-ललित गर्ग-
बिहार का यह चुनाव केवल एक राजनीतिक मुकाबला नहीं था, बल्कि लोकतंत्र की चेतना, जनता के विश्वास और नेतृत्व की विश्वसनीयता को परखने का अवसर भी था। परिणाम जिस तरह सामने आए, उन्होंने न केवल बिहार बल्कि पूरे देश एवं दुनिया को चौका दिया। यह जीत केवल गठबंधन की सामूहिक ताकत की नहीं, बल्कि नीतीश कुमार के नेतृत्व में वर्षों से स्थापित सुशासन मॉडल और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के प्रति जनता के अटूट भरोसे का परिणाम है। बिहार की महिलाओं ने इस चुनाव में निर्णायक भूमिका निभाई है-उनकी उम्मीदें, उनका साहस और उनका भरोसा इस परिणाम के मूल में खड़ा दिखाई देता है। बिहार में इतने एकतरफा नतीजे की उम्मीद किसी को नहीं रही होगी। चुनाव प्रचार के दौरान जो लड़ाई टक्कर की दिख रही थी, वह आखिर में केवल भ्रम साबित हुई। जनता ने न महागठबंधन के बदलाव के नारे पर यकीन किया और न ही प्रशांत किशोर की अलग राजनीति पर भरोसा जताया, बल्कि खुद को परिपक्व एवं जागरूक प्रदर्शित करते हुए मूल्यों एवं विकास के मानकों पर मतदान दिया। आंकड़ों का विश्लेषण होता रहेगा, लेकिन मोटे तौर पर यह परिणाम कई संदेश देता है कि अब बिहार जंगलराज नहीं चाहता, विकास की नई सुबह देखना चाहता है, एसआईआर को वोट चोरी के रूप में दी गयीप्रस्तुति उसे स्वीकार्य नहीं हुई, वह अतीत के भ्रष्ट शासन से मुक्ति के लिये अतीत की त्रासद यादों एवं भविष्य के सुनहरे भविष्य के बीच चयन करते हुए लालू-राबड़ी यादव के शासनकाल की की काली छाया नहीं चाहता। भले ही तेजस्वी यादव पूरे समय इसी नैरेटिव को तोड़ने में लगे रहे कि वक्त बदल चुका है और वह दौर अब नहीं लौटेगा। उन्होंने उल्टे अपराध पर नीतीश सरकार को घेरने की कोशिश की, पर सफल नहीं रहे।
नीतीश कुमार के लिए 20 बरसों में यह पहला विधानसभा चुनाव था, जहां वह गठबंधन का तो चेहरा थे, पर सीएम पद के उम्मीदवार नहीं थे। उनकी छवि को धुंधलाने एवं उन्हें बीमार घोषित करने के भी पूरे प्रयत्न हुए लेकिन, परिणाम ने साबित किया है कि नीतीश अब भी बिहार के सबसे बड़े राजनीतिक प्रतीक एवं सुशासन-पुरुष हैं। वह अब तक नौ बार मुख्यमंत्री पद की शपथ ले चुके हैं, कई बार उन्होंने पाला बदला, लेकिन जनता का यकीन उन पर बना हुआ है। इसकी बड़ी वजह उनकी बेदाग छवि भी है। लेकिन इस बार उनकी चुनौतियां भाी बड़ी है। वैसे लोकतंत्र की खूबसूरती यह है कि जीत जितनी बड़ी होती है, चुनौतियां भी उतनी ही व्यापक हो जाती हैं। बिहार में एनडीए की इस ऐतिहासिक विजय के बाद जिस दौर की शुरुआत हो रही है, वह उत्साह से कहीं अधिक जिम्मेदारी का दौर है। नीतीश कुमार एक बार फिर मुख्यमंत्री बन रहे हैं, यह अपने-आप में निरंतरता, स्थिरता और सुशासन की अपेक्षाओं को नयी ऊँचाई देता है। परंतु अब उनके सामने जो प्रश्न खड़े हैं, वे कहीं अधिक गहरे, जटिल और चुनौतीभरे हैं।
बिहार विधानसभा चुनाव में महागठबंधन की करारी हार केवल एक राजनीतिक पराजय नहीं, बल्कि परिवारवादी राजनीति के प्रति जनता की निर्णायक और स्पष्ट निष्पत्ति है। मतदाताओं ने यह संदेश दो टूक दिया है कि राजनीति किसी परिवार, वंश या व्यक्तिगत प्रभुत्व की जागीर नहीं हो सकती। खासकर क्षेत्रीय दलों में फैला वंशवाद, व्यक्तिवाद और उत्तराधिकार की अनिवार्य राजनीति जनता को लगातार विचलित करती रही है। परिणामों ने यह उजागर कर दिया कि अब मतदाता सिर्फ चेहरे और परिवारों के मोहजाल में नहीं फँसना चाहते, बल्कि वे विकास, पारदर्शिता, जवाबदेही और सुशासन को प्राथमिकता देने लगे हैं। महागठबंधन की हार उसी व्यापक जनभावना का परिणाम है, जिसमें जनता ने यह तय कर दिया कि लोकतंत्र में जनता की सत्ता सर्वाेपरि है, किसी भी राजनीतिक खानदान की नहीं।
बिहार की सबसे बड़ी चुनौती रोजगार की है। वर्षों से यह राज्य बेरोजगारी के दर्द से जूझता रहा है। करोड़ों युवाओं की आंखों में नौकरी, अवसर और सुरक्षित भविष्य का सपना है। चुनावी वादे जिस उत्तेजना के साथ किए जाते हैं, उन्हें व्यवस्थित नीति, धैर्य और राजनीतिक ईमानदारी से लागू करना किसी भी सरकार के लिए आसान कार्य नहीं होता। लेकिन जनता ने इस बार उम्मीदों की जो गठरी सौंपी है, वह स्पष्ट संकेत है कि अब पूरा बिहार ठोस काम चाहता है, खोखले वादे नहीं। दूसरी बड़ी चुनौती कानून-व्यवस्था की है। सुशासन का मॉडल तभी सार्थक है जब आम नागरिक के जीवन में सुरक्षा की ठोस अनुभूति हो। अपराध, राजनीतिक संरक्षण, दंगा-फसाद और अराजकता किसी भी समाज की प्रगति को रोकते हैं। नीतीश कुमार से जनता की अपेक्षा है कि वे एक बार फिर वही कठोरता, वही व्यवस्था और वही संतुलित रणनीति लेकर आएंगे, जिसने कभी ‘जंगलराज’ को समाप्त कर सुशासन का नया इतिहास लिखा था। महिलाओं से किए गए वादे भी अब सरकार की प्राथमिक कसौटी बनेंगे। आधी आबादी ने जिस उत्साह और भरोसे के साथ एनडीए को पुनः सशक्त किया है, यह सरकार के लिए प्रेरणा के साथ-साथ उत्तरदायित्व भी है। सुरक्षा, शिक्षा, स्वास्थ्य, आर्थिक स्वतंत्रता और सामाजिक सम्मान-ये पांच मुद्दे बिहार की महिलाओं की असली जरूरत हैं, और चुनावी वादों का मूल्यांकन भी अब इन्हीं पर होगा।
बिहार की अर्थव्यवस्था की मजबूती केंद्र सरकार के सहयोग पर भी निर्भर है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता और उनके विकास-एजेंडे ने इस चुनाव को निर्णायक रूप दिया। जब केंद्र और राज्य की नीतियों में तालमेल होगा, तब ही आर्थिक सुधार, निवेश, उद्योग, रोजगार-सृजन और आधारभूत संरचना के बड़े सपने साकार होंगे। बिहार को अब केवल वित्तीय सहायता की ही नहीं, बल्कि विकास की स्थायी संरचना की जरूरत है, जिससे आने वाली पीढ़ियां लाभान्वित हों। लेकिन इन सबके बीच एक बड़ा प्रश्न मन को झकझोरता है-लोकतंत्र में चुनाव कब तक केवल ‘सौदेबाजी’ बने रहेंगे? कब तक वादों की भीड़, लुभावने नारों और जातीय समीकरणों के आधार पर जनता के विश्वास की खरीद-फरोख्त चलती रहेगी? आखिर लोकतंत्र की स्वस्थ दिशा क्या हो? यह चुनाव परिणाम हमें इस सवाल के सामने खड़ा करता है कि राजनीति को फिर से मूल्यों, दृष्टि, दीर्घकालिक योजनाओं और नैतिकता की ओर लौटना होगा। लोकतंत्र की प्रतिष्ठा तभी बचेगी जब राजनीति भविष्यदर्शी बने, जब चुनाव उत्सव कम और उत्तरदायित्व अधिक हों।
बिहार, जिसे कभी पिछड़ेपन, गरीबी, पलायन और अपराध का प्रदेश कहा जाता था, आज भारतीय लोकतंत्र का एक जीवंत प्रयोगशाला बन गया है। यह प्रदेश भविष्य में किस दिशा में जाएगा, यह केवल सत्ता की नीतियों पर ही नहीं, बल्कि जनता की जागरूकता, मीडिया की ईमानदारी और राजनीतिक दलों की नैतिक प्रतिबद्धता पर भी निर्भर करेगा। आज बिहार के पास अवसर है कि वह खुद को एक प्रगतिशील, शिक्षा-संपन्न, रोजगार-समृद्ध, सुरक्षित और आत्मनिर्भर राज्य के रूप में स्थापित करे। बिहार की यह जीत इतिहास में दर्ज होगी-सिर्फ इसलिए नहीं कि परिणाम अप्रत्याशित थे, बल्कि इसलिए कि इसने एक नए अध्याय के लिखे जाने की उम्मीद जगाई है। अब समय है कि यह उम्मीद हकीकत में बदल सके। राजनीति तभी सार्थक होगी जब यह जनता के जीवन को बेहतर बनाने का माध्यम बने और बिहार इस दिशा में देश के लिए एक आदर्श उदाहरण प्रस्तुत कर सके।