाले मंहगी लक्जरी गाडियों के सफर करने वाले सुविधा संम्पन्न भवन के स्वामी को संन्यासी कहना भी गलत होगा, समस्त स्त्री जाति को सम्मान देने वाले, माता बहनों का सम्बोधन देने वाले को ब्रह्मचारी तो कहा जा सकता है संन्यासी नहीं।

जिस व्यक्ति ने संन्यास ले लिया हो उसे अपने सांसारिक अधिकारों को छोड़ देना चाहिये उसके किसी ट्रस्ट अथवा कम्पनी बनाने का औचित्य ही क्या है महंत परम्परा में तो मंहत अपने आश्रम या पीठ का अपने चेले को उत्तराधिकारी बनाता। वहां उसे किसी वोटिंग या राय की जरूरत नहीं होती। संतो महंतों का राजनिती से क्या लेना देना उन्हें तो वोट का अधिकार होना ही नहीं चाहिये। हालांकि वे देश के नागरिक हैं पर देश के नागरिक तो जेल में बन्द कैदी भी होते है पर वे अपने कर्मों के कारण नागरिक अधिकारों से वंचित कर दिये जाते है तो फिर स्वयं को समाज से अलग करने वाले के लिये नागरिक अधिकारों का उपभोग उचित नहीं कहा जा सकता, संन्यासी बडी कम्पनी बना कर व्यापार करे अजीब बात है।

खैर छोडि़ये यदि जनता को उन्हें समर्थन है तो उन्हें कोई सरकार नहीं रोक पायेगी और यदि समर्थन केवल दिखावा है तो इच्छित लक्ष्य उन्हें मिलेगा नहीं। जहॉ तक संघ परिवार या किसी मोर्चे के समर्थन की बात है तो उनका समर्थन जिनके लिये खुलेआम है जब वे ही कुछ नहीं कर पा रहे है तो ढके छिपे समर्थन का महत्व ही क्या है। दिल्ली और उत्तर प्रदेश से नकारे बाबा को उत्तराखंड ने सहारा दिया है जहॉ उन्होंने शास्त्र के साथ शस्त्रों की बात की है। खतरा है कोई जरनैल सिंह भिंडरवाले का नया संस्करण तो अवतरित नहीं हो रहा है।